Monday 23 February 2015

6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान

अगले खंड में  उन लोगों की भ्रांतियों को दूर करने का क्रमशः प्रयास  किया गया है जो यह कहते हैं की वेदों में कर्मकांड पर ही जोर दिया गया है।  वास्तव में वेदों के अंतिम भाग को जिसे उपनिषद् कहा जाता है , में ब्रह्म विज्ञान की प्रचुर जानकारी दी गयी है जो  विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियों द्वारा मान्यता प्राप्त हैं।  इन सारगर्भित बिन्दुओं को गंभीरता से थोड़ा थोड़ा पढ़ने से ही समझ में आयेगा और सभी भृम दूर हो जाएंगे। 

6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान
( 1 ) सभ्यता के प्रारंभ काल में प्रकृति के पहाड़, नदी,  पेड़, आग , विजली आदि को पूजने पर जब लोगों के मन की तृप्ति नहीं हुई तब सबसे बलिष्ठ और ज्ञानी व्यक्ति को  ईश्वर  का अवतार मानकर पूजा जाने लगा। परंतु स्वरूप में प्रतिष्ठित होने की इच्छा ने उन्हें दार्शनिक  बनाया और वे सोचने लगे कि सान्त (limited) की पूजा से उस अनादि अनन्त अव्यक्त व्यापक सत्ता (infinite entity) की अनुभूति कैसे की जा सकती है? वे यह जानने के लिये बेचैन हो गये कि जिसको सर्व सत्ता देकर मन ग्रहण करेगा वह कैसा है? यहीं से ऋग्वेद और ब्रह्म भावना का विकास प्रारंभ हुआ और यजुर्वेद में यही अंकुर अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं में विस्तारित हुआ। दिव्य चेतना से साक्षात्कार करने की चेष्टा में उन्होंने पाया कि यह सब भौतिक जगत उस असीम विराट सत्ता का ही खंड विकास है इन में से कोई भी उनका पूर्ण विकास नहीं है। परंतु खंड की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती क्यों कि वह भी उन्हीं का अविच्छेद्य अंग है। साधारण मनुष्य इस गूढ़ ब्रह्म तत्व को सहज ही नहीं समझ सके अतः जप, यज्ञादि बहर्मिुखी क्रियाकलाप को धर्म साधना समझ उसे ही जकड़े रखने का प्रयास करते रहे। बहुत सोच विचार करने पर जब यह पाया कि खंड का त्याग करना संभव नहीं है क्यों कि भोजन वस्त्र आवास आदि जीवन के लिये अनिवार्य हैं अतः सभी वस्तुओं में यदि उस विराट की भावना लेकर उनका प्रयोग किया जावे तो विराट का बोध सदा मन में बना रहेगा और सीमित के प्रति आसक्ति नहीं रह पायेगी। प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म भाव को आरोपित कर उनकी क्षुद्रता की सीमा मिटा देने पर ब्रह्मानन्द का उपभोग किया जा सकता है।

