203 दस प्राण और मृत्यु
हम नाक से जिस वायु को श्वास के रूप में ग्रहण करते हैं उसमें से शरीर को संचालित करने के लिए आवश्यक भाग जिसे ‘आक्सीजन’ या प्राण वायु कहा जाता है, शरीर के विभिन्न भागों में अपने अपने क्षेत्रों में सक्रिय होकर प्राणों (vital forces) का संचार करती है। शरीर के विभिन्न भागों में कार्य के आधार पर योग विज्ञान में इनके दस प्रकार माने गये हैं। पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य । इन पाॅंचों भीतरी और पाॅंचों बाहरी वायुओं का सम्मिलित नाम ‘‘प्राणाः’’ है और वह पद्धति जिससे हम इन्हें नियंत्रण में लाने का प्रयत्न करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं । योगविज्ञान के अनुसार ‘‘ प्राणान यमयतये सा प्राणायामः अर्थात् प्राणों को उचित आयाम देने की विधि प्राणायाम कहलाती है।’’ इसके अलावा यह भी कहा गया है कि ‘‘ तस्मिन सति स्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।’’ इसका अर्थ भी अन्ततः यही होता है कि वह विशेष प्रयास जिसमें श्वास प्रश्वास का सामान्य प्रवाह परिवर्तित कर अस्थायी रूप से विशेष विधि के द्वारा श्वसन को रोक दिया जाता है प्रणायाम कहलाता है। विशेष विधि में व्यक्ति का बीज मंत्र और मन को केन्द्रित बनाए रखने का स्थान महत्वपूर्ण होता है अन्यथा केवल श्वास को एक ओर से लेने और दूसरी ओर से छोड़ने की क्रिया को प्राणायाम नहीं कहा जा सकता। यह श्वसन क्रिया तो सभी लोग स्वाभाविक रूप से हर समय करते हैं जो नियमित अन्तराल पर अपने आप दायें और वायें नासिका छिद्र में बदलती रहती है।
पाॅंच आन्तरिक प्राण हैंः-
1. प्राण, जो नाभि से कंठ के बीच श्वास प्रश्वास के द्वारा ऊर्जा के प्रसार का कार्य करता है।
2. अपान, जो नाभि से गुदा के बीच मल और मूत्र की गतिशीलता को नियंत्रित करता है ।
3. समान, जो नाभि के चारों ओर गोलीय क्षेत्र में रहकर प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाता है।
4. उदान, जो गले में रहता हुआ वाक् नलिका और वाणी पर नियंत्रण रखता है।
5. व्यान, जो पूरे शरीर में खून का संचार करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नाड़ियों की भौतिक क्रियाओं में सहयोग करता है।
और पाॅंच वाह्य प्राण हैंः-
1. नाग, जो संधियों में रहता है और कूदते समय, या शरीर को फैलाने या वस्तुओं के फेकते समय अपना कार्य करता है।
2. कूर्म, जो शरीर की विभिन्न ग्रंथियों में रहकर को उसे कछुए की तरह संकुचन करने में सहायक होता है।
(यहाॅं यह ध्यान रखने योग्य है कि कूर्मभाव और कूर्मनाड़ी एक ही नहीं हैं। कूर्मनाड़ी कंठ में स्थित वह विन्दु है जिसका निम्नतम भाग विशुद्ध चक्र की परिधि पर पड़ता है। यदि मन और कूर्मनाड़ी में भारसाम्य स्थापित कर लिया जाय तो शरीर अस्थायी रूप से स्पन्दन रहित हो जाएगा। योगियों के अनुसार बैलों में कूर्मनाड़ी के साथ मन का भारसाम्य स्थापित करने की क्षमता होती है जिससे वे लम्बे समय तक बिना हिलेडुले रह सकते हैं जैसे कि कोई पत्थर की मूर्ति हो।)
3. क्रकर, यह पूरे शरीर में फैला रहता है और वायुदाब के बढ़ाने या घटाने में प्रयुक्त होता है अतः जॅंभाई लेते समय सक्रिय रहता है। साधारणतः जॅंभाई सोने से पहले और अंगड़ाई सोने से जागने के बाद आती है।
4. देवदत्त, जो भूख और प्यास लगने पर क्रियाशील होता है और पेट के भीतर भोजन तथा पानी के दाब को नियंत्रित करता है।
