Friday 6 February 2015

5.95 माइक्रोवाइटा और अदेह आत्मायें

5.95 माइक्रोवाइटा और अदेह आत्मायें
1. उन्नत बौद्धिक स्तर प्राप्त व्यक्ति मरने के बाद देवयोनि और अन्य दुर्गुणी लोग प्रेतयोनि में अदेह भटकते हैं जब तक कि उन्हें अन्य शरीर नहीं मिल जाता । वे जो दूसरों को विभिन्न कारणों से मानसिक क्लेश देते  हुए मरते हैं वे दुर्मुख प्रेतयोनि में अशरीर रहते हैं और लंबे समय तक परिणाम भोगने के बाद पुनः मानव शरीर में जन्म लेते हैं।
2. वे जो अपमान के कारण, मानसिक विकृति से या कुंठा से, या अत्यधिक लगाव वश  ,क्रोध , लोभ , अहंकार , जलन आदि के कारण आत्म हत्या कर लेते हैं वे कबंध प्रेतयोनि में रहते हैं और मानसिक रूप से असंतुलित लोगों को आत्महत्या के लिये प्रेरित करते रहते है।
3. मानसिक रूपसे बेचैन रहनेवाले वह व्यक्ति जो अस्थिर प्रकृति के होते हैं हर समय अपने विचार बदलते रहते हैं। वे स्वयं परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं। मरने के बाद वे अदेह मध्यकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
4. जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैंऔर अविद्या का सहारा लेकर पाप कर्म करते हैं और मारक हथियारों को बहुतायत से निर्माण करने का कार्य करते हैं और निर्दयता से लाखों लोगों की हत्या करते हैं वे महाकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
5. वे बुद्धिवादी जो दूसरों में हीनता का भाव जगाते हैं और अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग रचनात्मक काम में नहीं करते बल्कि दूसरों का दमन करने में लगाते हैं ब्रह्मदैत्य या ब्रह्मपिशाच  प्रेतयोनि में भटकते हैं।
6. योग्यता के न होने पर भी अपनी महत्वाकाॅंक्षा की पूर्ति करने के लिये जो हमेशा  विध्वंसक काम में संलग्न रहते हैं और जघन्य अपराध करने से भी नहीं हिचकते वे आकाशी प्रेत बनकर भटकते हैं और लंबे समय तक फल भोगने के बाद फिर जन्म ले पाते हैं।
7. जे सब चीजों को अपने खाने और अपने सुख पाने की नियत से उपभोग करते हैं चाहे वह इस योग्य हो या नहीं, ये लोग मरने के बाद पिशाच प्रेतयोनि में रहते हैं।

उपरोक्त सभी प्रेतयोनियाॅं ऋणात्मक माइक्रोवाइटा श्रेणी में हैं। स्मरण रहे ऋणात्मक माइक्रोवाइटा गंध तन्मात्रा को और धनात्मक माइक्रोवाइटा ध्वनि तन्मात्रा को अपने वाहन के रूपमें प्राथमिकता देते हैं।
8. महापुरुषों के पवित्र और उन्नत विचार आकाशीय तरंगों में मिलकर धनात्मक माइक्रोवाइटा के सहयोग से पूरे विश्व  में फैल जाते हैं। धनात्मक माइक्रोवाइटा दूध को दही में बदलते हैं और मानवता की सेवा करते हैं।मानव विचारों और भावनाओं को ये माइक्रोवाइटा संश्लेषण कर अंतिम रूप से उत्तम बुद्धि में परिवर्तित कर देते हैं।
