176 पाप, कष्ट, भाग्य और भगवान
इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी को प्राप्त होने वाले कष्ट का वास्तविक प्रकार पूर्व निर्धारित नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी प्रतिक्रिया की मूल क्रिया क्या है। यह पूर्वनिर्धारित नहीं होता कि यदि किसी ने कोई वस्तु चुराई है तो प्रतिक्रिया स्वरूप उसे भी उतने मूल्य की चोरी का सामना करना होगा। कष्ट का निर्धारण उस मानसिक कष्ट के तुल्य आंका जाता है जो किसी की चुराई गई वस्तु से उस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है। इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया का माप, मानसिक रूप से प्राप्त होने वाले सुख या दुख के स्तर के अनुसार अनुभव होता है। अतः वास्तविक शारीरिक सुख या दुख के अनुभव के प्रकार का अपेक्षतया कोई महत्व नहीं होता।
एक अन्य परिदृश्य के अनुसार कुछ धर्मो के लोग रास्ते में पड़े किसी व्यक्ति को कष्ट पाते देखकर कहते हैं कि उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है वह तो अपने संस्कारों को भोग रहा है उसे भोगने दो। पर यह उचित नहीं है, हमें अधिक से अधिक लोगों के शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए उन्हें मदद करना चाहिए क्योंकि वह अपने संस्कारों का भोग तो पूर्णतः मानसिक रूप में कर रहा होता है। उसके संस्कारों का चक्र तो आगे चलता रहेगा चाहे वह जिस किसी प्रकार और अकार में हो जैसे, अपमान , अवसाद , हताशा , क्रोध, निराशा या अन्य किसी प्रकार से।
अपने द्वारा पूर्व में किए गए कार्यो की प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त परिणामों के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेवार और उत्तरदायी होता है इसके लिए भगवान या किसी अन्य को दोष देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कुछ लोग यह भी कहते देखे जाते हैं कि यदि किसी को किसी ने पेड़ से धक्का देकर गिरा दिया है तो अवश्य ही गिरने वाले ने कभी भूतकाल में उस व्यक्ति को पेड़ से गिराया होगा । या कुछ यह भी कहते पाए जाते हैं कि यदि किसी का दुर्घटनावश पैर टूट गया तो उसने अवश्य पिछले जन्म में किसी का पैर तोड़ा होगा। पर यह बातें अतार्किक और अविवेकपूर्ण हैं। किसी भी प्रतिक्रिया के लिए भौतिक क्रियाओं के द्वारा पारिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए केवल मानसिक प्रभाव ही निर्धारक होता है। किसी व्यक्ति के द्वारा प्रथम क्रिया के समय किस स्तर का मानसिक कष्ट किसी को दिया गया है उसी के आधार पर उस व्यक्ति को प्रतिक्रिया स्वरूप मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। प्रकृति का यही नियम है परन्तु पुजारी और पंडित लोग सभी को मूर्ख बनाकर छलते रहते हैं। वे कहते हैं, अरे ! तुम गरीब हो अपने भाग्य के कारण, इसलिए अब अच्छी तरह व्यवहार करो ताकि अगला जन्म कष्टदायी न मिले। इस प्रकार सम्पन्न अर्थात् पूंजीवादी लोग गरीबों का शोषण करते रहने के लिए उन्हें निष्क्रिय और भाग्यवादी बनाते हैं। इसलिए यह प्रकृति का दृढ़ नियम है कि कोई व्यक्ति जिस स्तर का मानसिक कष्ट दूसरों को देता है उसे भी उसी स्तर का भौतिक या शुद्ध मानसिक कष्ट व्याज सहित सहना पड़ता है। गरीब मौलिक सुविधाओं से रहित होकर भूख से कष्ट पा सकता है तो धनी के पास कितना ही धन क्यों न हो उसे बीमारियों और मानसिक कष्टों के रूप में इसे भोगना पड़ता है। मानसिक कष्ट प्राप्त होने के कुछ उदाहरण ये हैं, किसी विधवा का एकमेव पुत्र मर जाना, किसी स्थापित व्यावसायिक वकील या डाक्टर की असावधानी का अपने वरिष्ठों के समक्ष रहस्योद्घटन हो जाना और अपना सामाजिक महत्व खो जाना।
अपने पिछले कर्मो की प्रतिक्रिया भोगते हुए मनुष्य नये कार्य भी करता रहता है। पिछले कर्मो का फल भोगना अज्ञात भविष्य या भाग्य कहलाता है। चूंकि कर्मो का परिणाम अगले जन्म में ही मिलता है इसलिए यह याद नहीं रह पाता कि वर्तमान में भोगे जाने वाला मानसिक या शारीरिक कष्ट या सुख किस मूल क्रिया का है। मनुष्य की स्मरण शक्ति इतनी नहीं होती कि वह पिछले जन्मों के कर्मो का स्मरण रख सके। इसलिए अच्छे कर्मो का अच्छा और बुरे कर्मो का बुरा परिणाम स्वयं को ही भोगना पड़ता है प्रकृति का यही नियम है, इसमें भगवान को उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है।
इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी को प्राप्त होने वाले कष्ट का वास्तविक प्रकार पूर्व निर्धारित नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी प्रतिक्रिया की मूल क्रिया क्या है। यह पूर्वनिर्धारित नहीं होता कि यदि किसी ने कोई वस्तु चुराई है तो प्रतिक्रिया स्वरूप उसे भी उतने मूल्य की चोरी का सामना करना होगा। कष्ट का निर्धारण उस मानसिक कष्ट के तुल्य आंका जाता है जो किसी की चुराई गई वस्तु से उस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है। इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया का माप, मानसिक रूप से प्राप्त होने वाले सुख या दुख के स्तर के अनुसार अनुभव होता है। अतः वास्तविक शारीरिक सुख या दुख के अनुभव के प्रकार का अपेक्षतया कोई महत्व नहीं होता।
एक अन्य परिदृश्य के अनुसार कुछ धर्मो के लोग रास्ते में पड़े किसी व्यक्ति को कष्ट पाते देखकर कहते हैं कि उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है वह तो अपने संस्कारों को भोग रहा है उसे भोगने दो। पर यह उचित नहीं है, हमें अधिक से अधिक लोगों के शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए उन्हें मदद करना चाहिए क्योंकि वह अपने संस्कारों का भोग तो पूर्णतः मानसिक रूप में कर रहा होता है। उसके संस्कारों का चक्र तो आगे चलता रहेगा चाहे वह जिस किसी प्रकार और अकार में हो जैसे, अपमान , अवसाद , हताशा , क्रोध, निराशा या अन्य किसी प्रकार से।
अपने द्वारा पूर्व में किए गए कार्यो की प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त परिणामों के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेवार और उत्तरदायी होता है इसके लिए भगवान या किसी अन्य को दोष देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कुछ लोग यह भी कहते देखे जाते हैं कि यदि किसी को किसी ने पेड़ से धक्का देकर गिरा दिया है तो अवश्य ही गिरने वाले ने कभी भूतकाल में उस व्यक्ति को पेड़ से गिराया होगा । या कुछ यह भी कहते पाए जाते हैं कि यदि किसी का दुर्घटनावश पैर टूट गया तो उसने अवश्य पिछले जन्म में किसी का पैर तोड़ा होगा। पर यह बातें अतार्किक और अविवेकपूर्ण हैं। किसी भी प्रतिक्रिया के लिए भौतिक क्रियाओं के द्वारा पारिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए केवल मानसिक प्रभाव ही निर्धारक होता है। किसी व्यक्ति के द्वारा प्रथम क्रिया के समय किस स्तर का मानसिक कष्ट किसी को दिया गया है उसी के आधार पर उस व्यक्ति को प्रतिक्रिया स्वरूप मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। प्रकृति का यही नियम है परन्तु पुजारी और पंडित लोग सभी को मूर्ख बनाकर छलते रहते हैं। वे कहते हैं, अरे ! तुम गरीब हो अपने भाग्य के कारण, इसलिए अब अच्छी तरह व्यवहार करो ताकि अगला जन्म कष्टदायी न मिले। इस प्रकार सम्पन्न अर्थात् पूंजीवादी लोग गरीबों का शोषण करते रहने के लिए उन्हें निष्क्रिय और भाग्यवादी बनाते हैं। इसलिए यह प्रकृति का दृढ़ नियम है कि कोई व्यक्ति जिस स्तर का मानसिक कष्ट दूसरों को देता है उसे भी उसी स्तर का भौतिक या शुद्ध मानसिक कष्ट व्याज सहित सहना पड़ता है। गरीब मौलिक सुविधाओं से रहित होकर भूख से कष्ट पा सकता है तो धनी के पास कितना ही धन क्यों न हो उसे बीमारियों और मानसिक कष्टों के रूप में इसे भोगना पड़ता है। मानसिक कष्ट प्राप्त होने के कुछ उदाहरण ये हैं, किसी विधवा का एकमेव पुत्र मर जाना, किसी स्थापित व्यावसायिक वकील या डाक्टर की असावधानी का अपने वरिष्ठों के समक्ष रहस्योद्घटन हो जाना और अपना सामाजिक महत्व खो जाना।
अपने पिछले कर्मो की प्रतिक्रिया भोगते हुए मनुष्य नये कार्य भी करता रहता है। पिछले कर्मो का फल भोगना अज्ञात भविष्य या भाग्य कहलाता है। चूंकि कर्मो का परिणाम अगले जन्म में ही मिलता है इसलिए यह याद नहीं रह पाता कि वर्तमान में भोगे जाने वाला मानसिक या शारीरिक कष्ट या सुख किस मूल क्रिया का है। मनुष्य की स्मरण शक्ति इतनी नहीं होती कि वह पिछले जन्मों के कर्मो का स्मरण रख सके। इसलिए अच्छे कर्मो का अच्छा और बुरे कर्मो का बुरा परिणाम स्वयं को ही भोगना पड़ता है प्रकृति का यही नियम है, इसमें भगवान को उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है।
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