178 भावजड़ता (हठधर्मिता) या डोग्मा
बिल्ली द्वारा रास्ता काटना, छींक आना, कौए का घर पर बैठकर बोलना, धार्मिक उत्सव में बलि देना और इसी प्रकार की अनेक मान्यताओं और आधारहीन परम्पराओं से हमारे देश के ही नहीं सारे संसार के लोग प्रभावित पाए जाते हैं, इसे भावजड़ता या डोग्मा कहा जाता है। इसका जन्म भी आदिकाल से ही माना जाता है। सभी इसके दुष्परिणाम जानते हैं परन्तु कोई भी उससे जूझने का साहस नहीं जुटाता। डोग्मा की जड़ें जनमानस में गहराई तक प्रवेश कर चुकी हैं और यदि इस वैज्ञानिक युग में इसे तर्क, विज्ञान और विवेक का सहारा लेकर समाप्त करने की चेष्टा नहीं की गई तो मानव समाज का बहुत नुकसान होगा। भूतकाल में भी भावजड़ता ने हमारे ज्ञान को कितना पीछे धकेल दिया, यह नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से स्पष्ट समझा जा सकता है।
1- सर्वविदित है कि लिपि का अनुसंधान यजुर्वेदिक काल और अथर्वेदिक काल के बीच हुआ उससे पहले वेदों का अमूल्य ज्ञान सुन सुन कर ही याद रखने की परम्परा थी। परन्तु लिपि के अनुसंधान हो जाने के बाद भी यह परम्परा उसी भावजड़ता का वाहक बनी रही और वेदों को बहुत लम्बे समय तक लिखा नहीं जा सका । कहा जाता रहा कि वेद तो सुन कर ही याद रखे जाते हैं। इससे अनेक ऋषियों का ज्ञान उनके साथ ही चला गया या सुनकर याद रखने वाले ने जब किसी दूसरे को हस्तान्तरित किया तो वह बहुत कुछ भूल गया और अधूरा ज्ञान ही आगे बढ़ सका। जिन्होंने भी वेदों को लिखने की कोशिश की उन्हें डराया धमकाया गया और नर्क में जाने का अभिशाप देकर भयाक्रान्त किया गया। हम सभी को ऋषि अथर्वा के कृतज्ञ रहना चाहिए जिन्होंने इस डोग्मा का डटकर मुकाबला किया और अपने अन्य सहयोगी ऋषियों के साथ वेदों को लिखना प्रारंभ कर दिया अन्यथा आज हमारे पास यह ‘‘परा ज्ञान’’ आ ही न पाता ।
2- मूल भारतीय नागरिक द्रविड़ों के पास मेडीकल साइंस और सर्जरी का उन्नत ज्ञान था परन्तु आर्यों ने उसे आगे नहीं बढ़ने दिया क्योंकि उनके अनुसार मृत देह को छूना अपवित्र माना जाता था । द्रविड़ लोग अपने इस सर्जरी के ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए शव परीक्षण और डिसेक्शन आदि किया करते थे अतः आर्यो के समाज में वे हेय और अस्प्रश्य थे । उन्हें राक्षस कहकर हतोत्साहित किया जाता रहा।
3- महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जो ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये। ‘जरा’ को द्रवीड़ियन कुल की होने के कारण ‘जरा राक्षसी ’ कहा गया है । जरासंध इस कुल को आदर देते थे और वह राक्षसी विद्या में पारंगत होकर अपने कौशल में प्रसिद्ध हुए। डोग्मा के कारण यह विद्या ‘जरा’ के साथ ही लुप्त हो गई जिसे आधुनिक विज्ञान ने अब खोज पाया।
4- द्रवीड़ियन अनुसंधानों में एक और महत्वपूर्ण विद्या थी सम्मोहन या हिप्नोटिज्म परन्तु राक्षसी विद्या के नाम पर वह भी लुप्तप्राय कर दी गयी। इस विद्या में पारंगत महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या के जानकार व्यक्ति का उन्नत मन, कमजोर या अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। आर्य लोग इन्हें महिला होने के कारण और तथाकथित राक्षसी विद्या से जुड़े होने कारण हेय मानकर तिरस्कार करते थे अतः उनका अनुसंधान आगे नहीं बढ़ पाया।
5- ‘विष चिकित्सा’ भी भारत के मूल निवासियों द्वारा ही विकसित की गयी जिससे भीम को, दुर्योधन के द्वारा विष दिए जाने के बाद भी बचाया जा सका था। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु भावजड़ता के प्रभाव और प्रोत्साहन के अभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्ध काल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं।
6- यह भावजड़ता का प्रभाव ही कहा जाएगा कि हजारों वर्ष पूर्व से स्थापित हमारी उपनिषदों का पराज्ञान आज छिन्न विच्छिन्न होकर संप्रदायों में बाॅंट दिया गया है और सभी अपने को ही सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण कहते हुए दूसरे को हेय सिद्ध करने में जुटे हैं । उन्हें अपने आप में उच्चतर शोध करते हुए नवीनता को जोड़ने में भावजड़ता डसने लगती है, जबकि केेवल पाॅंच सौ साल की आयु का विज्ञान अर्थात् साइंस आज वहाॅं पहुंच गया है जिसकी कभी कल्पना ही नहीं की गई थी। इतना ही नहीं वह द्रुत गति से और आगे बढ़ेगा तो केवल इस कारण कि वहाॅं प्रत्येक तथ्य को तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर ग्राह्य माना जाता है और इसी आधार पर नए सिद्धान्तों को आदर पूर्व स्वीकार किया जाता है ।
7- कुछ तथाकथित धर्मों (वास्तव में मतों) के अनुयायियों में कट्टरता के बीज इस तरह बोए जाते हैं कि वे अन्य किसी तर्क और विज्ञान सम्मत तथ्य को मानने के लिए विचार तक नहीं करते। वे कहते हैं मजहब में तर्क या अपनी अकल का दखल मान्य नहीं है। इसे वे अपने पूर्वजों की शिक्षा मानकर उसमें अपनी ओर से कुछ भी जोड़ने या घटाने को तैयार नहीं होते चाहे उनका कितना ही नुकसान क्यों न होता रहे। यही कारण है कि आज वे वहीं हैं जहाॅं हजारों वर्ष पहले थे। यह डोग्मा का जादू नहीं तो और क्या है।
इस युग की माॅंग है कि हमें तर्क, विज्ञान और विवेक की कसौटी पर परख कर सच्चे ज्ञान को प्रतिष्ठित करना चाहिए और भावजड़ता को समूल नष्ट कर देना चाहिए।
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