Wednesday 11 February 2015

मध्य (भाग पाॅंच) मन और मानव शरीर 6.0: योगमनोविज्ञान और ब्रह्मविज्ञान

इस खंड में मानव मन और मानव शरीर के साथ योग मनोविज्ञान और ब्रह्म विज्ञान किस प्रकार सम्बंधित है और इन की सहायता से अपने आप को समझने में  किस प्रकार सरलता होती है ,  इन रहस्यों पर चर्चा की जाएगी। नौं उपखण्डों में दिया गया यह  विवरण गूढ़ है अतः इसे अनेक बार थोड़ा थोड़ा पढ़ने पर ही समझ में आएगा।  इसकी गंभीरता अनेक रहस्यों को लिए  हुए है।    


मध्य (भाग पाॅंच)  मन और मानव शरीर

     6.0: योगमनोविज्ञान और ब्रह्मविज्ञान

6.1 मन की संरचना
मन क्या है? न तो यह कोई भौतिक आकार का है और न ही विशुद्ध आत्मिक। यह वह हेै जो भौतिक और मानसिक जगत को इंद्रियों के माध्यम से जोडे़ रखता है। जैसे  द्रष्टि, इसके लिये आॅंखें दरवाजे का काम करतीं हैं और प्रकाश  तंत्रिका  के सहारे आॅंखों से देखा गया भौतिक द्रश्य  मानसिक संसार में सूचित कर दिया जाता है। इस तरह इंद्रियाॅं, शरीर से अधिक ताकतवर हैं। मन का कोई मानसिक या भौतिक दरवाजा नहीं है, इसलिये इसे बाहर से नहीं देखा जा सकता। परंतु वह इंद्रियों से जुड़ा रहता है अतः दार्शनिक  ने इसे भी विशेष सूक्ष्म इंद्रिय का नाम दिया है वह भी ग्यारहवीं। इसमें अन्य दस इंद्रियों से अंतर यह है कि इसका कोई भौतिक दरवाजा नहीं होता जब कि अन्य सबका होता है। इस सूक्ष्मता के कारण ही अन्य इंद्रियों की अपेक्षा मन का भौतिक शरीर पर अधिक प्रभाव होता है। अपने दरवाजों से आने वाली सूचनाओं को सभी इंद्रियाॅं मन को भेजती हैं फिर मन अपनी प्रतिक्रिया देकर भौतिक शरीर को कार्य करने का निर्देश  देता है। अतः यदि आप मन से अच्छा कार्य लेना चाहते हैं तो उसे प्रशान्त  रखा जाना आवश्यक  हैं, इसके लिये आपको दसों इंद्रियों और आठों अवयवों की सहायता से उसेे सूचित करते रहना होगा जो भारसाम्य और बलसाम्य बनाये रखने में मदद करेंगे।

