Monday, 8 January 2018

175 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -1 )

175 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -1 )

राजू- मुझे यह निर्णय करने में हमेशा ही कठिनाई होती है कि कौन सी वस्तु सदा रहेगी और कौन नहीं?
बाबा- सदा रहने वाला अर्थात् ‘नित्य’ या ‘एटरनल’ या ‘अमर’ उसे कहा जाता है जो स्पेस , टाइम और पात्रगत उपाधियों से मुक्त होता है। जो इन तीनों से बंधा हुआ है वह ‘अनित्य’ अर्थात् मरणधर्मा कहलाता है। चूंकि स्पेस, टाइम और पात्र सभी सापेक्षिक होते हैं अतः वस्तु की सत्तागत स्थिरता नहीं रह पाती। नित्यसत्ता स्पेस, टाइम और पात्र के स्वामी होते हैं अर्थात् ये तीनों उन्हीं में आश्रय पाते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि वह चितिसत्ता अर्थात् ‘काग्नीटिव फेकल्टी ’ सर्वबृहत् सर्वानुस्यूत सत्ता अर्थात् ‘ट्रान्सेन्डेन्टल एन्टिटी’ हैं।

इन्दु- तो जैसे अन्य वस्तुएं और जीव दिखाई देते हैं वह सर्वानुस्यूत सत्ता या ‘ट्रान्सेन्डेन्टल एन्टिटी’ हमें अपनी आॅंखों से क्यों नहीं दिखाई देते?।
बाबा- जब सृष्टि की क्रिया होती है तब चितिसत्ता अर्थात् काग्नीटिव फेकल्टी का स्थूलीकरण होकर ‘‘भाव’’ अर्थात् 'एब्सट्रेक्ट' में रूपान्तरण हो जाता है। प्रतिसंचर के अगले क्रम में जब और अधिक स्थूलीकरण होता है तो वह पदार्थ अर्थात् ‘मैटर’ में बदल जाता है। मूल वस्तु वही है परन्तु घनत्व के अधिक होने पर स्थूलता  और कम होने पर सूक्ष्मता प्रकट होती है। इसलिए सिद्धान्ततः यदि वस्तुओं की वाह्य स्थूलता को किसी प्रकार कम किया जा सके तो वह चितिसत्ता में रूपान्तरित हो जाती है । जैसे, किसी ठोस पदार्थ को गर्म करने पर क्रमशः तरल, गैस और प्लाज्मा अर्थात् सूक्ष्म अवस्था में बदल जाता है उसी प्रकार मनुष्य का सबसे बड़ा आधार जिसमें उसका सब कुछ सीमित रहता है वह है ‘मन’ । जब मन को साधना अग्नि में तपाया जाता है तो वह स्थूलता त्याग कर भाव में और फिर आत्मा में रूपान्तरित हो जाता है और उस ट्रान्सेन्डेन्टल एन्टिटी के दर्शन होते हैं। इस प्रक्रिया का नाम है आध्यात्मिक साधना।

राजू- लेकिन बात तो उन्हें आॅंखों से देखने की हो रही थी?
बाबा- जहाॅं तक भौतिक वस्तु को देखने समझने का प्रश्न है उसे यंत्रों और आॅंखों या इंद्रियों से देखा जा सकता है परन्तु वस्तु के होते हुए भी उसे पूरी तरह समझ सकें यह संभव नहीं है क्योंकि हमारी इंद्रियों की क्षमता सीमित है वे केवल एक विशेष तरंग लंबाई से खास तरंग लंबाई के बीच ही संवेदनशील होती हैं उससे अधिक या कम तरंग लम्बाई को वे ग्रहण नहीं कर सकती। इसलिए अत्यंत सूक्ष्म भाव को भाव के द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है। स्थूल आॅंखों के द्वारा सूक्ष्म मन को नहीं देखा जा सकता। मन के द्वारा ही दूसरों के मन को समझा जा सकता है। यदि कोई कहे कि तुम्हारे पास मन है तो क्या कहोगे? हाॅं ही कहोगे कि नहीं? परन्तु वह कहे कि दिखलाओ कहाॅं है? तो क्या कहोगे? बस यही बात है । न तो अपनी आॅंखों से तुम अपने मन को देख सकते हो और न किसी दूसरे को उसकी आॅंखों से दिखा सकते हो क्यों? इसलिए  कि, वह तो अनुभव की बात है भावात्मक बात है। सभी अपने अपने मन को अनुभव तो करते हैं पर आॅंखों से देख नहीं पाते।

