Monday, 13 November 2017

165 बाबा की क्लास ( ऋद्धि और सिद्धि)

165 बाबा की क्लास ( ऋद्धि और सिद्धि)
राजू- अनेक लोगों को यह कहते देखा गया है कि उन्होंने बड़ा ही परोपकार किया है जबकि वास्तव में वह उस स्तर का नहीं पाया जाता जितना कि बताया जाता है?
बाबा- इसे अहंकार कहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने में यह सबसे बड़ा अवरोधक बनता है। जो इस रहस्य को नहीं जानते वे इस प्रकार के अहंकार में डूबकर अपनी आत्मिक क्षति कर लेते हैं।

इन्दु- तो क्या किसी को परोपकार करना ही नहीं चाहिए?
बाबा- परोपकार तो सदा करना ही चाहिए परन्तु उससे अपने अहं को नहीं जोड़ना चाहिए। परोपकार हमेशा कर्तव्य मानकर ही करना चाहिए।

रवि- लेकिन जब हम किसी का भला करते हैं तो यह भावना तो स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है कि यह कार्य मैं ने किया। इसके अलावा जो उपकृत होता है वह भी सबको यही कहता है कि अमुक ने यह कार्य किया है, इससे अहंकार को और बल मिलता है?
बाबा- आध्यात्मिक साधना करने वाले साधक जानते हैं कि वे अपना हर अच्छा और बुरा कार्य अपने इष्ट को ही अर्पित करते जाते हैं। इस अभ्यास के लगातार करने से सम्पूर्ण समर्पण की भावना स्थायी हो जाती है फिर वह कर्मबंधन में नहीं बंधता है।

रवि- सम्पूर्ण समर्पण का असली रहस्य क्या है? 
बाबा- मनुष्य के जितने भी अहंकार भरे कर्म होते हैं जितने भी ‘मैं’ से जुड़े कार्य और प्रदर्शन होते है। वे सभी दम्भ और दर्प से घिरे होते हैं और ‘मै’ की भावना उत्प्रेरित करते हैं। यह ‘मै’ ही सभी प्रकार के अहंकार का आधार है।  जैसे, जब कोई व्यक्ति बहुत अधिक पढ़ लिख लेता है तो उसका अहंकार बढ़ जाता है। वह अपने इस लघु अस्तित्व को बचाए रखने के लिये इतना सतर्क हो जाता है कि वह परमपुरुष के प्रति समर्पण का भाव लाने में कठिनाई का अनुभव करता है। उसके सामने यदि तर्कसम्मत सिद्धान्त भी रखा जाय तो वह अस्वीकार कर देता है क्योंकि यदि वह स्वीकार करता है तो उसे यह हास्यास्पद लगने लगता है। इस प्रकार का मनोविज्ञान उसे सदा ही विपरीत सलाह देता रहता है। समर्पण करने का तरीका है उन परमपुरुष के ध्यान में अपने ‘‘मैंपन’’ को समर्पित करना और संसार के सभी वाह्य अस्तित्वों में ईश्वरीय भावना को संबद्ध करना।

इन्दु- परन्तु अपने ‘‘मैंपन’’ को समर्पित करने की विधि क्या है?
बाबा- किसी गरीब भूखे व्यक्ति को भोजन कराने पर विचार आ सकते हैं कि यह मैंने बहुत बड़ा काम किया, इस प्रकार का अहंकार मानसिक बीमारी है। अब यदि किसी गरीब या बीमार को मदद करते समय यह भावना मन में लाते हैं कि मैं इस रूप में सामने आए परमपुरुष की मदद कर रहा हॅूं तो इस प्रकार के कर्म से अहंकार उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए अहंकार को जीतने के लिए मन में यह प्रतिक्रिया बनाए रखना चाहिए कि ईश्वर ने मुझे जो योग्यता या धन दिया है अब वही इस रूप में उसे लेने आये हैं, मैं उसे वापस कर रहा हॅूं जो उसका असली मालिक है। इस शरीर का भी असली मालिक वह परमपुरुष है इसलिए इसमें स्थित ‘मन’ का भी वही मालिक है, उसे उसकी वस्तु वापस कर रहा हॅूं। इस प्रकार की भावना से अहंकार उत्पन्न नहीं होता।

