Monday, 10 November 2014

3.2 : तथ्य

3.2 : तथ्य

प्रणिधान-  ध्वन्यात्मक लय के साथ मन की तरंगों की समानांतरता अर्थात्
                  [Parallelism between    mental and acaustic rhythm]

ईश्वर  प्रणिधान- ईश्वर  की मूल तरंगों के साथ मन की तरंगों की समानान्तरता अर्थात्
             [Parallelism between   mental and fundamental devine rhythm]

देवता - जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार ,जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील  हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से बिलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषाके अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परन्तु  शिव  के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।

देवी शक्ति  - जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है।
1. चितिशक्ति    2. कालिकाशक्ति।
       वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, आकार पाता है।

ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात्(eternal time factor) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

 परम सत्ता और प्रकृति (cosmic entity and nature)
वह परम सत्य अपने क्रियात्मक घटक जिसे प्रकृति कहते हैं, के माध्यम से संपूर्ण सृजन करता है। प्रकृति सात्विक बल को आधार बनाकर रजोगुण और तमोगुण की मदद से प्रपंच रचती हैं। यथार्थतः आधार अदृश्य   सा ही रहता है केवल रजो गुण और तमोगुण की ही अनुभूति सबको होती रहती है इन्हीं से द्वन्द्वों का आभास होता है जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सात्विक आधार पर ही टिका रहता है। इन बलों में असंतुलन होने का अर्थ है अस्तित्वहीनता।
प्रत्येक जड़वस्तु चाहे वह सूर्य जैसे तारे हों या आकाशगंगायें  या इलेक्ट्रान जैसा छुद्र कण, वे सब नहीं जानते कि उनका अस्तित्व है जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह आस्तित्विक अनुभूति का आधार ही वह सत्ता है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है इसलिये ‘‘मै हूृॅं‘‘ इसी बोध में वह परम सत्ता अदृश्य   रूप में रहती है। बलों के त्रिभुज के नियमानुसार वस्तु संतुलित रहती है, जैसे, दीवार पर टंगी तस्वीर जिसके दो छोर रस्सी से बंधे दिखाई देते हैं, पर तीसरा, जो तस्वीर में से गुजरकर संतुलन बनाता है, रहते हुए भी दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखाई देती है। यही अदृश्य  बल अर्थात् सात्विक बल वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।

पॅंचाग्नि
मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार की ग्रंथियाॅं पाई जाती हैं जो जीवन के संचालन के लिये आवश्यक  ग्रंथि रसों का स्राव करती रहती हैं। ये ग्रंथियाॅं एक नियत ताप पर ही अपनी पूरी क्षमता से कार्य कर शरीर को अधिकतम लाभ पहुंचाती हैं। प्रधानतः पाॅंच प्रकार की ग्रंथियाॅं शरीर के संतुलन को बनाये रखती हैं ये क्रमशः  सिर, दाढ़ी, मूछों, कंधों के नीचे संधियों पर, और जननेद्रिय तथा पैरों के संधिस्थल पर रहती हैं । प्रकृति ने ही इस तापक्रम को उचित बनाये रखने के लिये इन स्थानों पर बालों का समूह स्थापित किया है अतः वाह्य वातावरण में तापीय परिवर्तनों को ये बाल ऊष्मा के संग्राहक और विकिरक दोनों प्रकार से कार्य करते हैं और शरीर  के ताप को नियत बनाये रखते हैं। इन स्थानों के इन बालों का संरक्षण करना ही पंचाग्नि का तापना कहलाता है। आध्यात्मिक राह पर चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इनका संरक्षण करना चाहिये। यदि इनका संरक्षण नहीं किया जाता और काट दिया जाता है तो ग्रंथियों की क्रियाशीलता प्रभावित होती है और शरीर  तथा मन पर नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होता ।

षोडष कला
मनुष्य का अस्तित्व षोडष अर्थात सोलह  कला युक्त है, जब तक मनुष्य की वृत्ति वर्हिमुखी रहती है तब तक वे भौतिक जगत से सुख की सामग्री खोजते रहते हैं और तब तक उन्हें इन सोलह कलाओं से  बाहर जाने का उपाय नहीं है। इनके अंतर्गत, पाॅंच ज्ञानेन्द्रियाॅं (चक्षु, कर्ण, नासिका, जिव्हा और त्वक्,) पाॅंच कर्मेंद्रियाॅं (वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ,) पॅंच प्राण, (प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान,) (पंच वर्हिवायु नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनन्जय, कला में सम्मिलित नहीं हैं, क्योंकि वे अंतर्वायु समूह के परिणाम हैं)  और अहंतत्व। ये ही षोडष कलायें हैं। तद्गत भाव से साधक की पंचदश  कलाओं का भाव उन सबके मूल कारण में मिल जाता है। देवता अर्थात् इंद्रियां अपने अपने प्रतिदेवता अर्थात् नियंत्रक शक्ति में, अंत में, लीन हो जाती हैं।

