6.5 मन की आन्तरिक और बाह्य पहुंच
बाह्य वस्तुओं से टकराकर आने वाली प्रकाश किरणें जब हमारी आॅंख में से प्रकाश नाड़ी के माध्यम से मस्तिष्क के तंतुओं पहुचती हैं तब हम उस वस्तु को देख पाते हैं क्योंकि देखी गयी वस्तु का प्रतिविंब वहाॅं बन जाता है। मन में वाह्य प्रभावों से आकार का निर्मित होना वाह्यान्तरिक पहुंच कहलाती है। अब यदि किसी हाथी का आकार आपने अपने मन में भीतर ही भीतर बनाया और अपने एक्टोप्लाज्मिक सैलों के प्रबल प्रभाव से हाथी के सहानुभूतिक कंपनों को बाहर प्रक्षेपित कर दिया तो वह प्रक्षेप आपके साथ साथ वहाॅं उपस्थित अन्य लोग भी देखेंगे। मनोविज्ञान में इसे धनात्मक मतिभ्रम कहते हैं। इसी प्रकार यदि वाह्य दिखाई दे रहे हाथी पर आपने अपनी एक्टोप्लाज्मिक शक्ति से उससे परावर्तित होने वाली प्रकाश किरणों को अपनी ओर खींच लिया, तो हाथी के वहाॅं रहते हुए भी अन्य लोग उसे नहीं देख पायेंगे, इसे ऋ़णात्मक मतिभ्रम कहते हैं। इसतरह धनात्मक मतिभ्रम में बस्तु न होते हुए भी दिखती है जबकि ऋणात्मक मतिभ्रम में बस्तु होते हुए भी नहीं दिखती। यह मन की आन्तर्वाह्य पहुंच कहलाती है। स्पष्ट है कि एक्टोप्लाज्मिक तरंगों की तीव्र शक्ति से डाला गया दबाव धनात्मक अथवा ऋणात्मक मतिभ्रम पैदा करता है। परमपुरुष कौन हैं? वह जो अपने एक्टोप्लाज्मिक बल से सब कुछ निर्मित कर रहे हैं। अतः सब कुछ उनके मन के भीतर ही हो रहा है बाहर कुछ नहीं है अतः उनके लिये वाह्यान्तरिक अथवा आन्तर्वाह्य किसी भी प्रकार के प्रक्षेप की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि वह जो अपने मन में सोचते हैं वह दूसरों को वास्तव में घटित प्रतीत होता है। प्रषान्त महासागर हमें बाहर दिखाई देता है पर वह परमपुरुष के मन में ही है, मन से निर्मित कर वे उसे मन से ही देखते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मन से देखने के लिये आॅंखों की आवश्यकता नहीं होती। उनके लिये वाह्य कुछ नहीं सब कुछ आन्तरिक है। इस लिये उन्हें पाने के लिये मन से ही जुड़ने का अभ्यास करना होगा। उनकी दो कमियाॅं हैं, एक तो वे दूसरा परमपुरुष नहीं बना सकते और दूसरा वे किसी से घृणा नहीं कर सकते। जब समस्त ब्रह्माॅंड उनके मन के भीतर ही है तो अन्य किसी चीज की उन्हें क्या आवश्यकता? पर भक्त गण उपाय ढूॅंड ही लेते हैं, वे कहते हैं ए परमपुरुष! तुम्हारे बड़े बड़े भक्तों ने तुम्हारा मन छीन लिया है, तुम मन हीन हो गये हो, मैं तो मामूली भक्त हूँ पर मेरे पास मन है , मैं तुम्हें प्रेम करता हॅूं इसलिये मेरा मन तुम ले लो, तुम्हारे पास किसी चीज की कमी क्यों रहे?
बाह्य वस्तुओं से टकराकर आने वाली प्रकाश किरणें जब हमारी आॅंख में से प्रकाश नाड़ी के माध्यम से मस्तिष्क के तंतुओं पहुचती हैं तब हम उस वस्तु को देख पाते हैं क्योंकि देखी गयी वस्तु का प्रतिविंब वहाॅं बन जाता है। मन में वाह्य प्रभावों से आकार का निर्मित होना वाह्यान्तरिक पहुंच कहलाती है। अब यदि किसी हाथी का आकार आपने अपने मन में भीतर ही भीतर बनाया और अपने एक्टोप्लाज्मिक सैलों के प्रबल प्रभाव से हाथी के सहानुभूतिक कंपनों को बाहर प्रक्षेपित कर दिया तो वह प्रक्षेप आपके साथ साथ वहाॅं उपस्थित अन्य लोग भी देखेंगे। मनोविज्ञान में इसे धनात्मक मतिभ्रम कहते हैं। इसी प्रकार यदि वाह्य दिखाई दे रहे हाथी पर आपने अपनी एक्टोप्लाज्मिक शक्ति से उससे परावर्तित होने वाली प्रकाश किरणों को अपनी ओर खींच लिया, तो हाथी के वहाॅं रहते हुए भी अन्य लोग उसे नहीं देख पायेंगे, इसे ऋ़णात्मक मतिभ्रम कहते हैं। इसतरह धनात्मक मतिभ्रम में बस्तु न होते हुए भी दिखती है जबकि ऋणात्मक मतिभ्रम में बस्तु होते हुए भी नहीं दिखती। यह मन की आन्तर्वाह्य पहुंच कहलाती है। स्पष्ट है कि एक्टोप्लाज्मिक तरंगों की तीव्र शक्ति से डाला गया दबाव धनात्मक अथवा ऋणात्मक मतिभ्रम पैदा करता है। परमपुरुष कौन हैं? वह जो अपने एक्टोप्लाज्मिक बल से सब कुछ निर्मित कर रहे हैं। अतः सब कुछ उनके मन के भीतर ही हो रहा है बाहर कुछ नहीं है अतः उनके लिये वाह्यान्तरिक अथवा आन्तर्वाह्य किसी भी प्रकार के प्रक्षेप की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि वह जो अपने मन में सोचते हैं वह दूसरों को वास्तव में घटित प्रतीत होता है। प्रषान्त महासागर हमें बाहर दिखाई देता है पर वह परमपुरुष के मन में ही है, मन से निर्मित कर वे उसे मन से ही देखते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मन से देखने के लिये आॅंखों की आवश्यकता नहीं होती। उनके लिये वाह्य कुछ नहीं सब कुछ आन्तरिक है। इस लिये उन्हें पाने के लिये मन से ही जुड़ने का अभ्यास करना होगा। उनकी दो कमियाॅं हैं, एक तो वे दूसरा परमपुरुष नहीं बना सकते और दूसरा वे किसी से घृणा नहीं कर सकते। जब समस्त ब्रह्माॅंड उनके मन के भीतर ही है तो अन्य किसी चीज की उन्हें क्या आवश्यकता? पर भक्त गण उपाय ढूॅंड ही लेते हैं, वे कहते हैं ए परमपुरुष! तुम्हारे बड़े बड़े भक्तों ने तुम्हारा मन छीन लिया है, तुम मन हीन हो गये हो, मैं तो मामूली भक्त हूँ पर मेरे पास मन है , मैं तुम्हें प्रेम करता हॅूं इसलिये मेरा मन तुम ले लो, तुम्हारे पास किसी चीज की कमी क्यों रहे?
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