Monday, 20 August 2018

209 ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ..

ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ..

 जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हॅूं, यह कथन है गीता में श्रीकृष्ण का।
देखा जाता है कि लोग भगवान की पूजा , भजन, आरती , कीर्तन आदि, कुछ न कुछ पाने के लिए ही करते हैं। वे कहा करते हैं, हे भगवान मैं धनी हो जाऊॅं, सुखी रहूँ , कोई कष्ट न हो, मेरे सभी शत्रु नष्ट हो जाएं, परीक्षा में पास हो जाएं, पुत्र पुत्रियों की नौकरी लग जाए, उनकी अच्छे घर  में शादी हो जाय, और न जाने क्या क्या....। जबकि, प्रकृति के विकास क्रम में यह मनुष्य शरीर हमें ‘उनकी’ कृपा से ही प्राप्त हुआ है, उन्हें ही अनुभव करते हुए उन्हीं को पाने के लिए। पर कितना आश्चर्य है कि उन्हें पाने की जगह हम उनसे भौतिक जगत की अनेक वस्तुएं और सुख साधन माॅंगते नहीं थकते। "उन्हें" पाने का तो कभी विचार ही नहीं आता। अब मानलो कोई व्यक्ति कहता है कि हे भगवान ! मैं ‘राजा’ हो  जाऊं, तो हो सकता है, अगले जन्म में वह किसी गरीब के घर जन्म लेकर ‘राजा’ नाम का व्यक्ति कहलाए। वह राजा बनना चाहता था इसलिए वह हो गया। इसका स्पष्ट अर्थ यह है,  कि किसी भी प्रकार की इच्छा करते समय बहुत ही सावधान रहना चाहिए।

इस संबंध में एक दृष्टाॅंत है, ‘‘किसी व्यक्ति ने भगवान शिव से अमर हो जानें का वरदान माॅंगा। शिव ने कहा, अमर होना तो असंभव है; गहराई से विचार कर कुछ और माॅंग लो । वह बोला, ठीक है, मैं न दिन में मरूं और न रात में। तो, वह मरा संध्याकाल में।’’

सच तो यह है कि परमपुरुष से कुछ माॅंगा ही न जाय अर्थात् भौतिक जगत की कोई चीज माॅंगने का क्या औचित्य क्यों कि अगले एक सेकेंड का भी तो किसी को नहीं मालूम कि क्या होगा, वह जिएगा भी या नहीं। हम स्वयं अपने भविष्य की आवश्यकताओं को नहीं जानते तो कुछ भी माॅंगने से क्या लाभ। इसलिए सबसे अच्छा तो यह कहना होता है कि "हे प्रभु ! मेरे जीवन में आपकी इच्छा पूरी हो।"  यदि कुछ माॅंगना ही हो तो सर्वोच्च भक्ति ‘पराभक्ति’ माॅंगना चाहिए।

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