तैतीस करोड़ देवता
अनेक विद्वानों के विभिन्न मतों में अधिकाॅंशतः यह माना जाता है कि मनुष्य के शरीर में तेतीस करोड़ नाडि़याॅं होती हैं अतः देवता भी तेतीस करोड़ हैं, वस्तुतः मनुष्यों के शरीर नियंत्रक स्नायु तथा नाड़ी पुॅंज ही अविद्या और अंधविश्वास  के कारण तेतीस करोड़ देवताओं में परिणित हो गये हैं।

देवता के संबंध में शंकराचार्य  का कहना है, सर्वद्योत्नात्मक अखंडचिदैकरस।
और याज्ञवल्क्य का कहना है, द्योतते क्रीडते यस्मादुद्यते द्योतते दिवि, तस्माद्देव इतिप्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।

निष्कर्ष यह कि देवता दो प्रकार के हैं 1. आत्मा का प्रकाश  इंद्रियों द्वारा होता है अतः इंद्रिय समूह को दैहिक देवता कहा जाता है, 2. विश्व ब्रह्माॅंड का प्रकाश   और नियंत्रण जिस देवता समूह के द्वारा होता है उन्हें ब्राह्मी देवता कहा जाता है। दोनों की सॅंख्या तेतीस है क्योंकि ब्राह्मी देवतागण प्रत्येक देहिक देवता गण के प्रतिदेवता हैं। दैहिक देवतागण प्रतिदेवता में लय होते हैं और प्रतिदेवता ब्रह्म में मिल जाते हैं, इसलिये मोक्ष प्राप्त साधक ब्रह्म ही हो जाता है।

मनुष्य के शरीर की असंख्य नाडि़यों में से तेतीस ही प्रधान हैं इन्हीं की नियंत्रक सत्ता को तेतीस देवता कहा जाता है। ये हैं, एकादश  रुद्र, द्वादश  आदित्य, अष्टवसु, इंद्र, और प्रजापति। ब्रह्मशक्ति के प्रधान विकास को इंद्र कहा जाता है, यही देवता मनुष्य शरीर का पूर्णरूप से नियंत्रण करता है।

एकादश  रुद्रः दस इंद्रियां और मन। रुद्र का अर्थ है जो रुलाता है। मृत्यु के समय जब प्रत्येक इंद्रिय अपने प्रतिदेवता में मिल जाती है, मन निष्क्रिय हो जाता है, शरीर अचल और अस्पंद हो जाता है तब उसके आत्मीय गण कातर भाव से रोने लगते हैं। चूँकि ये ग्यारह देवता मनुष्य को रुलाते हैं अतः ये रुद्र कहलाते हैं।

अष्टवसुः वसु का अर्थ है जीवों का वास स्थान अर्थात् जो इंद्रियों के वास स्थान, आश्रय स्थल या विषय हैं वही वसु हैं। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, अन्तरिक्ष, व्योम, वायु ,तेज, और धरती ये आठ वसु हैं।

द्वादश  आदित्यः आदित्य का अर्थ है लेने वाला। यहां पर अर्थ है जो कर्मफल और आयु को ले लेता है। प्रत्येक क्षण आयु क्षीण होती रहती है, और कर्मफल भोग के लिये मनुष्य को एक शरीर छोड़कर दूसरा लेना पड़ता है, यह सब काल प्रवाह के कारण ही होता है अतः समय ही आदित्य है इसलिये बारह मास ही द्वादश  आदित्य हैं।

इंद्रः     इंद्र शब्द का  अर्थ विद्युत , वज्र या कर्मशक्ति है।

प्रजापतिः इस शब्द का अर्थ है यज्ञ या कर्म।

हरि:     हरति पापान् इत्यर्थे हरिः। अर्थात् जो दूसरों के पापों को हर लेता है वह हरि।
हर:      हरति बंधानम् इत्यर्थे हरः। अर्थात् जो बंधनों को काट देता है वह हर।
ईश्वर :   क्लेश कर्मविपाकाषयैर्परामिष्ट सः पुरुषविशेष ईश्वर: । अर्थात्, वह पुरुष, जो क्लेशों  से प्रभावित
          नहीं होता, कर्मबंधन में नहीं बंधता, प्रतिक्रियाओं में नहीं उलझता, और संस्कारों से मुक्त रहता
          है वह ईश्वर  कहलाता है।
भाव:    शुद्धसत्वविशेषाद्वा प्रेमसूर्यांशुसम्यभाक् रुचिभिश्चित्तमाश्रन्य क्रदासौ भाव उच्यते।
          अर्थात्, वह जो परम शुद्ध और सात्विक बनाता है, जो प्रेम के सूर्य को चमकाता है, जो मन को
          भक्ति की किरणों से चमकदार और चिकना बनाता है उसे भाव कहते हैं। भावार्थ यह कि मन
          की वह एकान्तिक सूक्ष्मतम अवस्था जो विचारों को व्यावहारिक उत्प्रेरण देकर व्यक्तित्व का
          विकास करती है भाव कहलाती है।