मन का नियंत्रण

          इंद्रियाणांम् मनो नाथः मनो नाथश्च  मारुतः। मन इंद्रियों का स्वामी है और मन का स्वामी है प्राणवायु। मन के तीन क्रियात्मक भाग महत्तत्व, अहम्तत्व ओर चित्तत्व कहलाते हैं। वाह्य संसार के संवेदन इंद्रियों के द्वारा अहमतत्व को प्रेषित किये जाते हैं वह उन्हें अनुभव करता है और अपनी प्रतिक्रिया चित्तत्व की सहायता से इंद्रियों को वापस कर देता है। इस प्रकार मन भावजगत और भौतिक जगत दोनों के बीच घूमता रहता है, उसकी स्थिति मस्तिष्क में होती है जो कि भौतिक है और प्राणशक्ति के द्वारा नियंत्रित होता है। जब मन स्थिर होता है  श्वाश  धीमी चलती है परंतु जब मन अस्थिर होता है श्वाश   तेज हो जाती है। दौड़ते हुए कोई भी  किसी विषय पर गहराई से नहीं सोच पाता क्योंकि श्वाश  तेज चलती है। अतः प्राणऊर्जा मन को नियंत्रित करती है। प्रणायाम दस प्रकार की वायु को नियंत्रित करता है अतः वह मन को नियंत्रित करने की क्रिया है।
         किसी के विचारों के समयान्तराल के अनुसार उसकी साॅंस का प्रवाह रहता है अतः स्वाभाविक श्वसन क्रिया को विशेष प्रकार के लय अर्थात् रिद्म की ओर मोड़ देने पर मन नियंत्रित हो जाता है। प्रणायाम का यही अर्थ है। इंद्रियाॅं शरीर का नियंत्रण करती हैं मन इंद्रियों का नियंत्रण करता है और मन का नियंत्रण करता है प्राणवायु, अतः अष्टाॅंग योग में प्राणायाम का बड़ा महत्व है।
          जब किसी संस्कार के कारण श्वसन   क्रिया विचलित होने लगती है तो मन भी विचलित हो जाता है और मन के विचलित हो जाने पर संबंधित प्रवृत्ति या इंद्रिय भी विचलित हो जाती है। इसी कारण अन्य प्रवृत्तियाॅं या इंद्रियाॅं भी अक्रिय हो जाती हैं। परंतु यदि प्राणायाम की सहायता से श्वसन  क्रिया को लयबद्ध बना लिया जावे तो वृत्तियाॅं और इंद्रियाॅं शांत हो जाती हैं। इसे विशेष रूपसे याद रखा जाना चाहिये । लगातार के अभ्यास से यह पता लगना सरल हो जाता है कि किस वृत्ति की सक्रियता श्वास  के असंतुलित होने पर होती है और कौनसी वृत्ति श्वास  के शांत होने पर शांत हो जाती है। प्राणायाम का लगातार अभ्यास करने पर वासना, क्रोध, लोभ, दर्प, आसक्ति और ईर्ष्या  आदि वृत्तियों पर नियंत्रण हो जाता है।

मन जड़ की ही सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है, यह सूक्ष्मतर सत्ता ही स्तर भेद के अनुसार कहीं अस्तित्व बोध के साथ जड़ का संबंधीकरण करती है और कहीं वह जड़ का भाव रूप ग्रहण करती है। इस प्रकार इसके तीन खंड होते हैं।
- जिस सत्ता के द्वारा अस्तित्व बोध जागता है वह सबसे सूक्ष्म है इसे महत तत्व कहते हैं। उन्नत श्रेणी के जीव इस कोटि में  आते हैं।
-जिस सत्ता से अस्तित्व बोध के साथ जड़ के संबंध का निर्णय होता है वह अपेक्षतया स्थूल होता है इसे अहंतत्व कहते हैं।
-जिस सत्ता से जड़ का शव रूप ग्रहण होता है इस स्थूलतम अंश  को चित्त कहते हैं। इस से जड़ भाव ग्रहीत होता है पर अस्तित्व बोध नहीं।
जिनका चित्त अहं से बड़ा होता है उनकी मनीषा अविकसित होती है, जड़ भोग ही उनके जीवन का ध्येय होता है। उनकी मनन शक्ति जड़ या चित्त की सीमा में ही दौड़ती रहती है। बकरी हरे पत्ते देखकर खाने दौड़ेगी पर मनुष्य लोभनीय भोग वस्तु को देखकर हिताहित सोचकर ही उधर दौड़ेगा क्योंकि आदमी का अहं , चित्त से बड़ा होता है इस कारण मनीषा के जाग्रत रहने से वह चित्तवृत्ति का नियंत्रण करती है।
उदाहरणतः  अवनत श्रेणी के लता गुल्म या जीव। इनमें महततत्व जाग्रत न होने से स्थूल देह काट कर दो टुकड़े कर देने पर भी वे दो प्राणियों में परिणत हो जाते हैं। चैतिक संघर्ष के बढ़ने से अहं और महत  आयतन में बढ़ते जाते हैं। 
मानसः    (mind)     जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से कम होता है।
मनीषाः (intellect)    जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से अधिक होता है।
बोधिः  (intuition)    जब महत का आयतन अहं के आयतन से अधिक होता है।
- जिनका भाव संघात अधिक है उनमें ही वोधि विकास संभव है। यह बोधि तथा सुप्तावस्था में कुलकुडलनी अभिन्न हैं। भावसंघात और साधना से  प्रसुप्ता कुंडलनी को जगाकर उठाने का अर्थ है बोधि का विकास। जिनकी कुंडलनी जगी है वह जड़ जगत के निवासी नहीं, बोधि राज्य के निवासी हैं।

