Thursday 23 April 2015

अन्त (भाग दो) उपसंहार 8.0 परिणाम और निष्कर्ष

अन्त (भाग दो) उपसंहार
     8.0 परिणाम और निष्कर्ष
8.1 ब्रह्माण्ड  की उत्पत्ति और हम
   (अ) दार्शनिक  पक्ष:  
(1) विश्व  के विभिन्न मतों में इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बडे ही भ्रामक, अतार्किक और अवैज्ञानिक कारण दिये गये हैं पर सभी प्रकार से विश्लेषण करने के उपरान्त भारतीय तान्त्रिक सिद्धांत  अधिक सार्थक लगने के कारण उसे ही यहाॅं अंकित करना उचित समझा गया है । इसके अनुसार यदि किसी का अस्तित्व है तो वह है केवल परमब्रह्म, जिन्हें दार्शनिक  निर्पेक्ष सत्ता या सच्चिदानन्दघन सत्ता कहते हैं। अर्थात् वह अस्तित्व जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( in potential form ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो। इस क्रियात्मक क्षमता को आन्तरिक रूपसे सुसंतुलन में बनाये रखने के लिये परस्पर विरोधी बल ‘सत‘ और ‘तम‘ लगातार सक्रिय रहते है जिसके परिणाम स्वरूप एक तीसरा बल ‘रज‘ सक्रिय हो जाता है और बलों के त्रिभुज नियम के अनुसार साम्य बनाए रहता है। इन तीनों बलों को संयुक्त रूप से त्रिगुणात्मक प्रकृति ( operative principle) और जिसमें यह आश्रय पाती है उसे पुरुष अर्थात् ( cognitive principle ) कहा जाता है। इस तरह प्रकृति और पुरुष अविनाभावी हैं अर्थात् एक सिक्के के दो पहलु होते हैं । संतुलन की प्रक्रिया में प्रत्येक बल जिस क्षण अपने आप को दूसरे बलों पर प्रभावी बनने के प्रयास में असंतुलित हो जाता है तो प्रकृति अपनी गतिज अवस्था (in kinetic form) में आ जाती है और वह उस निर्पेक्ष सत्ता को उसके अस्तित्व का बोध कराती है जिससे उस परम ब्रह्म के मन (cosmic mind) में अपने को एक से अनेक में परिवर्तित करने की इच्छा उत्पन्न होती है जिसे इच्छाबीज कहा जाता है और यह पूर्वोक्त बलों के त्रिभुज के किसी एक शीर्ष में सक्रिय हो जाता है जिसे शंभुलिंग कहते हैं। त्रिभुज के केन्द्र पर स्थित परम ब्रह्म जो अब पुरुषोत्तम कहलाते हैं, अपने ही कुछ भाग पर अनेक रूप निर्मित करने के लिये प्रकृति को अनुमति देते हैं। सच्चिदानन्द सत्ता (पुरुषोत्तम) की अनुमति और निर्देशित  प्रणाली के आधार पर ज्योंही प्रकृति अपना कार्य करने को तैयार होती  है उस अवस्था को कौशिकी या शिवानी कहते हैं और इसे नियंत्रित करने वाले आधार को शिव कहते हैं। निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही शिवानी पूर्वोक्त त्रिभुज के किसी शीर्ष से सरल रेखा में गतिशील हो जाती है और ‘स्पेस' (space) का निर्माण होने लगता है और शिवानी को अब भैरवी कहा जाता है जिसके नियंत्रक आधार को भैरव कहते हैं। भैरवी के अधिक वेगवान होने पर सरल रेखा में वक्रता ( curvature) उत्पन्न हो जाती है। गति की दिशा  के ऊपर की ओर तरंग शीर्ष की वक्रता ‘‘ऊह‘‘ और तरंग की दिशा  से नीचे की ओर तरंगशीर्ष की  वकृता ‘‘अवोह‘‘ कहलाती है। एक ऊह और एक अवोह मिलकर एक ‘कला‘ ( modern wave length  λ ) और आधा ‘ऊह‘ और आधा ‘अवोह‘ मिलकर ‘काष्ठा‘ (modern half wave length  λ/2) कहलाती है। इन्हीं कलाओं की गतिशीलता का मानसिक मापन काल (time) या कालिका कहलाते हैं । इस प्रकार आकाश  (space)‘ और काल (time) निर्मित हो जाने के बाद अगले क्रम में सूक्ष्म ऊर्जा, स्थूल  आकार ग्रहण करने लगती है और भवानी कहलाती है जो वायु पानी और अग्नि के समूह अर्थात् तारे और आकाशगंगाये और विभिन्न ठोस पिन्डों का निर्माण करने लगती है इसीलिये इस द्रश्य  प्रपंच को भवसागर कहते हैं। इसका एक नाम जगत भी है जिसका अर्थ है जो लगातार गतिशील है। निर्पेक्ष निराकार परम सत्ता इस प्रकार अपने आपको आकार में ले आते  हैं जो अब सगुण ब्रह्म कहलाते हैं और जिनका अस्तित्व बोध, इच्छाबीज, शंभु लिंग और शिवानी तक का क्षेत्र ‘‘महत्तत्व‘‘ या (existential I feeling) शिवानी से भैरवी तक का क्षेत्र ‘‘अहम्तत्व‘‘ (doer I feeling) और भवानी से समग्र ब्रह्माॅंड तक का आकार ‘‘चित्त‘‘ (done I feeling) कहलाता है और महत् , अहम् और चित्त तीनों को सम्मिलित रूपसे ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind) कहते हैं। इससे प्रकट होता है कि महत्तत्व अथवा अस्तित्व बोध का साक्ष्य देने वाली सत्ता ही पुरुषोत्तम हैं जो ब्रह्म के सगुणत्व का साक्ष्य देते हैं। इस प्रकार सगुण ब्रह्म का अंतःकरण सात अवयवों महत्तत्व, अहंतत्च और पंच महाभूतों से मिलकर बनता है और वहिःकरण नहीं होता, जबकि जीवात्मा का अंतःकरण दो अवयवों महत् और अहम् तत्व से और वहिःकरण पंचमहाभूत और मूलाप्रकृति इन छः अवयवों से मिलकर बनता है अतः जीवात्मा के कुल आठ अवयव होते हैं।  सगुण ब्रहम की महत्तत्व से चित्तत्व तक की गतिविधियाॅं अर्थात् सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति, संचरक्रिया (centrifugal reaction in extroversal phase) कहलाती हैं और यह ‘‘ब्रह्मचक्र‘‘ (cosmic cycle) का आधा भाग कहलाता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति अर्थात् जड़ पदार्थों से वनस्पति जगत , जीवजगत  और मनुष्यों का क्रमागत विकास और अंततः अपने मूल तत्व उस निराकार परम ब्रह्म अवस्था को पहुंचाने तक की गतिविधियाॅं प्रतिसंचर क्रिया (centripetal action in introversal phase ) कहलाती है।  संचर और प्रतिसंचर क्रिया दोनों को मिलाकर पूरा ब्रह्म चक्र बन जाता है।

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