प्रश्नोत्तर (प्र - 11 से आगे----)
12. कर्म और कर्मफल क्या हैं?
-कर्म कोई भी क्रिया है, भौतिक जगत में जब कोई क्रिया होती है तो उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। कर्म केवल शुद्धमानसिक या मनोभौतिक हो सकता है। मानसिक प्रभाव के विना कोई क्रिया नहीं हो सकती, जैसे, शरीर में कष्ट का अनुभव नहीं होगा यदि मन में इस कष्ट की संवेदना को अंकित करने वाला मानसिक प्रभाव न हो। इसलिये प्रत्येक क्रिया मनोआत्मिक होती है पूर्णतः भौतिक नहीं और वह विना किसी करण के नहीं हो सकती। वह कारण, मानसिक प्रभाव या तरंग जो संवेदना कहलाती है, होता है। कारण दो प्रकार के होते हैं, मूलकारण और आपात्कारण। आपात्कारण भी दो प्रकार के होते हैं, उपादान और निमित्त। जैसे, यदि कोई व्यक्ति किसी मकान में आग लगा देता है तो उसके पीछे कोई कारण होगा परंतु तत्काल द्रष्टाओं को तो मकान के जलने का कारण आग ही हुआ और वे हाथ जिन्होंने आग लगायी। यहां आग उपादान कारण और हाथ निमित्त कारण हुए। क्रियायें और संवेदना तरंगों के रूप में चलते हैं । तरंग के जिस सिरे पर क्रिया पूर्ण हो जाती है निमित्त कारण तत्काल दिखाई देने लगता है।यदि कोई इससे आगे सोचता है तो उपादान कारण मिलता है, और आगे का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि कारण तो आपात्कारण था और इस प्रकार मूल कारण तो विल्कुल भिन्न था। सभी क्रियाओं के मूल कारण व्यक्ति के संस्कार ही होते हैं। ये संस्कार संवेदना उत्पन्न करते हैं और संवेदना मनोभौतिक क्रिया में बदल जाती है। अन्य तात्कालिक आभसित होने वाले कारण, केवल संवेदना और क्रिया की तरंग गति के कारण होते हैं जो क्रमशः उपादान और नैमित्तिक कारण में बदलते हुए मूल कारण को प्रकट कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यह प्रतिक्रिया भौतिक-मानसिक होती है जो प्रतिसंवेदना को जन्म देती है जो संस्कार निर्मित करती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि प्रत्येक मानसिक क्रिया के मूल कारण व्यक्ति के संस्कार ही होते हैं। वहुधा यह देखा जाता है कि कोई छोटा सा बच्चा विना किसी अपराध किये किसी वीमारी का शिकार हो जाता है, यह बीमारी उसे बीमारी के जीवाणुओं द्वारा पैदा की जाती है जो इस बीमारी का कारण प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तव में बच्चे के संस्कार संवेदना पैदा कर उस विशेष रोग के जीवाणुओं को सक्रिय कर देते हैं। इस तरह मूल कारण उसके संस्कार ही हैं जिससे संवेदना रोग को आंमंत्रित कर लेती है अतः यह कहना गलत है कि बच्चा विना कारण के ही कष्ट पा रहा है। क्रिया प्रतिक्रिया की तरंग चाहे मानसिक हो या मनो भौतिक, इन्हीं के कारण संवेदना भौतिक कार्य में बदलती रहती है जो अंततः मानसिक प्रतिक्रया में बदलकर संस्कार उत्पन्न करती है। मनोभौतिक और मानसिक क्रिया का संयुक्त रूप कार्य कहलाता है। क्रिया का परिणाम कर्मफल कहलाता है। क्रिया के तत्काल अवलोकनकर्ता को यह कर्मफल प्रतिक्रिया के रूप में प्रतीत होता है। जैसे, अंगुली को आग में रखने का प्रत्यक्ष कर्मफल अंगुली का जलना है, यह तात्कालिक भौतिक प्रतिक्रिया है न कि अंतिम कर्मफल। यह भौतिक प्रतिक्रिया मानसिक प्रतिक्रिया या प्रतिसंवेदना को जन्म देकर संस्कार उत्पन्न करती है जो अगली मानसिक या भौतिक क्रिया का मूल कारण बनते हैं। पिछले कर्म का कर्मफल वास्तव में इसके बाद ही अनुभव होता है। अतः निमित्त और उपादान कारण मूल कारण की तरह आभासित होते हैं और क्रिया की तत्काल प्रतिक्रया परिणाम की तरह। पर, वह केवल भौतिक क्रिया ही होती है वास्तविक फल तो बाद में ही प्राप्त होता है। कर्म और कर्मफल एक ही तरंग में चलते हैं और किसी एक स्तर पर एक दूसरे के कारण बनते हैं। जबतक संस्कार और कर्मफल पूर्णरूप से क्षय नहीं हो जाते इन तरंगों का अन्त नहीं होता।
13. इकाई चेतना इकाई मन को किस प्रकार प्रभावित करती है?
