Friday, 20 February 2015

6.8 चिंतन ध्यान और रूपान्तरण

6.8 चिंतन ध्यान और रूपान्तरण
गहन विचार करना चिंतन कहलाता है। गहन चिंतन कैसे किया जाता है? मानलो आप किन्हीं श्री ‘क‘ जो लन्दन में रहते हैं, को मानसिक रूपसे देखना चाहते हैं। चूंकि यह भौतिक जगत और विभिन्न रंगों से संबंधित मामला है अतः विशुद्ध चक्र जो कि रंगों पर नियंत्रण रखता है उसकी ग्रंथियों और उप ग्रंथियों पर मन को केन्द्रित करना होगा। इसके बाद कूर्मनाड़ी से होते हुए मस्तिष्क के उन तंतुओं पर जाना होगा जो इन सब पर नियंत्रण करते हैं। इसे प्रत्याहार की विधि कहते हैं। इसके बाद उस द्रश्यावली  को देखते हुए ध्वनि और रंगों तथा चिंतनीय विषय पर मन को केन्द्रित करना होगा। यह रहस्यमय है। यदि सुगंधित वस्तु को अनुभव करना हो तो हमें मूलाधार चक्र से प्रारंभ करना होगा, यदि चिंतनीय वस्तु एक प्रकार की गंध वाली है तो कम समय लगेगा अन्यथा अधिक। इससे स्पष्ट है कि आध्यात्मिक साधक को मानव शरीर की संरचना का ज्ञान होना कितना आवश्यक  है। सभी सैलों का एक एक  नियंत्रक विंदु होता है और इन सभी नियंत्रक विंदुओं का नियंत्रण करता है गुरु चक्र, जो क्रेनियम के भीतर सहस्त्रार चक्र के नीचे होता है। इसी चक्र में सर्वज्ञान होने की क्षमता होती है। परम सत्ता को जानने का अर्थ है इन सैलों के रहस्य को जान लेना। इस तरह दूसरे शब्दों  में यह कहा जा सकता है कि मैंपन के नियंत्रक बिंदु को उसका साक्ष्य देने वाले रूपसे मेल कराने के कार्य को चिंतन या मनन कहते हैं। गहन चिंतन मनन में ब्रेन सैल, शीर्ष मनोविज्ञान ,गहन विचार, गुरु चक्र और परिणामतः समर्पण सम्मिलित रहता है। मानलो किसी व्यक्ति का चेहरा देखा, अब आॅंखें बंद कर पुनः तुलना कर देखें कि किस स्तर पर मानसिक चित्र मन में रह पाया आनलो चैथाई भाग । अब अपनी क्षमता से और उसका आकार बढ़ाने का प्रयत्न करने पर जितना अधिकतम वह बढ़ पाता है वही मन की सीमा हुई, इसे ही सब्जेक्टिवेटेड पेबुला कहते हैं। जब आॅंखों से बाहर की कोई वस्तु दिखाई देती है तो इसे आव्जेक्टिवेटेड पेबुला कहते हैं। मन की सीमा सब्जेक्टिवेटेड पेबुला पर निर्भर करती है आव्जेक्टिवेटेड पर नहीं। भौतिक और मानसिक पेबुला को परस्पर बदला जा सकता है पर आध्यात्मिक क्षेत्र में नहीं। मन में परिवर्तन करना 25 प्रतिशत मामलों में खतरनाक हो सकता है क्योंकि यदि सही सामंजस्य नहीं हो पाया तो पागलपन हो सकता है। यदि सही संतुलन बनाये रखा गया तो केवल झिन झिन का आभास होगा और व्यक्तित्व बदल जायेगा। आत्मा के बदलने पर मृत्यु का डर रहता है, यदि सही संतुलन न हो सका तो 2/3 दिन में मृत्यु हो जाती है। आन्तरिक रूप से रूपान्तरण माइक्रोवाइटा से किया जाता है। अतः जितना अधिक सब्जेक्टिवेटेड पेबुला की सीमा होती है उतना ही अधिक मन का क्षेत्र भी होता है। अपने पवित्र विचारों से दूसरे की मानसिक तरंगों को भी बदला जा सकता है। किसी पर पवित्र ढंग से चिंतन करने पर उसे इच्छानुकूल बदला जा सकता है।
कर्म के द्रष्टिकोण से मनुष्य शरीर के तीन चक्रों की प्राथमिकता होती है। नाभि क्षेत्र में मनीपुर जो कि रुद्र ग्रथि भी कहलाता है वह अत्यंत कठोर होता है, दूसरा विष्णु ग्रंथि के पास और तीसरा आज्ञा चक्र त्रिकुटी पर। गले में स्थित कूर्मनाड़ी पर स्थित होता है विशुद्ध चक्र जो बृहस्पति ग्रंथी भी कहलाता है क्योंकि इसकी सहायता से बुद्धि को शक्तिशली बनाया जाता है। इसी के आस पास थायरायड और पैरा थायरायड ग्रंथियाॅं होती हैं। जैव द्रव्य या लिंफ के साथ इन चक्रों की क्रिया और पारस्परिक संबंधों के फलस्वरूप अनेक प्रकार के ग्रंथिरस या हारमोन उत्सर्जित होते हैं जो प्रवाहित होकर नीचे की ओर आते हैं और नीचे के चक्रों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते है। अनाहत चक्र के पास स्थित सौर चक्र के द्वारा अधिकाॅंश  हारमोन्स अवशोषित कर लिये जाते हैं। आज्ञाचक्र के ऊपर की ग्रंथियों और उपग्रंथियों द्वारा जब हारमोन्स का स्राव किया जाता है तो आज्ञाचक्र उसे अवशोषित कर लेता है जिससे आॅंखों के रेटिना अत्यधिक आनन्द के प्रभाव से ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं। आॅंखों में नींद जैसी भर जाती है इसे योग निद्रा कहते हैं। इसके बाद ये हारमोन्स निचले चक्र विशुद्ध चक्र में अवशोषित हो जाते हैं और बहुत कम मात्रा में नीचे की ओर के चक्रों तक जा पाते हैं।  