Monday 5 November 2018

221 दिव्य नाटक

221 दिव्य नाटक
ऋषिगण कहते हैं, उसके दिव्य नाटक में सदा ही अनेक पात्रों की आवश्यकता हर क्षण बनी रहती है। कोई अमीर, कोई गरीब,  बुद्धिमान, मूर्ख, मोटे ,पतले, काले , गोरे सभी प्रकार के पात्र अपनी दी गई भूमिका के अलावा अन्य किसी की भूमिका नहीं निभा सकते। राजा हो या रंक सभी को उस संचालक के निर्देशों के अनुसार ही चलना होता है। जिन्हें दुखी भूमिका दी गई है वे स्टेज पर रोकर और विदूषक हॅंसकर और हॅसाकर अपना अपना काम करेंगे। पर यह सब हॅंसना रोना उसके नाटक के ही अंग हैं। एक सच्चा भक्त इस रहस्य को समझता है। नाटक में राजा कहलाने वाला अन्त में अपने घर जाकर सूखी रोटी खाता है पर नाटक में तो वह राजा ही होता है।
इसलिए विश्व में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह उस परमसत्ता के द्वारा दिया गया कार्य और भूमिका ही है अतः किसी को यह नहीं मान लेना चहिए कि यह स्तर उसका सदा के लिए बना रहेगा। हर जीवित प्राणी उस परमपुरुष का ही वंशज है। सभी रूप और आकार उसी में रहते हैं और अन्त में उसी में मिल जाते हैं इसलिए किसी को हीन भावना का शिकार नहीं होना चाहिए। एक छोटी सी बॅूद और पूरा महासागर तत्वतः एक ही ‘जल’ के अलग अलग आकार हैं, एक छोटा और दूसरा बड़ा। जब पानी की छोटी बूँद  महासागर से एकत्व बना लेती है तो वह पृथक छोटी बॅूंद नहीं रह जाती वह भी महासागर ही हो जाती है।

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