9. गंध  के द्वारा अनेक बीमारियाॅं फैलती हैं, जैसे त्वचारोग और फोड़े फुन्सियाॅं ,गले में लेरिंगाइटिस की बीमारी आदि,  (लेरिंगाइटिस में गले में अल्सर हो जाता है और आवाज कर्कश  हो जाती है। वे जो लगातार लंबे समय तक गाते हैं या व्याख्यान देते हैं उनके गले में यह बीमारी हो जाती है जो ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से होती है। इस बीमारी से बचने या दूर करने के उपाय हैं, सर्वांगासन और मत्स्यमुद्रा नियमित रूपसे करना तथा लोंग और पान के पत्ते को एकसाथ उबाल कर उसका गर्म पानी नाक से पीते हुए गले के कौआ के पास हाथ की मध्यमा अंगुली से सफाई करना चाहिये और फिर गले में भरे पानी को मुंह से बाहर कर देना चाहिये।)
10. मनुष्य का मन गंध और रूप तन्मात्राओं से अधिक प्रभावित होता है और ऋणात्मक माइक्रोवाइटा इन तन्मात्राओं से फैलते हैं पर यह उन लोगों को प्रभावित नहीं कर पाता जो साधना में रहते हुए अपने मन को उच्च स्तर पर बनाये रखते हैं। यदि कोई लंबे समय तक साधना में अपने मन को उच्च चक्र पर केन्द्रित रखे रहा हो और यदि तत्काल गंध तन्मात्रा द्वारा ऋणात्मक माइक्रोवाइटा आक्रमण करे तो वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता पर यदि व्यक्ति का मन क्रूड विचारों में चला जाये तो फिर वह इसके आक्रमण से नहीं बच सकता। यह कार्य गंधपिशाच नामक ऋणात्मक माइक्रोवाइटा का है।
11. तथाकथित भूत और कुछ नहीं वे गंधपिशाच माइक्रोवाइटा ही हैं जो डोगमा से पोशित बुद्धि को प्रभावित कर सोचने वाले के विचारों के अनुसार दिखाई देने लगते हैं। सभी प्रकार के ऋणात्मक माइक्रोवाइटा में से जो इन्द्रियों के द्वारा फैलते हैं सबसे खतरनाक होते हैं।
12. जिस प्रकार प्रेत योनियाॅं ऋणात्मक माइक्रोवाइटा द्वारा नियंत्रित होती हैं उसी प्रकार देवयोनियाॅं धनात्मक माइक्रोवाइटा के द्वारा नियंत्रित होती हैं। वे जो कभी अच्छे साधक रहे और अच्छे काम के लिये धन एकत्रित करते हुए परम पुरुष का अपना लक्ष्य भूलकर धन एकत्रित करने में ही लगे रहे , ऐसे लोग मरने के बाद यक्ष देवयोनी में  रहते हैं और  स्त्रीलिंग में यक्षिणी कहलाते हैं। अदेह अवस्था में इन्हें गंधयक्षिणी कहते हैं। इनसे अनेक प्रकार की विशेष सुगंध निकलती है। ये न तो धनात्मक माइक्रोवाइटा  और न ऋणात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं वरन दोनों के बीच होते हैं इन्हें माध्यमिक माइक्रोवाइटा कह सकते हैं। ये शरीर की अपेक्षा मन पर अधिक प्रभाव डालते हैं और जब तक धार्मिक स्तर पर मन रहता है ये प्रभावित नहीं करते पर ज्योंही निम्न विचारों में मन जाने लगता है ये सक्रिय हो जाते हैं, ये मन को हटाते नहीं हैं पर धर्म को प्रभावी कार्य के रूपमें स्वीकार नहीं करने देते। ये मन में विचार पैदा करते हैं कि अरे! जहाॅं हो वैसे ही साधना करो और अन्य कामों से भी संतुलन बनाये रखो जो कि एक प्रकार का स्वार्थी संतुलन है। ये शरीर  पर धनात्मक और ऋणात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव डालते हैं पर विनाशकारी नहीं। गंधयक्षिणी माइक्रोवाइटा का कार्य इस प्रकार समझा जा सकता है, मानलो आपको कहीं जाने के लिये ट्रेन पकडना है और आप समय पर तैयार भी हो गये पर अचानक पेट में दर्द हुआ और आराम करने लगे इतने में ट्रेन छूट गयी । बाद में आप को पता चला कि एक घंटे बाद ही उसी ट्रेन का भयंकर एक्सीडेंट हो गया। भले ही आप को दर्द हुआ और समय पर अपने