किसी बस्तु या क्रिया का अस्तित्व उसके साक्षित्व पर निर्भर रहता है। इकाई मन का अस्तित्व तथा क्रियायें इकाई चेतना के द्वारा प्रदर्शित होती हैं जो स्वयं अपनी साक्षी सत्ता होती है। चितिशक्ति जीवात्मा के माध्यम से लगातार मन को सूक्ष्मता की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा देती रहती है, यद्यपि प्रेरणा का मूल श्रोत इकाई चेतना न होकर परम चेतना ही होती है जो उसके माध्यम से मन को प्रगति की ओर विस्तार करने के लिये प्रेरित करती है।
14. किसी प्रोटोप्लाज्म और मनुष्य की चेतना में क्या अंतर है?
-जीवित शरीर के प्रत्येक सैल जीवित होते हैं और उनका स्वतंत्र मन भी होता है परंतु अत्यंत अविकसित अवस्था में। प्रोटोप्लाज्म पर परमचेतना के परावर्तन से इकाई चेतना विकसित होती है। प्रतिसंचर के प्रवाह में प्रोटोप्लाज्मिक मन उच्च स्तर पा लेता है। रेत का अविकसित मन विकसित होकर प्रोटोप्लाज्मिक मन पर ही नहीं रुक जायेगा क्योंकि प्रतिसंचर वहीं समाप्त नहीं हो जाता, एक दिन प्रगति की इस प्रक्रिया में वह मानव मन और शरीर पा लेगा। मानव मन का कार्य क्षेत्र केवल बहुतसे मानसिक प्रोटोप्लाज्मों के कार्यक्षेत्रों का समूह नहीं है वल्कि वह स्वतंत्र मन होता है, इकाई मन। प्रोटोप्लाज्मिक मनों के समूह को विकसित मानव मन की गतिविधियों को सम्पन्न कर पाना संभव नहीं होता। प्रत्येक प्रोटोप्लाज्मिक मन में , पुरुष पर प्रकृति का अधिकार होता है अतः उसे अपनी स्वतंत्र इच्छा या साधना करना संभव ही नहीं होता।
12. कर्म और कर्मफल क्या हैं?
-कर्म कोई भी क्रिया है, भौतिक जगत में जब कोई क्रिया होती है तो उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। कर्म केवल शुद्धमानसिक या मनोभौतिक हो सकता है। मानसिक प्रभाव के विना कोई क्रिया नहीं हो सकती, जैसे, शरीर में कष्ट का अनुभव नहीं होगा यदि मन में इस कष्ट की संवेदना को अंकित करने वाला मानसिक प्रभाव न हो। इसलिये प्रत्येक क्रिया मनोआत्मिक होती है पूर्णतः भौतिक नहीं और वह विना किसी करण के नहीं हो सकती। वह कारण, मानसिक प्रभाव या तरंग जो संवेदना कहलाती है, होता है। कारण दो प्रकार के होते हैं, मूलकारण और आपात्कारण। आपात्कारण भी दो प्रकार के होते हैं, उपादान और निमित्त। जैसे, यदि कोई व्यक्ति किसी मकान में आग लगा देता है तो उसके पीछे कोई कारण होगा परंतु तत्काल द्रष्टाओं को तो मकान के जलने का कारण आग ही हुआ और वे हाथ जिन्होंने आग लगायी। यहां आग उपादान कारण और हाथ निमित्त कारण हुए। क्रियायें और संवेदना तरंगों के रूप में चलते हैं । तरंग के जिस सिरे पर क्रिया पूर्ण हो जाती है निमित्त कारण तत्काल दिखाई देने लगता है।यदि कोई इससे आगे सोचता है तो उपादान कारण मिलता है, और आगे का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि कारण तो आपात्कारण था और इस प्रकार मूल कारण तो विल्कुल भिन्न था। सभी क्रियाओं के मूल कारण व्यक्ति के संस्कार ही होते हैं। ये संस्कार संवेदना उत्पन्न करते हैं और संवेदना मनोभौतिक क्रिया में बदल जाती है। अन्य तात्कालिक आभसित होने वाले कारण, केवल संवेदना और क्रिया की तरंग गति के कारण होते हैं जो क्रमशः उपादान और नैमित्तिक कारण में बदलते हुए मूल कारण को प्रकट कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यह प्रतिक्रिया भौतिक-मानसिक होती है जो प्रतिसंवेदना को जन्म देती है जो संस्कार निर्मित करती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि