214 ब्राह्मण
सभ्यता के उद्गम के साथ ही ज्ञान की खोज बढ़ने लगी और जो भी व्यक्ति कुछ नया करता या कहता उसके सार्वजनिक महत्व का पाये जाने पर वह व्यक्ति समाज में अधिक महत्व पाने लगता। तात्कालिक इन्हीं महत्वपूर्ण अनुसंधानकर्ता व्यक्तियों को "ऋषि" कहा जाने लगा। ऋषियों के द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान कालान्तर में बढ़ने लगा और समयानुसार उनकी आयु समाप्त होने के बाद दूसरों के आने और प्राप्त ज्ञान को संग्रहित कर आगामी समाज को हस्तान्तरित करने का उपाय खोजा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हो पाया था अतः ऋषियों के द्वारा संग्रहित किए गए छन्दबद्ध ज्ञान को याद रखकर एक दूसरे में हस्तान्तरित करने के लिए एक ही छन्द को अनेक बार जोर जोर से उच्चारित कर दूसरे को सुनाया जाता जिसे सुनने वाला भी अनेक बार दुहराता और कुछ देर में उसे वह छन्द याद हो जाता। ये सत्य के वचन थे, ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया।
वैदिक क्रिया ‘विद’ का अर्थ है ‘‘जानना’’ इस में ‘अल’ प्रत्यय जोड़ने से ‘वेद’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है ‘‘ज्ञान’’। (शब्द ‘वेद’ का लिखित रूप देखकर कुछ स्वरविज्ञानियों का विचार है कि इसे ‘घञ’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है; तो भी, यही सही है कि उसे ‘अल’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है और वह पुल्लिंग है।) चूँकि लिपि के अभाव में उसे गुरु से मौखिक सुनकर याद रखा जाता था इसलिए उसका दूसरा नाम ‘श्रुति’ है। (श्रु + क्तिन = श्रुति; क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है सुनना, इसलिए श्रुति का एक अर्थ है ‘कान’ और इसीलिए कहा गया है कि जो कान से सुनकर याद रखा गया है वह है ‘वेद’) वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, (ऋक् + क्विप =ऋक) । वैदिक क्रिया ‘ऋक’ का अर्थ है ‘ महिमामंडन करना ’ (गीत से या सामान्य भाषा में) ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। जब अनेक श्लोकों (ऋकों) को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता, तो उसे कहा गया ‘सूक्त’ और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया ‘मंडल’ ।
इस ज्ञान के लगातार बढ़ते जाने के कारण उसे कालान्तर में यथावत संग्रहित बनाए रखने के लिए यह मान्यता बनायी गयी कि ‘‘ आवृत्तिः सर्वशास्त्राणां बोधादपि गरीयसी’’ अर्थात् समझ में आए या नहीं बार बार दुहराकर याद करना ही उचित है। अतः जिन्होंने वेदों के सभी छः अंगों, छन्द , कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद या धनुर्वेद को याद कर लिया वे ‘‘षडांगी’’ कहलाए। पहले केवल एक ही वेद था ‘ऋग्वेद’ जिसमें ‘पण्डा’ प्राप्त करने को प्रोत्साहित किया गया है, ( ‘‘ पण्डा ’’ = अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः सा पण्डा, अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिर्तामितः प्राप्तः पण्डितः।’’ अर्थात् ‘ मैं ब्रह्म हॅूं ’ इस प्रकार की बुद्धि कहलाती है पण्डा; जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो चुकती है वह कहलाता है पण्डित, और जो इस प्रकार की बुद्धि को पाने का जी जान से प्रयास करता है वह है "पाण्डेय, अपभ्रंश पांड़े "।) इस एक वेद को याद कर लेने वाले पण्डा या ‘पाण्डेय’, दो वेदों (ऋक, और यजुः) को याद कर लेने वाले ‘द्विवेदी’ या दुबे, तीन वेदों (ऋक, यजुः, अथर्व) को याद कर लेने वाले ‘त्रिवेदी’ या तिवारी और चारों वेदों (ऋक, यजुः, अथर्व और साम ) को कण्ठाग्र कर लेने वाले ‘चतुर्वेदी’ या चौबे कहलाने लगे। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद की ऋचाएं भी कालक्रम से अधिक हो गईं अतः उसे दो भागों (कृष्ण और शुक्ल) में बाॅंट दिया गया । वास्तव में कृष्ण यजुर्वेद का विवरण अस्त व्यस्त था इस कारण उसे पुनः व्यवस्थित किया गया जिसे शुक्ल यजुर्वेद कहा गया । शुक्ल यजुर्वेद के ज्ञाता ‘शुक्ल’ कहलाए। आगे चलकर यह समस्या आई कि वेदों को याद कर लेने वालों की संख्या तो बहुत बढ़ गयी परन्तु उन्हें सही अर्थ देकर समझाने वाले नहीं बचे। अतः व्याकरण विशेषज्ञ, जो पाॅंडे, दुबे आदि से वेदपाठ सुनकर उसकी विस्त्रित व्याख्या करते वे "त्रिपाठी" कहलाए।
