Tuesday 7 August 2018

207 ऋग्वेद

ऋग्वेद
ऋग्वेद बहुत पुराना है इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित है कि कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों को उनकी प्राचीनता के अनुसार सबसे पुराना, मध्य, और पश्चात्वर्ती इन तीन अलग अलग भागों में ‘जैन युग’ के बहुत पहले विभाजित कर दिया था। जैन युग का संदर्भ देने का कारण यह है कि वेदों का उल्लेख जैन साहित्य में भी मिलता है जो कि तत्कालीन प्राकृत भाषा में लिखा गया है। वर्धमान महावीर 2500 वर्ष से कुछ पहले हुए थे और प्राकृत भाषा का उद्गम चार से पाॅंच हजार वर्ष के बीच हुआ। इस प्रकार वेदों का जो भी भाग सबसे बाद का माना जाय, वह निश्चय ही पाॅंच हजार वर्ष से कम पुराना नहीं हैं। जैन साहित्य का जहाॅं तक संबंध है उसका कुछ भाग वर्धमान महावीर के पहले, कुछ जैन सन्तों के द्वारा रचित हुआ था तो भी वे किसी भी प्रकार से पाॅंच हजार वर्ष से पहले के नहीं हैं।
ऋग्वेद का रचनाकाल लगभग पन्द्रह हजार वर्ष से दस हजार वर्ष पूर्व के बीच का है जबकि यजुर्वेद का दस हजार से सात हजार वर्ष के बीच का और अथर्ववेद का सात से पाॅंच हजार वर्ष के बीच का माना जाता है। सामवेद कोई वेद नहीं है, शब्द ‘साम’ का अर्थ है ‘गीत या भजन’ । सामवेद को पूर्वोक्त सभी वेदों के संगीत वाले भाग को अलग कर एक साथ प्रस्तुत किया गया जिसे सामवेद का नाम दिया गया है। अर्थात् सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद सभी में पाया जाता है। वेदों का सबसे पहले विभाजन हुआ तब उन्हें ऋक, यजुः और अथर्व नाम दिया गया। परन्तु जैन साहित्य में केवल सामवेद का उल्लेख मिलता है जो प्रकट करता है कि जैन साहित्य के उद्गम से बहुत पहले वेदों को तीन भागों में विभाजित किया जा चुका था और बाद में सभी तीनों भागों में से संगीत वाले भाग को एकत्रित कर सामवेद बनाया गया था।
जैसे लिपि के अभाव में वेदों को लिखा जाना संभव नहीं हो पाया था उसी प्रकार जैन सन्त जितने भी पुराने क्यों न हों वे भी अपनी शिक्षाओं को लिपि के माध्यम से व्यक्त नहीं कर सके। वर्धमान महावीर का जन्म लिपि के अनुसंधान हो जाने के बाद हुआ अतः उनके समय जैन साहित्य तत्कानील प्राकृत भाषा में लिखा गया । उनका जन्म पूर्वी भारत के वैशाली नामक स्थान हुआ था और उन्होंने मगध तथा राढ़ में अपनी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया था । अतः स्पष्ट है कि उन्होंने जो भी कहा या लिखा था वह तत्समय की प्रचलित प्राकृत भाषा में ही पाया जा सकता है। मुख्य प्राकृत भाषाएं सात प्रकार की हैं और जैन साहित्य की भाषा उनमें से एक है जिसे मागधी प्राकृत कहते हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद  के कार्यकाल में लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए उन्हें लिखा नहीं जा सका, लिपि का अनुसंधान अथर्ववेद अर्थात् वेदों के अंतिम भाग के समय हो चुका था परन्तु चॅूंकि ऋक और यजुः को लिखा नहीं गथा इसलिये लोगों ने सोचा कि शायद अथर्ववेद को भी नहीं लिखा जाना चाहिए और वह भाग भी अलिखित रह गया। अथर्ववेद के प्रवर्तक ( उस समय  कहलाते थे ‘आदर्शपुरुष’ ) ब्रह्मर्षि अथर्वा थे ।वह मध्य एशिया के थे और यह कहना आवश्यक नहीं है कि वह भारत के ही मूल निवासी थे। और, यह भी कि अथर्ववेद के अंतिम भाग के प्रवर्तक विशेषतः महर्षि वैदर्भि भारत के ही मूल निवासी थे क्योंकि विदर्भ,  भारत के पश्चिम मध्य भाग की आबादी का नाम था।
कृष्णद्वैपायन व्यास को वेदव्यास के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने वेदों को तीन मुख्य भागों ऋक, यजुः और अथर्व , में बाॅंटा था। इस शब्द ‘व्यास’ के संबंध में मतभिन्नता पाई जाती है। अनेक एतिहासिक व्यक्तियों के व्यास नाम पाए जाते हैं परन्तु सावधानी से विचार करने पर ज्ञात होता है कि  व्यास कोई नाम नहीं है वह वंशानुगत शीर्षक है। वादरायण व्यास, संजय व्यास, विवस्वत व्यास आदि के उपनाम व्यास थे न कि नाम। व्यास, जिन्होंने वेदों के तीन भाग किए उनका नाम था कृष्णद्वैपायन जो कि एक ‘कैवर्त’ परिवार (मत्स्य परिवार) में गंगा और यमुना के बीच प्रयाग के पास काली मिट्टी के द्वीप (कृष्ण द्वीप) पर उत्पन्न हुए थे जिस कारण उनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना की जो वेदों के बहुत बहुत बाद में अस्तित्व में आया  पर फिर भी निःसंदेह तीन हजार वर्ष से अधिक पुराना  है। यद्यपि ऋग्वेद में मुख्यतः स्तोत्र हैं परन्तु उसमें कहानियाॅं और दृष्टान्त भी हैं। भले ही ये सभी कहानियाॅं एक से आध्यात्मिक महत्व की न हों पर वे सभी प्राचीन समय के लोगों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनसे पता चलता है कि समाज की संरचना और विचारधारा का क्रमशः किस प्रकार विकास हुआ। इस दृष्टिकोण से ऋग्वेद की भाषा, साहित्य और अभिव्यक्तिकरण संसार के लिए विशेष महत्व रखता है। यह सत्य है कि उस समय लिपि नहीं थी परन्तु ध्वनिविज्ञान, ध्वनि की अभिव्यक्ति , उनकी क्रमबद्धता और व्यवस्थापन आदि उस समय अस्तित्व में थे। विभिन्न अक्षरों की अनेक प्रकार की ऋग्वैदिक उच्चारण करने की विधियाॅं उस समय प्रचलन में थीं जो समय समय पर अपने गुरुओं से उनके शिष्यगण मौखिक सुन कर याद रखा करते थे। ऋग्वेद में ‘ऋक’ और ‘सूक्त’ के नामकरण का विशेष नियम था। ऋक का नाम, सामान्यतः परमसत्ता के नाम पर सम्बोधन के अनुसार दिया जाता था और जहाॅं परमसत्ता को नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता था वहाॅं सूक्त; या कहीं कहीं ऋक भी, पहले शब्द के नाम पर दिया जाता था। अन्य विशेषता यह कि अधिकाॅंतः ऋक को निश्चित छंदों में रचा गया है।