( 2 )  कहा गया है कि ‘‘ईशा  वास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत् , तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‘‘। यह जगत हमेशा  गतिशील है, यह ब्रह्माॅंड ब्रह्म का मानसिक विकास है अतः जो आज जैसा है वह कल वैसा नहीं रहेगा अतः प्रत्येक वस्तु में ईश्वरीय  भावना भरना  होगी।  भूमि, घर , नदी, पहाड़, मान अपमान, दिन, रात, सब कुछ उन्हीं के हैं और खंड रूपमें वे ही प्रकाशित हैं अतः उनकी वस्तुओं को उनका ही दान समझ कर यथयथ भाव से व्यवहार करते चलो यह भोग करना उन्हीं को भोग करना है , खंड का मोह त्याग कर अखंड के साथ संपर्क स्थापित करो। क्या पुत्र को खिलाते हो ? नहीं नही, ब्रह्म के ही पुत्ररूपी विकास को खिलाते हो। क्या भूमि पर हल चलाते हो? नहीं नहीं, ब्रह्म का ही यह सीमित विकास है भूमि , इस पर हल चलाकर मात्र उसकी सेवा करते हो, इस प्रकार की भावना लेने से मन भौतिक जगत में लिप्त नहीं होगा और सब कुछ में रहते हुए भी सब कुछ के बाहर रह सकोगे और अंन्त में परम पद में शान्ति लाभ करोगे। प्रत्येक कार्य और वस्तु में ब्रह्म भावना लेने पर कर्मबंधन नहीं बाॅंध सकते। यह कार्य केवल आध्यात्मिक साधक ही कर सकते हैं, केवल मन की साधना करने वाले नहीं, क्योंकि मन इंद्रियों से परिचालित होकर अंधकार की ओर चला जाता है। इंद्रियों के भोग हेतु जो जड़ की ओर मन को दौड़ाते रहते हैं वे आत्मघाती हैं। कुछ लोग मुख से ब्रह्म को और आत्मा को मानते हैं धर्मरक्षा के नाम पर  रक्तपात करते हें पर व्यक्तिगत जीवन में हमेशा  भोग्य वस्तुओं की ओर ही दौड़ते रहते हैं ये लोग क्रमशः  ज्योति से अंधकार की ओर जाते है। मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य ब्रह्म साधना है।
(3 ) तत्वतः आत्मा और परमात्मा एक ही वस्तु हैं, भेद केवल मानसिक विषय में है। जीवमन जब अपने विषय के रूप में अनन्त को ग्रहण करता है तभी परमात्मा हो जाता है। भोग्य वस्तु के अनन्त नहीं होने तक शाश्वत  सुख नहीं पाया जा सकता है और भावनीय तथा अभावनीय वस्तु समूह   में एकमात्र परमात्मा ही अनादि और अनन्त हैं इसलिये एक मात्र परमात्मा को छोड़कर किसी भी सत्ता से अनन्त सुख प्राप्त कर पाना संभव नहीं है। खंड वस्तु की प्राप्ति से सुख भोग की अपेक्षा उसके खो जाने का भय अधिक रहता है। संसार को दुखमय देखने वालों को इसके खो जाने का ही दुख  रहता है, परंतु ज्ञानी इसके खो जाने से दुखित नहीं होते क्यों कि वे जानते हैं कि सब दुखों का कारण स्वसृष्ट संस्कार हैं। इसलिये क्लेश  भोगकाल में साधकों को चाहिये कि पूर्वकृत अपराध के लिये स्वयंको धिक्कार कर भविष्य में क्लेश  न भोगना पड़े इसके लिये सब प्रकार के अपकर्म से दूर रहेंगे। यह याद रखना चाहिये कि जब तक संस्कार क्षय नहीं होता है तब तक दुख भोगना ही होगा। अपने संस्कार के लिये दूसरों को दोष नहीं देना चाहिये ये स्वयं के त्रुटिपूर्ण आचरण की ही प्रतिच्छाया
होते है। लोगों को कहते सुना जाता है. हे भगवान इतना पूजा पाठ किया, दान किया, क्या इसका यही परिणाम है कि दुखों ने आ घेरा? यह कहना उचित नहीं है। दुख में कभी भी घबड़ाना नहीं चाहिये उसी अनादि अनन्त सत्ता को मन के विषय रूप में ग्रहण कर उसी के अनुरूप आचरण करना चाहिये।
( 4  ) जिनमें सभी कुछ स्थित है उन सार्वदेशिक सत्ता में गति नहीं है पर यह भी सही है कि उनकी मानस देह में उनकी ही कल्पना से सभी सत्तायें गतिशील हैं अतः वे मन से भी तेज गति से चलते हैं। इन्द्रियां  उन्हें नहीं पकड़ पाती क्योंकि उनकी दौड़ विषयों की ओर होती है जोकि उनके मानसिक विचार का बाह्य रूप हैं। वे आनन्दघनसत्ता, अपने स्वरूप में मानसिक स्तर के ऊपर प्रकाशित होते है।‘‘तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके च, तदन्तरस्य सर्वस्य तदुसर्वस्यास्य वाह्यतः।‘‘ वे आनन्दघन सत्ता, हमारे निकट हैं ,सब के भीतर बाहर सब जगह समान रूपसे रहते हैं, जब साधक उन्हें पहचान लेते हैं, तब उनकी ब्राह्मी स्थिति हो जाती है और अन्दर बाहर एकाकार हो जाता है, क्षुद्र आकर्षण से मन हट जाता है, परम ब्रह्म के साथ उनका यथार्थ परिचय हो जाता है, शरीर यहीं पड़ा रहता है और आत्मा, परमात्मा में मिल जाती है, फिर मन को पहचाना नहीं जा सकता कि किसका मन है। . क्रमशः .... 

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