रवि- किसी के मन को अपने मन से कैसे समझ सकते हैं?
बाबा- इस दृष्टान्त से समझने का प्रयत्न करो।  दो भाइयों में से छोटे को डायरिया हो गया, बड़े भाई ने भोजन करते समय पूछा, क्यों ! खाना नहीं खाओगे? उसने कहा तबियत ठीक नहीं है; बड़ा भाई समझ गया कि किस कारण से खाना नहीं खाएगा। अब, मानलो बड़े भाई ने किसी बात पर छोटे को डाॅंट दिया , भोजन करते समय उसने पूछा, क्यों ! भोजन नहीं करोगे? छोटा भाई बोलता है, नहीं तबियत ठीक  नहीं है। बड़ा भाई तत्काल समझ गया कि कारण क्या है। तो, वास्तव में है क्या , मन की बात मन से ही समझ में आती  है, क्योंकि तबियत ठीक न होने का प्रमाण क्या है ? परन्तु समझ सकते हो। स्थूलता को नापने के लिए स्थूल उपकरण चाहिए होते हैं तो सूक्ष्मता को नापने के लिए स्थूल उपकरण किसी काम के नहीं उनके स्थान पर सूक्ष्म उपकरण ही चाहिए होते हैं। अपने मन के सूक्ष्म भाग में जाकर अर्थात् सूक्ष्म बनाकर ही दूसरों के मन के सूक्ष्म भाग में प्रवेश किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

चन्दू- मन के सूक्ष्म भाग में जाने से आपका क्या आशय है ?
बाबा- अच्छा, क्या तुमने ऐसे लोगों को नहीं देखा जिन्हें हंसी मजाक बिलकुल पसंद नहीं होता। वे मजाक करने पर नाराज हो जाते हैं। कारण यह है कि उनके मन की संवेदनाएं स्थूल होती हैं। परन्तु ऐसे लोग भी होते हैं जो हॅंसी मजाक को उसी तरह लेते हैं और समझते हैं कि यह चिढ़ाने के लिए नहीं यह तो दिल्लगी है। इस प्रकार के लोगों के मन की संवेदनाएं सूक्ष्म होती हैं। आत्मा के कुछ स्थूल होने पर वह भाव कहलाता है और वही कुछ अधिक स्थूल हो गया तो पदार्थ कहलाता है। इसलिए स्थूल , सूक्ष्म और भाव एक ही सत्ता के विकास हैं, वह अलग अलग नहीं हैं। मन के स्थूल भाग को हर मनुष्य समझ लेता है परन्तु सूक्ष्म भाग को बहुत कम लोग समझ पाते हैं। जो लोग सूक्ष्म भाग को समझते हैं उन्हें कहा जाता है कि उनमें नान्दनिक रुचि अर्थात् ‘एैस्थेटिक टेस्ट’ है, सूक्ष्म भाव वोध है।

नन्दू- इस गूढ़ता को समझ पाना तो असंभव सा लगता है?
बाबा- सही कहा, यह जो सूक्ष्म सत्ता आत्मा है उसे हर आदमी नहीं समझ सकता। जिनकी अग्रया बुद्धि होती है वे ही इसे समझ पाते हैं। कहा भी गया है कि ‘‘ एष सर्वेषु भूतेषु गूढ़ात्मा न प्रकाशते, दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिनः ।’’

रवि- यह अग्रया बुद्धि क्या है?
बाबा- तुम लोग यह तो जानते ही हो कि मन का नियंत्रक विन्दु मस्तिष्क में होता है और उसके उपकेन्द्र होते हैं उपग्रंथियों में । इसलिए विभिन्न उपग्रंथियों में जैसा रस अर्थात् "हारमोन" क्षरण होता है उसी के अनुसार मन का भाव प्रवाह निर्गत होता है। मन की जो सुकुमार ग्रंथियाॅं है वे मस्तिष्क में नहीं हैं वे हैं हृदय में इसलिए सुख या दुख का अनुभव हृदय में होता है। अतः अग्रया बुद्धि वह मन है जो स्वाभाविक अवस्था में बहुधा विकसित है। मन की पचास वृत्तियाॅं भीतर और बाहर दोनों ओर संचारित होने के कारण सौ (50 x 2 = 100) हो जाती हैं और दसों दिशाओं में सक्रिय होने से एक हजार (100 x 10 = 1000) हो जाती हैं । मानव मन के इन एक हजार प्रकार के विकास प्रवाहों  का नियंत्रण जहाॅं होता है वह सहस्त्रार चक्र,अर्थात  ‘पीनियल ग्लेंड’ कहलाता है। इन एक हजार प्रकार की धाराओं में प्रवाहित हो रहे मन को एक ही विन्दु पर केन्द्रित करने का कार्य जिससे किया जाता है वही अग्रया बुद्धि कहलाती है। साधना क्या है, मन को एक ही विन्दु पर बैठाना। मन की सभी वृत्तियाॅं जब एक ही विन्दु पर केन्द्रित हो जाती हैं तब मन अन्तर्मुखी होकर चितिसत्ता में मिल जाता है। इसी स्पर्श विन्दु पर वह मन, आत्मदर्शन करता है । इस प्रकार की बुद्धि को कुशाग्र (अर्थात् सुई की नोक जैसी पैनी) बुद्धि भी कहते हैं।

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