प्रत्येक मानसिक क्रिया के मूल कारण व्यक्ति के संस्कार ही होते हैं। वहुधा यह देखा जाता है कि कोई छोटा सा बच्चा विना किसी अपराध किये किसी वीमारी का शिकार हो जाता है, यह बीमारी उसे बीमारी के जीवाणुओं द्वारा पैदा की जाती है जो इस बीमारी का कारण प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तव में बच्चे के संस्कार संवेदना पैदा कर उस विशेष रोग के जीवाणुओं को सक्रिय कर देते हैं। इस तरह मूल कारण उसके संस्कार ही हैं जिससे संवेदना रोग को आंमंत्रित कर लेती है अतः यह कहना गलत है कि बच्चा विना कारण के ही कष्ट पा रहा है। क्रिया प्रतिक्रिया की तरंग चाहे मानसिक हो या मनो भौतिक, इन्हीं के कारण संवेदना भौतिक कार्य में बदलती रहती है जो अंततः मानसिक प्रतिक्रया में बदलकर संस्कार उत्पन्न करती है। मनोभौतिक और मानसिक क्रिया का संयुक्त रूप कार्य कहलाता है। क्रिया का परिणाम कर्मफल कहलाता है। क्रिया के तत्काल अवलोकनकर्ता को यह कर्मफल प्रतिक्रिया के रूप में प्रतीत होता है। जैसे, अंगुली को आग में रखने का प्रत्यक्ष कर्मफल अंगुली का जलना है, यह तात्कालिक भौतिक प्रतिक्रिया है न कि अंतिम कर्मफल। यह भौतिक प्रतिक्रिया मानसिक प्रतिक्रिया या प्रतिसंवेदना को जन्म देकर संस्कार उत्पन्न करती है जो अगली मानसिक या भौतिक क्रिया का मूल कारण बनते हैं। पिछले कर्म का कर्मफल वास्तव में इसके बाद ही अनुभव होता है। अतः निमित्त और उपादान कारण मूल कारण की तरह आभासित होते हैं और क्रिया की तत्काल प्रतिक्रया परिणाम की तरह। पर, वह केवल भौतिक क्रिया ही होती है वास्तविक फल तो बाद में ही प्राप्त होता है। कर्म और कर्मफल एक ही तरंग में चलते हैं और किसी एक स्तर पर एक दूसरे के कारण बनते हैं। जबतक संस्कार और कर्मफल पूर्णरूप से क्षय नहीं हो जाते इन तरंगों का अन्त नहीं होता।
13. इकाई चेतना इकाई मन को किस प्रकार प्रभावित करती है?
किसी बस्तु या क्रिया का अस्तित्व उसके साक्षित्व पर निर्भर रहता है। इकाई मन का अस्तित्व तथा क्रियायें इकाई चेतना के द्वारा प्रदर्शित होती हैं जो स्वयं अपनी साक्षी सत्ता होती है। चितिशक्ति जीवात्मा के माध्यम से लगातार मन को सूक्ष्मता की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा देती रहती है, यद्यपि प्रेरणा का मूल श्रोत इकाई चेतना न होकर परम चेतना ही होती है जो उसके माध्यम से मन को प्रगति की ओर विस्तार करने के लिये प्रेरित करती है।
14. किसी प्रोटोप्लाज्म और मनुष्य की चेतना में क्या अंतर है?
-जीवित शरीर के प्रत्येक सैल जीवित होते हैं और उनका स्वतंत्र मन भी होता है परंतु अत्यंत अविकसित अवस्था में। प्रोटोप्लाज्म पर परमचेतना के परावर्तन से इकाई चेतना विकसित होती है। प्रतिसंचर के प्रवाह में प्रोटोप्लाज्मिक मन उच्च स्तर पा लेता है। रेत का अविकसित मन विकसित होकर प्रोटोप्लाज्मिक मन पर ही नहीं रुक जायेगा क्योंकि प्रतिसंचर वहीं समाप्त नहीं हो जाता, एक दिन प्रगति की इस प्रक्रिया में वह मानव मन और शरीर पा लेगा। मानव मन का कार्य क्षेत्र केवल बहुतसे मानसिक प्रोटोप्लाज्मों के कार्यक्षेत्रों का समूह नहीं है वल्कि वह स्वतंत्र मन होता है, इकाई मन। प्रोटोप्लाज्मिक मनों के समूह को विकसित मानव मन की गतिविधियों को सम्पन्न कर पाना संभव नहीं होता। प्रत्येक प्रोटोप्लाज्मिक मन में , पुरुष पर प्रकृति का अधिकार होता है अतः उसे अपनी स्वतंत्र इच्छा या साधना करना संभव ही नहीं होता।
No comments:
Post a Comment