Sunday, 2 September 2018

211 महासम्भूति कृष्ण और कुन्डलनी साधना

211 महासम्भूति कृष्ण और कुन्डलनी साधना

श्रीकृष्ण वास्तव में आध्यात्मिक सत्ता हैं परन्तु साधारण जनता उन्हें मानव शरीर में देखती है क्योंकि वह भौतिक सत्ताओं को भी नियंत्रित करते हैं। ब्रह्माॅंड में विभिन्न संरचनाओं केे अलग अलग उपकेन्द्र होते हैं परन्तु मूल केन्द्र एक ही होता है । मानव अस्तित्व का बड़ा भाग मानसिक होता है और अल्प भाग शारीरिक। अविकसित मनुष्य तो स्वयं एक समस्या होता है। मनुष्य शरीर होने से ही कोई मनुष्य नहीं कहला सकता उसे मन से भी यथार्थ  मनुष्य होना चाहिए। सभी उपकेन्द्र और विश्व के प्राणकेन्द्र का नियंत्रण और परिचालन स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा होता है परन्तु प्रत्येक उपकेन्द्र में वह स्वयं नहीं होते। मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर का नियंत्रक है सहस्त्रार चक्र। चाहे एक कोशीय जीव हो या बहुकोशीय , प्रत्येक का उपकेन्द्र उसके भावात्मक चक्रों के केन्द्र में  होता है और उसके स्नायु तन्तुओं और स्नायु कोशों को प्रस्तुत करता है। यह स्नायु तन्तु और स्नायुकोश क्रमशः मन को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार स्थूल मन, सूक्ष्म मन को प्रस्तुत करता है।

कभी कभी व्यक्ति के मन के साथ आत्मा अर्थात् काॅस्मिक कान्शसनैस का संज्ञान सम्पर्क  स्थापित हो जाता है, जितना अधिक यह संज्ञान संपर्क होता है उतना ही अधिक उसमें आध्यात्मिक साधना के प्रति निष्ठा जमती है। साधक और असाधक में यही अन्तर है। भूमा चैतन्य अर्थात् कॅास्मिक कान्शसनैस के साथ मन के इसी संयोग को अधिकाधिक दृढ़ करने की प्रचेष्टा को ही ‘‘योग’’ कहते हैं। चूँकि  विभिन्न चक्रों के नियंत्रण बिन्दु अलग अलग होते हैं अतः साधना की दो दिशाएं हैं, पहली हार्मोन के निःसरण  की सहायता से नियंत्रण बिन्दुओं को दृढ़ करना । यह पूर्ण रूप से देह को केन्द्र बना कर उसी पर आश्रित होती है इसलिए इस पद्धति को हठ योग कहते हैं। दूसरी है मन को कृष्णार्पण करना। यह शारीरिक नहीं भावात्मक है, अन्तर्मुखी है अतः विद्यातन्त्र  में मानी जाती है। सच्ची साधना यही है इसमें शारीरिक और मानसिक सत्ता को परमपुरुष को पूर्णतया समर्पित करना होता है। परमपुरुष और जीवात्मा का संयोग बिन्दु है सहस्त्रार के नीचे के बिन्दु में। प्रत्येक केन्द्र परिवर्ती केन्द्र के साथ इसी प्रकार संबंधित रहता है। नीचे के चक्र क्रमशः स्थूल होते हैं। प्रत्येक चक्र का भौतिक नियंत्रण उसी के द्वारा होता है परन्तु भावात्मक नियंत्रण ठीक ऊपर वाले चक्र के नियंत्रक बिन्दु से होता है। जैसे, स्वाधिष्ठान चक्र का नियंत्रण भौतिक रूप से उसी के नियंत्रक बिन्दु से होगा परन्तु भावात्मक नियंत्रण उसके ऊपर स्थित मणिपुर चक्र के नियंत्रक बिन्दु से होगा। सहस्त्रार चक्र कोई स्थूल भौतिक क्षेत्र नहीं है यह पूर्णतः आध्यात्मिक क्षेत्र है। इसका नियंत्रक बिन्दु सूक्ष्मतम मानस बिन्दु है जहाॅं परमशिव का पीठस्थान होता है। परमशिव हैं लघुतम बिन्दु, विशुद्ध अहंबोध अर्थात् ‘मैं हॅूं’ बोध । कुंडलिनी शक्ति, मूलाधार चक्र के भीतर होती है जो आद्याशक्ति, या राधा शक्ति भी कहलाती है। वैज्ञानिक शब्दावली  में सहस्त्रार में परम शिव या परमपुरुष कृष्ण की स्थिति ‘फंडामेंटल पाजीटिविटी’ और मूलाधार में स्थित कुंडलिनी शक्ति या राधाशक्ति ‘फंडामेंटल नेगेटिविटी’ कहलाती है। साधना के द्वारा राधाशक्ति को परमपुरुष कृष्ण से संस्पर्श कराना होता है।
अब, चूंकि अहंबोध का पीठ है आज्ञाचक्र और उसका भावात्मक नियंत्रण होता है सहस्त्रार में स्थित परमपुरुष श्रीकृष्ण से। अतः श्रीकृष्ण जिसके शुद्ध अहंबोध के पीठ आज्ञाचक्र को अपने काम के लिए चुन लेते हैं वह परमपुरुष के प्रत्यक्ष संयोग द्वारा शक्ति और मुक्ति प्राप्त कर लेता है। अतः परमपुरुष की प्राप्ति के लिए प्रत्येक चक्र को शुद्ध करना होगा। परमपुरुष श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मूलकेन्द्र और उपकेन्द्रों का नियंत्रण करते हैं। परमात्म कृष्ण स्वयं विशुद्ध आध्यात्मभाव का नियंत्रण करते हैं और जीवात्म कृष्ण मानसाध्यात्मिक भावों को नियंत्रित करते हैं। साधक के लिए एक ही व्रत है कि अपने सभी उपकेन्द्रों को शुद्ध और दृढ़ करके अपने मूल केन्द्र को परमात्म कृष्ण के चरणों में समर्पित करना । वे स्वयं व्यक्ति विशेष के साथ संयोग संबंध बनाए रखते हें महासम्भूति या विश्व के केन्द्र बिन्दु के रूप में। 

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