मुख्यतः सात प्रकार के छंद पाए जाते हैं, गायत्री, उष्णिक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, ब्रहती, जगती, और पॅंक्ति। इसके अलावा वैदिक भाषा में कोई सर्वस्वीकृत व्याकरण नहीं थी अतः छंदों  और प्रचलित अलिखिम व्याकरण के बीच भिन्नताओं को इस नियम के अनुसार समाधान किया जाता था कि व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार छंद को काट छाॅंट कर घटा बढ़ाकर ध्वनि को व्यवस्थित कर सकता था जिससे वह छंद यथावत बना रहे। एक उदाहरण स्वीकृत ऋक 310/62 का है, जिसे सामान्यतः गायत्री मंत्र कहा जाता है, जो यथार्थतः सावित्र ऋक है। गायत्री एक विशेष छंद का नाम है, मंत्र का अर्थात् ऋक का नहीं। इस गायत्री में परमपुरुष को ‘‘सविता’’ के नाम से संबोधित किया गया है। इस शब्द की व्युत्पत्ति है , सु + त्रन् या त्रक  इसलिए इसे ‘‘सावित्र ऋक’’ कहा गया है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के एक सूक्त में कहा गया है कि
नासदासीन्नो सदासीतदानीम, नासीद्राजो न व्योमा परो यत।
इसका प्रारंभ शब्द ‘नासद’ से किया गया है इसलिए इसका नाम हुआ ‘नासदीय सूक्त’ । पूर्वोक्त ‘सावित्र ऋक’ गायत्री छंद में रचा गया है जिसमें आठ शब्दाॅंश होते हैं। इसकी तीन लाइनें  हैं इसलिए कुल चौबीस शब्दाॅंश हैं। ऋक इस प्रकार है,
तत्सवितुर्वरेण्यम
भर्गो देवस्य धीमही
धियो यो नः प्रचोदयात्।
‘‘अर्थात्, परम पिता, जिसने सृष्टि को सात स्तरों ( लोकों  ) में निर्मित किया है, उसके दिव्य तेज का हम ध्यान करते हैं जिससे वह हमारी बुद्धि को आनन्दित पथ की ओर जाने में मार्गदर्शन करे।’’