यदि साधना ठीक होती रहती है तो विशुद्ध चक्र पर हारमोन्स के अवशोषित होने पर आवाज मधुर हो जाती है और आनन्दातिरेक में कूर्मनाड़ी कंपित होने लगती है , शरीर अचल, द्रढ़ और त्वचा कोमल हो जाती है। अनाहत तक आते आते सभी सुधारस पूर्णतः शोषित हो जाता है और यदि  इस विंदु पर तक आ जाता है तो साधक को आनन्द के कारण मदहोशी  आ जाती है। यह वैसी ही होती है जैसी भगवान सदाशिव हमेशा  अनुभव करते थे। मनीपुर चक्र के नीचे भी अनेक ग्रंथियाॅं और उपग्रंथियाॅं होती हैं और उन से भी अनेक प्रकार के ग्रंथिरस स्रवित होते हैं पर वे किसी चक्र के द्वारा अवशोषित नहीं होते वे अपशिष्ट होकर बाहर निकल जाते हैं। तान्त्रिक क्रियाओं के द्वारा इन्हें रोका जा सकता है इसे स्तंम्भन कहते हैं। मनीपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्र भौतिक जड़ता से जुड़े होने के कारण इष्ट मंत्र को इन पर केन्द्रित नहीं करते हैं। अनाहत, विशुद्ध आज्ञा और गुरु चक्र पर ही इष्ट मंत्र से ध्यान किया जाता है। ग्रथियाॅं और उपग्रंथियाॅं मस्तिष्क के सैलों से नियंत्रित होती हैं जो हजारों की संख्या में होते हैं। इन्हीं से संवेदनाओं और स्वतः प्रतिक्रियाओं को भी नियंत्रण किया जाता है। इन सभी नर्वसैलों का अपना आपना प्राण केन्द्र होता है और इन सभी प्राण केन्द्रों को नियंत्रित करने वाला विंदु मस्तिष्क के भीतर होता है जो कुशा  की नोक के बराबर होता है इसे ही गुरुचक्र कहते हैं। इसी में गुरु, परमगुरु, परापरगुरु और परमेष्ठिगुरु रहते हैं। चिंतन मनन और ध्यान के लिये यह सर्वोत्तम बिंदु है। गुरुचक्र पर गुरु का ध्यान करना गुरुसकाश  कहलाता है जिसका अर्थ है गुरु की शरण में जाना उनके समीप बैठना। यदि कोई अपने बीज मंत्र को बिना रुके हमेशा  जाप करता है तो जाप का लय जो गुरु के घ्यान के समय उत्पन्न होता है, वह सोने के समय स्वप्रेरित होकर लगातार चलता रहता है, इसे साधक नहीं जान पाता और सबेरे जागने पर उसे पता ही नहीं लगता है कि वह किस अवस्था में था। जब जीवन के लय के साथ जप का लय मिल जाता है तो इसे धर्ममेघ समाधि कहते हैं । जब इस प्रकार की स्थिति लगातार बनी रहे और साधक साधना को नहीं छोडे़ तो स्मरण स्थायी हो जाता है इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। इस अवस्था में सोते समय भी ध्यान चलता रहता है भले ही औपचारिक रूपसे ध्यान नहीं किया जाता ,इसी लिये इसे अजपा जप या अध्यानध्यान कहते हैं । वे जिनका समय भावप्रवणता या अतिसंवेदनाओं के कारण व्यर्थ नष्ट होता है उन्हें गुरुचक्र पर गुरु का ध्यान सिद्धासन में उसी कंबल या विस्तर के वस्त्र पर बैठकर करना चाहिये जिस पर सोते है। सोकर उठने पर तत्काल बिना कोई भी कार्य किये , बिना कोई बिचार मन में लाये, बिना किसी प्रातःकालीन आवश्यक  कार्य किये गुरुध्यान करना उच्चस्तर का गुरुध्यान कहलाता है।  कहा गया है कि
 ‘‘प्रातः शिरसि शुक्ले अब्जे द्विनेत्रम द्विभुजम गुरुम् वराभयकृत हस्तम् स्मरेत्तम् नामपूर्वकम्।‘‘
अर्थात् रोज शीघ्र सुवह उठते ही दो नेत्र और दो भुजाओं वाले, गुरुचक्र पर श्वेत  कमल पर वराभय मुद्रा में
बैठे गुरु को अपने प्यारे  ‘‘बाबा‘‘ इस नाम से पुकारते हुए ध्यान करना चाहिये।

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