Tuesday 20 November 2018

224 तीर्थ

224 तीर्थ
प्राचीनकाल में मानव मन में उठने वाले आध्यत्मिक गूढ़ प्रश्नों को सांकेतिक रूप में ‘‘पार्वती’’ के नाम से और उनके व्यावहारिक दर्शन से जुड़े सुसंगत उत्तर ‘‘शिव’’ के नाम से कहे जाते रहे हैं। पार्वती के प्रश्नों का व्यवस्थित संग्रह ‘निगम’ और शिव के उत्तरों का संग्रह ‘आगम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। व्यावहारिक तन्त्रविज्ञान में उन्हें हंस के दोनों पंखों का रूपक दिया गया है अर्थात् हंस को उड़ने के लिए जिस प्रकार अपने दोनों पंखों की आवश्यकता होती है वह एक पंख से उड़ नहीं सकता, उसी प्रकार आध्यात्म को सही ढंग से समझने के लिए निगम और आगम दोनों की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के बिना साधक की आध्यात्मिक यात्रा संभव नहीं है।
जनसामान्य के मन में जब से भगवान या ‘‘ईश्वर’’ का विचार आया है तभी से उनके मन में ‘तीर्थ’ की अवधारणा भी उत्पन्न हुई। वे उन्हें पाने या देखने के लिए अबाध रूप से तीर्थ यात्राएं करने लगे। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जब तीर्थ यात्रा करने के लिए महिलाओं और पुरुषों ने अपने गहने और अन्य सम्पत्ति बेच दी। आज भी यह ज्वलन्त प्रश्न है कि आखिर यह तीर्थ क्या है? ‘निगम’ शास्त्र में भी पार्वती के माध्यम से जनसाधारण का यह प्रश्न पूछा गया है और ‘आगम’ में शिव द्वारा दिए गए उत्तरों में इसका समाधान इस प्रकार समझाया गया है।

सामान्यतः ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ ‘यात्रा का स्थान’ से लगाया जाता है। परन्तु इसका विच्छेदन करने पर हम देखते हैं कि ‘‘तीर्थ=तीर+स्था+ड’’ अर्थात् किनारे की रेखा, जहाॅं जल और स्थल एक दूसरे को स्पर्श करते हैं। इस किनारे का ढलानी भाग ‘तट’ कहलाता है। इस प्रकार कोई व्यक्ति इस किनारे की रेखा से एक कदम तट की ओर बढ़ाता है तो वह सूखे स्थान पर आ जाता है परन्तु उससे एक कदम पानी की ओर बढ़ाता है तो वह पानी में जा पहुँचता  है। इस भौगोलिक ‘तीर’ की समानता दर्शाता ‘‘तीर्थ’’ का वास्तविक अर्थ है ‘ भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच का स्थान। क्योंकि यदि कोई व्यक्ति भौतिक संसार की ओर एक कदम बढ़ाता है तो वह भौतिकवाद के आकर्षण में फंस जाता है परन्तु एक ही कदम आघ्यात्म के जल की ओर बढ़ाता है तो वह इसके प्रवाह में बहने लगता है। इसलिए वह विन्दु जो भौतिकता और आध्यात्मिकता से जोड़ने का सम्पर्क कराता है वही है असली तीर्थ, इसीलिए कहा गया है ‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुः’ ।

सामान्यतः लोग चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र हो या भौतिक, बिना किसी साधना या प्रयास के मुक्ति या भौतिक सुख सम्पन्नता चाहते हैं, या पापों को धोना चाहते हैं, अतः वे एक स्थान से दूसरे स्थान को तीर्थयात्रा के नाम पर भटकते हैं। वे सोचते हैं कि गाय की पूछ पकड़कर वे वैतरणी तर जाएंगे पर धूर्तो के जाल में उलझकर अपना मूल्यवान समय, धन और ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। इसलिए, आगमशास्त्र में शिव ने पार्वती के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया- ‘‘इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।’’

अर्थात् अज्ञान के अंधकार में रहने वाले (तामसी) लोग इस तीर्थ से उस तीर्थ में यात्राएं करने भटकते रहते हैं परन्तु पार्वती! जब तक वे अपने हृदय में स्थित तीर्थ को नहीं खोजते हैं तब तक उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?
तो, यह असली तीर्थ क्या है और कहाॅं पर स्थित है? शिव का उत्तर है, ‘‘मानव हृदय के भीतर वह स्वर्णिम रेखा जहाॅं संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और इसके जिस विन्दु पर वे सम्पर्क में आकर मधुर आध्यात्मिक आनन्द उत्पन्न करते हैं, वही है असली तीर्थ और उसका स्थान।’’ वह जो इस उभयनिष्ठ विन्दु पर रहता है उसे कहा जाता है ‘‘तीरस्थ’’ या तीर्थ; यहाॅं व्यक्ति और उस स्थान का प्रभु एक हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय के भीतर स्थायी रूप से प्रज्ज्वलित अलौकिक ‘ज्योति’ को भूलकर भौतिक जगत के तथाकथित पवित्र स्थानों में यहाॅं वहाॅं भटकते हैं, वे कभी मोक्ष नहीं पा सकते हैं । जिन एतिहासिक महापुरुषों ने शिव के द्वारा बताये गए इस आत्मज्योति के सहारे आगे बढ़ने का प्रयास किया है उन्होंने कीर्तिमान स्थापित कर अमरत्व पा लिया है, पर हम केवल उनकी काल्पनिक मूर्तियों की स्थापना कर इसे ही तीर्थ और अन्तिम सत्य मान बैठे हैं, कितना आश्चर्य है!

No comments:

Post a Comment