अब यदि हम इस ऋक का विश्लेषण करें तो दूसरी लाइन में आठ शब्दाॅंश- भर, गो, दे, व, स्य, धी, म और ही ; तथा तीसरी लाइन में भी आठ शब्दाॅंश - धि, यो, यो, नः, प्र, चो, द और यात् पाए जाते हैं। परन्तु पहली लाइन में केवल सात शब्दाॅंश - तत् स, वि, तुर, व, रे, और न्यं पाए जाते हैं अर्थात् इस लाइन में एक शब्दाॅंश की कमी है अतः इसे उच्चारित करने के समय आज अथवा तत्समय भी तत्कालीन प्रचलित अलिखित व्याकरण नियमों का उल्लंघन होता है। इसलिए इसे इस प्रकार उच्चारित किया जाता है कि आठ शब्दाॅंश हो जाएं, जैसे, तत् स, वि, तुर, व, रे, नि, अम् ।
मंत्र के प्रारंभ में ‘‘ओम् भूर्भुवः स्वः ओम् ’’ जोड़ दिया जाता है और अन्त में ओम् जोड़ा जाता है। यह मूलतः ऋग्वेद में नहीं है, ये अथर्ववेद में है। यह मंत्र परमब्रह्म के सप्त लोकों की सृष्टि का सामूहिक अभिव्यक्तिकरण है- भूर्भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य। परन्तु जहाॅं स्थूल , सूक्ष्म और कारण नामक लोकों को संक्षिप्त रूप में प्रयुक्त किया जाता है वहाॅं केवल ‘‘भूभुर्वः.स्वः’’ इन तीन नामों का ही उच्चारण किया जाता है जिनके लिए ‘‘महाव्याहृति’ (अर्थात् परमोच्चारण) शब्द का उपयोग किया जाता था। ये मूलतः ऋग्वैदिक ‘सावित्र ऋक’ के भाग नहीं हैं। सावित्र ऋक के उच्चारण का अभ्यास करने के लिए
‘‘ ओम भूभुर्वः स्वः
ओम् तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो  देवस्य धीमही
धियो यो नः प्रचोदयात् ओम्’’
 इस प्रकार महाव्याहृति को जोड़कर ‘‘सावित्र ऋक ’’ का अर्थ प्रबल किया जाता है। इसे जोड़ने का कारण यह है-  महाव्याहृति के जोड़ने पर मंत्र का अर्थ स्पष्ट हो जाता है जैसे, ‘‘इन, भूः भुवः स्वः अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों में हम सविता (अर्थात् परमपिता) के प्रखर तेज का ध्यान कर रहे हैं जिससे वह हमारी ‘धी’ अर्थात् बुद्धि को सच्चाई के रास्ते पर चलाए रखने  में मार्गदर्शन करें ।’’ परमपुरुष से इस मंत्र के द्वारा आध्यात्मिक दिशा पाने के लिए प्रेरणा पाने का प्रयत्न करना ‘‘वैदिक दीक्षा’’ कहलाता है। बाद में जब व्यक्ति आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए तत्संबंधी उचित निर्देश पा जाता है तो इसे ‘‘तान्त्रिकी दीक्षा’’ कहते हैं।

ऋग्वेद को प्राचीन काल में प्रमुख वेद माना जाता था केवल इसलिए नहीं कि वह सबसे पुराना था वरन् इसलिए कि वैदिक दीक्षा ऋग्वेद के सावित्र ऋक पर न्यूनाधिक रूप से आधारित थी यद्यपि आध्यात्मिक साधक के लिए भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार में संतुलन बनाए रखकर आगे बढ़ने के क्षेत्र में सहायक होने के दृष्टिकोण से यजुर्वेद, ऋग्वेद का अतिक्रमण कर जाता है। यजुर्वेद में शब्दों का उच्चारण और ध्वनि विज्ञान, ऋग्वेद से बिलकुल भिन्न है। यजुर्वेद, तन्त्र के अधिक निकट है और अथर्व भी लगभग हर पद पर तन्त्र से मिश्रित पाया जाता है। एक समय तो ऐसा था जब रूढ़ीवादी पंडितों ने अथर्ववेद के अनुयायियों को सामाजिक रूप से वहिष्कृत कर दिया था और वे कहते थे कि
‘‘ अथर्वान्नाम मा भुन्जीथाः’’
अर्थात् अथर्ववेद के अनुयायियों का भोजन स्वीकार नहीं करना चाहिए ! ! !

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