5. धनन्जय, जो भौतिक और मानसिक श्रम करने के बाद तन्द्रा और निद्रा के लिए उत्तरदायी होता है ।
अतः प्राणयाम की विधि वह है जो हमारे दसों प्राणों को उनकी कार्य सीमा में अधिकतम कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं, तो सभी प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम (amplitude) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है।
सात्विक आहार और दोनों समय नियमित रूप से निर्धारित संख्या में अपने बीज मंत्र के अध्यारोपण के साथ प्राणायाम करने वाले व्यक्ति सदैव निरोग और स्वस्थ रहते हैं तथा जितने संस्कारों को भोगने के लिए यह शरीर मिला होता है उन्हें भोग लेने के बाद बिना किसी कष्ट के उसे छोड़ देते हैं, इसे मृत्यु कहा जाता है।
वृद्धावस्था के कारण या बीमारी से या अनपेक्षित दुर्घटना से ‘प्राण’ वायु का आवास क्षेत्र विघटित हो जाता है जिससे वह अपना प्राकृतिक प्रवाह और क्षमता को और अधिक बनाये नहीं रख पाता । इस अप्राकृतिक परिस्थिति में वह ‘समान’ वायु को आघात पहुँचाता है जिससे वह अपना संतुलन खो देता है। इससे नाभि के पास रहने वाला ‘समान’ और ऊपरी भाग में रहने वाला ‘प्राण’ अपना अपना क्षेत्र छोड़कर आपस में एक दूसरे में मिल जाते हैं और दोनों मिलकर ‘अपान’ वायु पर अपना दाब डालते हैं जिससे ‘उदान’ और ‘व्यान’ वायु भी अपना स्वाभाविक कार्य करना बंद कर देता है। इस अवस्था को ‘‘नाभिश्वास’’ कहते हैं। ‘उदान’ वायु के निष्क्रिय होते ही गले से आवाज निकलने लगती है जो आसन्न मृत्यु का संकेत देती है।
जब पाॅंचों आन्तरिक प्राण एकसाथ मिलकर शरीर को छोड़ देते हैं तब वे वायुघटक अथवा महाप्राण में मिल जाते हैं। इनके निकलने के बाद, बाहरी पाॅंच प्राणों में में से चार , नाग, देवदत्त, कूर्म और क्रकर भी प्राण वायु के साथ जा मिलते हैं केवल धनंजय वायु शरीर में बचा रहता है। धनंजय का कार्य निद्रा और तंद्रा लाना है अतः शरीर को स्थायी विश्राम देने के लिये यह अन्त तक रहता है जब तक कि शरीर को जला न दिया जाय या कब्र में पूर्णतः विघटित न हो जाय। इसे बाद वह भी पंचमहाभूतों में प्रवेशकर वायु घटक में मिल जाता है।
कभी कभी अचानक दुर्घटना से, घातक बीमारी से जैसे कोलेरा, पाक्स, साॅप के काटने या जहर से या फाॅंसी पर लटकने से, शरीर इतना विचलित हो जाता है कि उसके प्राण लकवाग्रस्त हो जाते हैं। यह दुर्घटनावश अचानक मृत्यु मानी जाती है पर शरीर के विच्छेदन न होने से नाभिश्वास का अवसर नहीं आता या बहुत कम आता है, अतः इस अवस्था में प्राणों के लकवाग्रस्त होने से तत्काल मृत्यु नहीं होती वरन् कुछ देर बाद होती है। इस अवस्था में यदि कृत्रिम विधियों द्वारा श्वसन क्रिया फिर से स्थापित की जा सके तो प्राण ऊर्जा फिर सेे सक्रिय हो सकती है। जब तक प्राण ऊर्जा लकवाग्रस्त रहती है शरीर में विघटन होने के लक्षण दिखाई नहीं देते। पुराने समय में इनमें से किसी कारण से होने वाली मौत में शरीर को जलाने या दफनाने के बदले उसे लकड़ी के बेडे़ पर नदी के पानी में तैरा दिया जाता था अतः स्वच्छ , ठंडे और खुले वातावरण के प्रभाव में कभी कभी प्राण फिर से सक्रिय हो जाया करता था। अतः इन परिस्थितियों में हुई मौत के मामलों को जब तक सक्षम डाक्टर से परीक्षण न करा लिया जाय तब तक जलाना या दफनाना नहीं चाहिए।
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