साधना के समय मन क्यों भटकता है?
अनेक लोग मन की चतुर्थ अवस्था अर्थात् एकाग्रता से परिचित हैं। इस उन्नत अवस्था में मानव मन कभी कभी दिव्यता की मधुरता अनुभव करता है और कभी कभी इस स्तर तक गिर जाता है कि सब कुछ भूलकर वह नारकीय प्राणी की तरह राक्षसीय व्यवहार करने लगता है। कभी कभी सत्संगति में आकर सोचता है कभी असत्य नहीं बोलूॅंगा पर अगले ही क्षण वह रिश्वत लेता है, मादक द्रव्य पीता है, चरित्रहीन हो जाता है और सोचता है कि ईमानदारी और सद् गुण मूर्खतापूर्ण हैं, जो मैं कर रहा हॅूं वही सही है। इस प्रकार मन अच्छे और बुरे के बीच गेंद की तरह उछलने लगता है। परन्तु जब वह योग साधना का अभ्यास करने लगता है और उत्साहित होकर ‘श्रेय’ को अपना आदर्श बना लेता है तब उसका मन सत्य की एकाग्रभूमि में स्थापित हो जाता है। इस स्थिति में चित्त से अनेक प्रकार की तरंगे निकलने लगती हैं।
‘‘ शान्तादितौ तुल्यप्रत्यायो चित्तस्यैकाग्रतापरिणाम। ’’
साधना करने के प्रारंभ में साधक का मन एकाग्र नहीं रह पाता, अपने इष्ट मंत्र के थोड़े से दुहराने के बाद ही मन में हजारों अवाॅंछित विचार आ धमकते हैं। उसे लगता है मैं साधना कर ही नहीं सकॅूंगा वरन् उन विचारों से परेशान होता रहॅूंगा जो मैं नहीं चाहता। हाथ माला फेरते हैं, ओंठ मंत्र जाप करते हैं पर मन नरक की गंदगी की ओर भागता है। जब मन में उठने वाले इस प्रकार के अवांछित विचार हटा दिये जाते हैं तभी एक आनन्ददायी तरंग उत्सर्जित होती है और मन एकाग्रभूमि की अवस्था पा लेता है। साधना करते समय यदि मन एकाग्र नहीं रहता है तो उसका कारण है कि इष्ट मंत्र का उचित प्रकार से जाप नहीं किया जा रहा है। ईमानदारी से नियमित अभ्यास के द्वारा यह जापक्रिया सही सही बनाई जा सकती है।
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