-जिनकी मनीषा नहीं जगी है वह प्रकृति की ताड़ना से चलते हैं और जिनकी मनीषा जगी है वे इसकी सहायता से विश्लेषण द्वारा अपने यथार्थ साध्य को निर्वाचित कर लेते हैं और फिर उसी साध्य की भावना में चलते हैं मनीषा जब साध्य की भावना में चलती है तो वाह्य और आंतरिक इंद्रियां उनकी आज्ञानुसार भृत्य की तरह कार्य करती हैं उनका मन इंद्रियों का दास नहीं रहता।

-निम्नतर जीवों में  स्थूलदेह की आवश्यकता की  पूर्ति करने के अलावा कोई वृत्ति नहीं होती, कुछ उन्नत जीवों का मन दो चार स्थूल वृत्तियों तक ही सीमित होता है अतः उनका मन भाव समझना सरल होता है।

-भाव संघात अधिक होने से मन की गति सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है जिससे उनकी भावग्रहण क्षमता बढ़ती जाती है, इस तरह जड़तथा सूक्ष्म दोनों ओर गति होने के कारण मन में प्रबल आंदोलन होता है जिससे मन में छोटी बडी अनेक तरंगें बनने लगती हैं यही मन की विभिन्न वृत्तियां कहलाती हैं।

-मनीषा का जागरण जितना अधिक होगा वृत्तियां उतनी ही अधिक होंगी और मन भी उतना ही विचित्र होगा और उसे पहचानना उतना ही कठिन होगा।

-बुद्धि जब बोधि के रूप में विकसित हो जाती है तो मनुष्य देखता है कि सब कुछ के मूल में एक ही सत्ता है अतः वह समस्त वृत्तियों को एकत्रकर उस एक की ओर दौड़ाता है अतः बोधि की बृद्धि के साथ वृत्तियां कम होने लगतीं हैं और अंत में एक ही वृत्ति रह जाती है उसे आनन्द कहते हैं संस्कृत में इसे हृदय या गुहा कहा जाता हैं। धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां। गुहा माने पहाड़ की गुफा नहीं इसका अर्थ है बोधि।

-intellect के जागने से मनुष्येतर प्राणियों में जो वस्तु ज्ञान होता है उसमें प्रशिक्षा की तुलना में सहजात संस्कार अधिक कार्य करते हैं परंतु मनुष्य में सहजात संस्कार से प्रशिक्षा का प्रभाव अधिक होता है अतःयदि वह आध्यात्मिक आदर्श  को सामने न रखकर  बस्तु विज्ञान की चर्चा में ही  रत रहता हो तो क्रमागत वस्तु के ध्यान से उसकी बुद्धि जड़ मानस में रूपान्तरित हो जायेगी। स्पष्ट है कि वैज्ञानिक यदि आध्यात्मिकता विमुख होते हैं तो वे पृथ्वी का कुछ भी अनर्थ कर सकते हैं।

-दर्शन  की अत्यधिक चर्चा व्यक्ति को तार्किक बनाती है, संदिग्ध कर अहंकारी बनाती हेै। चूंकि दर्शन  की दौड़ धूप बौद्धिकता के भीतर ही होती है अतः उसका उल्लंघन करना उसके सामर्थ्य  में नहीं होता अतः वह परमात्मा को छू नहीं सकता।

-बुद्धि के ऊर्ध्व  में जब बोधि का विकास होता है तभी पता चलता है कि वस्तु विज्ञान अथवा दर्शन  इनमें किसी से भी जीव का चरम कल्याण नहीं। केवल बोधि ही उस परम सत्ता को छू सकती है। जिसे बोधि प्राप्त हो गई उसे पंडित, डिर्ग्रीधारी होना आवश्यक  नहीं है। शास्त्रीय तर्कजाल की आवश्यकता  नहीं।

-वोधि प्राप्त व्यक्ति अपने अनुभव से बात करते हैं वे दर्शन  का चर्वित चर्वण नहीं करते, उनकी अनुभूतियों को ही पंडित लोग दर्शनशास्त्र  बनाकर व्याख्या करते हैं पर पाते कुछ नहीं।

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