गन्तव्य तक नहीं पुंचने से भी नुकसान हुआ पर जान तो बच गई। या अन्य इस प्रकार भी घटित हो सकता है कि आप कहीे काम से ट्रेन से जा रहे हैं और सोच रहे हैं कि ट्रेन समय पर न पहुचने से सब काम बिगड़ जायेगा क्यों कि अगले स्टेशन पर जो ट्रेन पकडना  है निकल जायेगी, नहीं मिल पायेगी , पर ज्यों ही वहाॅं पहुंचते हैं तो पता चलता है कि जिस ट्रेन को पकडना था वह अभी आधा घंटा लेट है अतः मिल जायेगी। यह सब गंधयक्षिणी का काम है। यह कोई देवी नहीं वरन् माध्यमिक माइक्रोवाइटा हैं।
13. गंध रुक्मिणी वह धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं जो गंध तन्मात्रा के द्वारा चलते हैं और आध्यात्म की ओर तेजी से बढ़ने के इच्छुक लोगों को बल पूर्वक आध्यात्मिक साधना की ओर आकर्षित कर लेते हैं। ऐंसा व्यक्ति अपने दैनिक कार्य करते करते अचानक ही सब कुछ छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़ता है। रुक्मिणी, कृष्ण की पत्नि सभी को आध्यात्म मार्ग की ओर लेजाने के लिये सक्रिय रहतीं थी और जो भी उनके संपर्क में आता था उसमें पूर्णतः रूपान्तरण हो जाता था और पहले से अधिक आध्यात्मिक हो जाता था। इसी लिये इस माइक्रोवाइटा का नाम गंधरुक्मिणी है। निमाईं पडित को अपने ज्ञान और शास्त्रार्थ की शक्ति का अंहंकार था अचानक अज्ञात शक्ति ने उन पर प्रभाव डाला और वे पूर्णतः बदल गये , सब कुछ त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े। यह काम गंधरुक्मिणी का था।
14. देवयोनि का अर्थ है वह सत्ता जिसमें अनेक दिव्य गुण हों। अनेक प्रकार की देवयानियों में से सात प्रकार प्रमुख हैं। किन्नर, विद्याधर, यक्ष, प्रकृतिलीन, विदेहलीन सिद्ध और गंधर्व। ऊपर वर्णित खंड 5.92 में  इनकी प्रकृति का विवरण दिया गया है। वे जिनका लगाव सुंदरता और आभूषण, धन आदि के प्रति होता है वे मृत्यु के बाद किन्नर होते हैं । ये भगवान के भक्त होते हैं पर भगवान के बदले उन्होंने सुन्दरता और आभूषणों की चाह की होती है  और सोचते हैं कि सब उनकी सुंदरता की तारीफ करें। अतः वे मरने के बाद किन्नर माइक्रोवाइटा हो जाते हैं वे लोगों को सुंदर होने की मनोविज्ञान सिखाकर सौंदर्यपरक बनाने में सहायक होते हैं।
15. आध्यात्मिक रूपसे वे उन्नत व्यक्ति जो परमपुरुष को अनुभव करने की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व देते हैं मरने के बाद विद्याधर माइक्रोवाइटा होते हैं । किन्नर से वे कुछ उन्नत होते हैं और संस्कार क्षय होते ही फिर से जन्म लेते हैं। ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और उन्हें मदद करते हैं जो बौद्धिक स्तर पर अपने को आगे लेजाना चाहते हैं। ये शरीर से सुंदर भले न हों पर मानसिक रूप से सुंदर प्रकृति के होने से सबको आकर्षित करते हैं। पर वे परमपुरुष को नहीं पाते।
16. वे जो आध्यात्म साधना करते करते अच्छे कार्यों के लिये धन संग्रह करने लगते हैं और फिर आध्यात्मिक उन्नति और परमपुरुष को भूल कर उसी में रम जाते हैं उनका आराध्य धन संपदा ही हो जाता है ऐंसे लोग मरने के बाद यक्ष माइक्रोवाइटा होते हैं, ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते पर वे परमपुरुष को नहीं पाते और संस्कारों के क्षय होते ही फिर से जन्म पा जाते हैं।