रवि- आपने अभी बताया है कि परमपुरुष का ध्यान करते हुए ही सब कर्मों को अर्पित करना चाहिए यह कैसे हो सकता है?
बाबा- ध्यान करते समय  सभी लोग परमपुरुष को कर्म अर्थात् ‘आब्जेक्ट’ और अपने को कर्ता अर्थात् ‘सब्जेक्ट’ मानते हैं । इस प्रकार वे अपने को दृष्टा और परमपुरुष को दृश्य मानते हैं। जबकि यह संभव नहीं होता। परन्तु अपनी आन्तरिक आॅंखों से उन परमपुरुष की ओर देखते समय मन में यह भावना होना चाहिए कि ‘मैं उनका ध्यान नहीं कर रहा हॅूं और न ही मानसिक रूप से उन्हें देख रहा हॅूं वरन् , वास्तव में वही मुझे देख रहे हैं। अर्थात् वह मेरे सब्जेक्ट हैं और मैं उनका आब्जेक्ट। इस प्रकार से अहंकार और दम्भ के नागपाश से मुक्त रहा जा सकता है।

चन्दू- यह तो ध्यान के समय की क्रियाएं हुईं , हम तो सामाजिक व्यवहार के समय की बात कर रहे हैं, वहाॅं पर हमारा आचरण कैसा हो जिससे अहंकार से बचा जा सके?
बाबा- सामाजिक व्यवहार में हमें घास के तृणों की तरह अपने को सहनशील बनाकर उन लोगों को भी उतना ही सम्मान देना सीखना चाहिए जिन्हें कोई भी आदर नहीं देता । यह नहीं होना चाहिए कि कोई धन सम्पन्न और समाज में अधिक प्रभावी व्यक्ति के साथ आपका व्यवहार विशेष हो और अपेक्षतया कम प्रभावी साधारण व्यक्ति के साथ साधारण या उपेक्षापूर्ण। तात्पर्य यह कि बिना किसी भेद भाव के सभी के साथ एकसमान आदर भाव रखने पर अहंकार को पनपने का अवसर नहीं मिल पाएगा।

राजू- कुछ लोगों को यह कहते सुना जाता है कि अहंकार रहित योगाभ्यास से सिद्धियाॅं प्राप्त होती हैं,  यह कैसे संभव हैं?
बाबा- परमपुरुष की एक अद्वितीय विशेषता यह है कि जो भी उनका चिंतन करता है वह उनके साथ एक हो जाता है। जीवात्मा परमात्मा हो जाता है। साधक इस प्रकार महान बनने का रहस्य जानता है और यही ‘‘रस साधना’’ का आधारभूत नियम है कि अपनी सभी व्यक्तिगत इच्छाओं /रुचियों को परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर दो । केवल इस प्रकार वह ‘पूर्णता अर्थात् रिद्धि’ और ‘सफलता अर्थात् सिद्धि’ पा सकता है।

रवि- इसमें इष्टमंत्र की क्या भूमिका होती है?
बाबा-प्रत्येक मंत्र का एक लय और स्पंदन होता है । जब इसे इकाई मन, "कास्मिक" प्रणाली के साथ स्पंदित करता है और इस अभ्यास के लगातार करने से जब अपने इकाई स्पंदनों को "कास्मिक " स्पंदनों के साथ अनुनादित करने लगता है तो इसे ‘मंत्र सिद्धि’ कहते हैं। वह व्यक्ति अपने बाह्य भौतिक स्पंदनों के साथ आन्तरिक "एक्टोप्लाज्मिक" स्पंदनों को समानान्तर कर लेता है और अपना आध्यात्मिक स्तर दूसरों की तुलना में ऊंचा उठा लेता है । इस प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम ही ‘‘मंत्र सिद्धि’’ में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए आध्यात्मिक साधना लघुता के बंधनों  को समाप्त करने का प्रयत्न है और सिद्धि अथवा सौंदर्य वह अवस्था है जब यह बंधन समाप्त हो चुकते हैं।

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