Friday 3 April 2015

कुछ प्रश्नोत्तर (प्र- १३ से आगे ---)


कुछ प्रश्नोत्तर (प्र- १३ से आगे ---)
15. क्या चित्त अर्थात् मन और व्योम तत्व अर्थात् ईथर में कोई मौलिक अंतर होता है? यदि हां तो क्यों?
-नहीं दोनों ही परम चेतना से उत्पन्न होते हैं अतः कोई मूल अंतर नहीं होता। वास्तव में कोई भी अजीवित अस्तित्व नहीं है सभी में चेतना है, प्रकृति के बंधन के कारण चेतना कभी कभी पांच जड़ घटकों में, कभी सूक्ष्म रूपों में और कभी कारणात्मक चेतना में दिखाई देती हैं। चेतना की जिस अवस्था में प्रकृति का अधिकार पंच तत्वों की तुलना में कम होता है उसे ही मन कहते हैं।

16. शंकराचार्य के मायावाद में भाव और जड़ के बीच सापेक्षिक महत्व क्या है?

शंकराचार्य ने अतिउत्साही भौतिकवादी की गर्मजोशी  और उत्साह के लक्षणों से प्रभावित होकर  अनेक सिद्धान्तों को गलत सिद्ध करने का प्रयास किया। उनका यह प्रयास बुद्ध के उच्चादर्शी  सिद्धान्त ‘विज्ञानवाद‘ को गलत सिद्ध करने का था। इसे असंगत सिद्ध करने के प्रयास में वे स्वयं प्रचंड आदर्शवादी  बन गये। उनके अनुसार विश्व  माया है, इतना ही नहीं मानसिक प्रक्षेप और प्रत्याहार सभी माया है, केवल निर्गुण ब्रह्म ही सत्य है। इस संदर्भ में शंकर पश्चिमी दार्शनिकों , सोक्रेटीज, हेगेल, बर्कले और कान्ट की तरह बोलते प्रतीत होते हैं जो नीमहकीम दार्शनिकों  से अधिक कुछ नहीं। परंतु उन्होंने अपने अनुभववाद को भौतिक संसार से आगे बढ़ाया और उसके आगे निर्गुणब्रह्म का होना ही सत्य माना। प्रकृति को भी असत्य माना जबकि विरोधाभास यह है कि उन्हें उसी माया पर निर्भर रहना पड़ा जिसे वे असत्य कहते रहे , जिसने यह विश्व  निर्मित किया।

17. पुरुषोत्तम पर प्रकृति का किस प्रकार का बंधन है? पुरुषोत्तम और निर्गुण ब्रह्म में क्या अंतर है?

-पुरुषोत्तम सगुण ब्रह्म का नियंत्रक केन्द्र हैं। जहां कहीं भी पुरुष होते हैं उनकी शरण में प्रकृति होती है। प्रकृति से संबद्ध रहते हुए भी पुरुषोत्तम प्रकृति से बंधित नहीं होते। सगुण ब्रह्म का द्रश्य  प्रकार संचर और प्रतिसंचर की प्रक्रिया में दिखाई देता है। चेतना की प्रधानता के कारण कभी कभी पुरुषोत्तम को निर्गुण कहा जाता है पर गंभीरता से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि यह सही नहीं है। इस ज्ञात जगत के विपरीत पुरुषोत्तम न तो गुणाधीन हैं न ही गुणस्रष्ट। गुणाधीन विश्व  के साक्षी होने के कारण उनका संपर्क गुणों से बना रहता है इसलिये वे गुणादनीश  कहलाते हैं। इसलिये पुरुषोत्तम निर्गुण ब्रह्म की तरह शुद्ध नहीं हो सकते क्योंकि निर्गुण ब्रह्म में साक्षी सत्ता नहीं होती अतः गुणों से भी संबद्ध नहीं होते।

18. मनुष्य क्या उपभोग करते हैं, मूल वस्तु? छाया? या छाया की छाया?

-इकाई मन के लिये यह पंचभौतिक संसार सत्य है और पंचभूतों से बनी इस देह को वस्तुओं का उपभोग भी सत्य है परंतु इकाई मन बस्तुओं को उनके भौतिक रूप में उपभोग नहीं करता वह तन्मात्राओं के द्वारा उपभोग करता है जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंद्रियों द्वारा प्राप्त की जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि मन मूल बस्तु का उपभोग नहीं करता वरन् छाया का करता है। यद्यपि पंचभूतात्मक यह संसार इकाई मन के निये सत्य प्रतीत होता है पर वास्तव में वह ब्राह्मी मन की विचार प्रक्रिया अथवा  केवल स्वयं निर्मित कल्पना के अलावा कुछ नहीं, उसके लिये यह विश्व  वास्तविकता की छाया के अलावा कुछ नहीं। इस प्रकार ब्राह्मिक मन के अनुसार इकाई मन न तो मूल वस्तु का उपभोग करता है और न ही छाया का वल्कि छाया की छाया का। 

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