Monday, 26 October 2015

29 बाबा की क्लास (रासलीला)

29 बाबा की क्लास (रासलीला)
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राजू- बाबा! आज तो कुछ लोग शाम से ही तेजी से मंदिरों की ओर जाते दिखाई दिये वे कह रहे थें कि आज वहाॅं रासलीला कार्यक्रम है।
नन्दु- कुछ नहीं, शरदपूर्णिमा है न ! इसलिये वहां खीर बाॅंटी जायेगी इसी लालच में जा रहे हैं। वह इसे रासलीला का प्रसाद कहते हैं।
चंदू- पर यह रासलीला है क्या? रासलीला तो भगवान कृष्ण ने गोपियों के साथ की थी, क्या वैसा ही कुछ है बाबा?
बाबा- रासलीला का अर्थ सभी लोग नहीं जानते और जो लोग  थोड़ा बहुत  जानते हैं वह ठीक ढंग से समझा नहीं पाते। वास्तव में यह साधना का एक प्रकार है जिसमें अपनी सभी मनोभावनायें अपने इष्ट की ओर संचालित करना होती हैं। चूंकि यह कार्य मानसिक रूप से अधिक और शारीरिक रूप से कम संबंधित होता है इसलिये इसे समझ पाना सभी के लिये संभव नहीं होता । कृष्ण ने सर्वप्रथम कुछ उन्नत भक्तों, जिन्हें गोप कहा जाता है, को यह साधना शरदपूर्णिमा के दिन सिखाई थी और वे सभी इसे सीखकर इतने आनन्दित हुए थे कि भक्तिरस के प्रवाह में नाचने कूदने लगे। उन्हें लगता था कि उनका इष्ट अर्थात् कृष्ण भी प्रत्येक के साथ नाच रहा है।
रवि- बाबा! इस प्रकार की साधना कैसे की जाती है, इसके पीछे रहस्य क्या है?
बाबा- लगातार अपने इष्ट मंत्र के साथ ईश्वर  प्रणिधान करते करते जब भक्त को इशोपलब्धि नहीं होती है तब ‘‘रस साधना‘‘ का सहारा लेना पड़ता है जिसमें  मूल भावना यह होती है कि व्यक्तिगत इच्छायें , वाॅंछायें और सभी कुछ परमपुरुष की ओर संप्रेषित करना है क्योंकि वही एकमात्र चिदानन्द रस का प्रवाह हैं।  इस प्रकार रस साधना में पूर्णता होना ‘‘ रिद्धि ‘‘ और ‘‘सफलता प्राप्त होना‘‘ सिद्धि कहलाती है। शास्त्रों में इसे ही  रासलीला कहा गया है। जिस किसी की रचना हुई है वह सब परम पुरुष की इच्छा से ही उन्हीं का चक्कर लगा रहा है। किसी का अध्ययन, बुद्धि और व्यक्तिगत स्तर, सब कुछ व्यर्थ हो जाते हैं जब तक उन्हें परमपुरुष की ओर संप्रेषित नहीं किया जाता । इस परम सत्य को जानने के बाद चतुर व्यक्ति यह कहते हुए आगे बढ़ता जाता है कि है, ‘‘परमपुरुष मुझे कुछ नहीं चाहिए मेरे इसी जीवन में आपकी इच्छा पूरी हो।‘‘
नन्दू- बाबा! क्या वर्तमान युग में किसी भक्त ने इस प्रकार का रसानन्द प्राप्त किया है या प्रदर्शित  किया है जैसा कि शास्त्रों में रासलीला के नाम से वर्णित है?
बाबा- सोलहवी शताब्दि में ब्रह्म का स्वरस अर्थात् दिव्य प्रवाह चैतन्य महाप्रभु के द्वारा प्रदर्शित  किया गया था इससे लोग उनके पीछे पागलों की तरह भागते, रोते, नाचते, गाते और दिव्यानन्द में हॅंसते थे। इससे चार हजार वर्ष पूर्व ब्रह्म का स्वरस कृष्ण ने अपनी वाॅंसुरी के द्वारा प्रदर्शित  किया था जिसे सुनकर लोग पागलों की तरह अपने परिवार, संस्कृति, प्रतिष्ठा, सामाजिक स्तर आदि छोड़कर उनकी ओर भागते थे। इतना ही नहीं बृंदावन की गोपियाॅं तो अपने घर की गोपनीयता छोड़कर वाॅंसुरी के स्वर में नाचतीं गाती और अट्टहास करतीं थी। अष्टाॅंग योग मार्ग में ब्रह्म का स्वरस साधना के विभिन्न स्तरों में भर दिया गया है अतः जो इसे करते हैं या भविष्य में करेंगे अवश्य  ही ब्रह्मानन्द में डूब कर नाचेंगे, गायेंगे , रोयेंगे और स्थायी रूप से परम पुरुष को पाने की दिशा  में बढ़ेंगे। 

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