वेदों में ‘यज्ञ’ करना शुभ कर्म माना जाता था। यज्ञ का उद्भव कर्म से होता है, यज् + न =यज्ञ, अर्थात् क्रियाएं । इसलिए, हम जो भी करते हैं वह यज्ञ है। इन शुभ कर्मों को सम्पन्नता, प्रभाव और प्रकाण्डता से संबद्ध करते हुए कालान्तर में इन्हें अनेक प्रकार के नामों से जाना गया जैसे, अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, वाजपेय यज्ञ आदि। ये यज्ञ, धन और बल सम्पन्न लोगों अर्थात् राजाओं के द्वारा किये जाते थे जिससे वे अपने धन और पराक्रम की प्रतिष्ठा को जनसामान्य में स्थापित किया करते थे। जो वेदज्ञ जितने प्रकार से यज्ञ कराया करते उन्हें भी वैसा ही सामाजिक महत्व प्राप्त होता। कोई समृद्धिशाली व्यक्ति चतुर्दिक कीर्ति और यश की कामना करता तो वह अश्वमेध यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट कहलाता, अन्य अपेक्षाकृत कम सामर्थ्य और क्षेत्र के प्रतिनिधित्व वाला होता परन्तु वह अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा और यशकीर्ति को बनाए रखने और राज्य का विस्तार करने के लिए राजसूय यज्ञ या वाजपेय यज्ञ करता । यज्ञों को करने के समय और बाद में जनसाधारण को अन्न, धन और अन्य वाॅंछित सामग्री भेंट की जाती थी जिससे राजसिक और गैरराजसिक सभी प्रकार के लोग आनन्द मनाया करते । अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार ये यज्ञ एक वर्ष, आधे वर्ष या एक माह तक किए जाते। राजाओं के यज्ञ सम्पन्न कराने वाले "राजपुरोहित", वाजपेय यज्ञ करने और कराने वाले "वाजपेयी", और जो सभी प्रकार के यज्ञ सम्पन्न कराते थे वे "मिश्र" कहलाए। इन विशेषज्ञों से अपने अपने क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त कर दक्ष हुए विद्वान "दीक्षित" कहलाए। प्रशिक्षण देने वाले विशेषज्ञ "आचार्य" और जो आचार्यों के मार्गदर्शन में अन्य जिज्ञासुओं को सिखाया करते वे "उपाध्याय " कहलाए। वेदों में प्रधानतः जिस शिक्षा पर बल दिया गया है वह है आत्मोपलब्धि अर्थात् अपने आप को जानना, अर्थात् ‘पण्डा’ को प्राप्त करना, अनुभव करना । जिन्हें यह पण्डायुक्त बुद्धि प्राप्त हो जाती वे तो पण्डित कहलाते और जो प्राप्त करने के लिए अभ्यास करते रहते वे पाण्डेय; परन्तु वे जो इनके बीच की किसी विशेष उन्नत अवस्था को पाकर ही आनन्दित होते उन्हें "अवस्थी" कहा जाता। कालान्तर में साधना जगत में आगे बढ़ रहे ऋषियों और गुरुओं ने अपने अपने आश्रम या गुरुकुल जिन्हें उस समय चतुष्पाठी कहा जाता था, बनाकर शिक्षा देना प्रारम्भ की, तब उनसे शिक्षा प्राप्त कर निकले विद्वान आपने को अपने गुरुओं के नाम से ही परिचय देने लगे। इस तरह, गर्ग, गौतम, कात्यायन, शाण्डिल्य, वशिष्ठ, भरद्वाज, भृगु या भार्गव, आदि अनेक प्रकार के ब्राह्मण या तो अपने गुरुओं या फिर निवास स्थानों के नाम से भी अपनी पहचान बताने लगे।
ज्ञान की उच्चतम अवस्था में सभी ने एक मत से स्वीकार किया कि इस समस्त दृश्य या अदृश्य प्रपंच का निर्माणकर्ता एक अद्वितीय परमचैतन्यसत्ता है, जिसे ‘‘ ब्रह्म’’ (अर्थात् जो बहुत बड़ा है तथा उसके सम्पर्क में आने वालों को भी बड़ा बना देता है) नाम से उच्चारित किया गया और यह भी कि जब वह परमसत्ता इस प्रपंच को रचने लगता है तब उसे ‘ब्रह्मा’ तथा रचित प्रपंच को ‘ब्रह्माण्ड’ कहा गया। इसीलिए वे शोधकर्ता ऋषिगण जो ब्रह्म का साक्षात्कार करने का प्रयत्न करने लगे वही "ब्राह्मण" कहलाए। वेदान्त के प्रवर्तक प्रकाण्ड विद्वान शंकराचार्य (788-820) ने ब्राह्मण कौन है इस सम्बंध में लिखा है:-
‘‘ यं न सन्तं न चासन्तं न श्रुतं न वहुश्रुतं, न सुबृत्तं न दुर्बृत्तं वेद कश्चित स ब्राह्मणः।
गूढ़ धर्माश्रितो विद्वान अज्ञात चरितं चरेत्, अन्धवत् जड़वत् चापि मूकवत् च महिं चरेत्।’’
(अर्थात् , जो न तो सन्त है और न ही असन्त है, न अज्ञानी है और न ही बहुत ज्ञानी है, न ही बहुत ही अच्छी वृत्तियों वाला है और न ही बुरी वृत्तियों वाला है उसे ब्राह्मण कहा जा सकता है । वह गम्भीरता से आडम्बर रहित धर्माचरण करता है और धरती पर चलते समय मौन रहकर अन्धे व्यक्ति जैसा रहता है।)
परन्तु आज, मुख्यतः विचारणीय बात यह है कि अपने को वेदों के ज्ञान, ऋषियों की संतान , यज्ञों और गुरुओं के नाम से प्रसिद्ध उपनाम देते हुए ‘पण्डित और ब्राह्मण’ कहने वाले कितने लोग अपने आचरण और ज्ञान से यथार्थतः पूर्वोक्त व्याख्या के अनुसार सही सिद्ध होते हैं ?
No comments:
Post a Comment