17. वे जो भ्रमित होकर परम पुरुष को भूल जाते हैं और जड़ पदार्थों की पूजा में लगे रहते हैं मरने के बाद प्रकृतिलीन होकर उनके मन पत्थर लकड़ी आदि हो जाते हैं। यहि दशा  बहुत ही दयनीय होती है पर संचित संस्कारों के क्षय हो जाने पर फिर से मानव देह पाते हैं पर चूंकि वे परम पुरुष को पाने की चाह रखते हैं वे देवयोनि में माने गयेहैं। जहाॅं देवयानि पत्थरों या लकड़ी के रूपमें होते हैं वे लगातार अपने मुक्त होने के लिये चिंतित रहते हैं अतः जब कोई आध्यात्मिक साधक ऐंसे स्थानों पर साधना करता है तो जल्दी ही उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है क्योंकि धनात्मक माइक्रोवाइटा सहायता करने लगते हैं। यदि देवयोनी की मदद से ध्यान केन्द्रित हुआ है तो वे नाक से हल्की मीठी सुगंध का अनुभव करते हैं और यदि वे गुरु की कृपा से ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं तो मधुर हल्की सुगंध के साथ वे चमकीले प्रकाश  की तरंगों के खंड भी देख पाते हैं चाहे आखें खुली हों या बंद। दोनो ही स्थितियों में गुरु की कृपा का ही महत्व है। आध्यात्मिक साधक पर जब गुरु की सीधी कृपा होती है तो वह हल्की सुगंध सूंघकर और चमकीली तरंगों के खंड देखकर मादक उल्लास से सब भिन्नताओं को भूल कर परम चेतना के सागर में आनन्दित होनें लगता है। तब वह अनुभव करता है कि गुरु कृपा के अलावा कुछ नहीं है।
18. वे जो आध्यात्मिक साधक तो होते हें और साधना जारी रखते हैं पर घरेलु परेशानियों और अन्य घटनाओं , जैसे बच्चे अच्छे न निकलना , फेल होना , धन समाप्त होना, बार बार धोखा होना आदि से दुखी होकर मानते हैं कि उनकी तरह दुर्भाग्य किसी का नहीं है और मर जाना चाहते हैं और इसी सोच में मर जाते हैं वे विदेहलीन होकर भटकते हैं जो बड़ी ही कष्टदायी अवस्था है। ये धनात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं और लोगों की मदद करते हैं संस्कारों  के क्षय हो जाने पर फिर मानव तन पाते हैं।
19. वे जो तल्लीनता से साधना करते हैं और कुछ दिव्य शक्तियाॅं पा जाते हैं तो वे और अधिक शक्तियों के पाने के चक्कर में परमपुरुष को पाने से ध्यान हटा कर सिद्धियों पर ही ध्यान लगाये रहते हैं ये मरने के बाद सिद्ध माइक्रोवाइटा हो जाते हैं। देवयोनियों में इनका सबसे ऊंचा स्थान है। आध्यात्मिक साधकों को यह अनेक प्रकार से मदद करते हैं। उनकी मुख्य भूमिका अभिभावक की तरह होती है। अनेक महापुरुषों के बारे में सुना जाता है कि उनके कोई गुरु नहीं थे वे सिद्धों के द्वारा दीक्षित थे,। साधकों को आवश्यकता होने पर सिद्ध उचित मार्गदर्शन देते हैं।
20. वे साधक जो संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय होने की कामना करते हैं और शरीर त्याग करते हैं वे गंधर्व देवयोनी में जाते हैं जो कि विशेष प्रकार के धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं।

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