 भक्ति, साधना नहीं है
भक्ति, साधना नहीं है।  भक्ति का स्तर ज्ञान और कर्म की साधना करने के बाद ही प्राप्त होता है। भक्ति के द्वारा उत्पन्न आनन्द का अनुभव अखंड अवस्था में ले जाता है। प्रसन्नता का समाचार किसी व्यक्ति के मन की आनन्दायी भावनाओं को उत्प्रेरित कर उसे हॅंसने नाचने गाने की ओर उन्मुख करदेता है और जिस क्षण वह इस पुल को पार कर लेता है वह अखंड सत्ता में मिल जाता है। इसलिये ज्ञानपूर्वक कर्म करने से भक्ति उत्पन्न होती है और भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञान और कर्म दोनों की आवश्यकता होती है। ध्यान रहे ज्ञान और कर्म की साधना करना है परंतु कर्म की साधना ज्ञान से अधिक होना चाहिये क्योंकि ज्ञान की साधना कर्म से अधिक होने पर अहंकार के उत्पन्न होने की संभावना होती है जो पतन का कारण बनती है।

भगवान और उनके नाम
    अपने अपने संज्ञानात्मक प्रक्षेप के अनुसार लोग एक ही परमसत्ता को विभिन्न नाम दे देते हैं। आध्यात्मिक साधक को इन नामों और उनसे जुड़ी महामनस्कता के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि इन सबके भीतर एक समान आत्मा रहती है।

 अब हम क्रमशः  इन नामों को लेते हैं। सबसे अधिक प्रचारित है ‘‘नारायण‘‘। यह ‘नार‘ और ‘अयन‘ इन दो
शब्दों से मिलकर बना है, और उसका आन्तरिक अर्थ है परमपुरुष। नार शब्द  के संस्कृत में तीन अर्थ हैं, पहला है भक्ति, जैसे नारद माने भक्ति देने वाला। दूसरा अर्थ है पानी, और तीसरा अर्थ है प्रकृति अर्थात् परम क्रियात्मक शक्ति। और अयण माने आश्रय, इसलिये नारायण माने प्रकृति का आश्रय। परम क्रियात्मक शक्ति का आश्रय अर्थात् परमपुरुष।

अगला प्रसिद्ध नाम है शिव । शिव  और शक्ति एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं। शक्ति कोई पृथक सत्ता नहीं वह सार्वभौमिक तथ्य है और शिव  अखंडसत्ता। शक्ति का अर्थ है क्रियात्मक सत्ता। किसी भी क्रिया में दो सिद्धान्त होते हैं एक ज्ञानात्मक और दूसरा क्रियात्मक। मानलो आप कोई मशीन चला रहे हैं, इसमें दो सिद्धान्त हैं एक मशीन को मस्तिष्क की सहायता से दिशा निर्देश  अर्थात् संज्ञानात्मक और दूसरा मासपेशियां जो संज्ञान के दिशा निर्देश  पर मशीन संचालित करतीं हैं, क्रियात्मकता। ब्रह्माॅंड भी संज्ञानात्मक सिद्धान्त और क्रियात्मक सिद्धान्त दोनों से मिलकर बना है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं परमपुरुष और क्रियात्मक सिद्धान्त है परमाप्रकृति। सिद्धान्ततः यह दो पृथक  सत्ताओं के होने का आभास कराता है पर आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं। शिव  और शक्ति  का सम्मिलित नाम है ब्रह्म। इसलिये शिव  हुए परम चेतना, नारायण भी परमचेतना हैं अतः शिव  और नारायण में कोई अंतर नहीं है।

अब हम अन्य नाम ‘माधव‘ लेते हैं। संस्कृत में ‘मा‘ के तीन अर्थ हैं, पहला है ‘‘नहीं‘‘ जैसे मा गच्छ, अर्थात् मत जाओ। अन्य अर्थ है इंद्रियाॅं। इसलिये जीभ को भी ‘मा‘ कहते हैं, और तीसरा है परम क्रियात्मक सत्ता, परमा प्रकृति, लक्ष्मी। ‘धव‘ माने नियंत्रक या पति, इसी कारण जिस महिला का पति नहीं होता उसे विधवा कहते हैं। ‘धव‘ का अन्य अर्थ सफेद भी है। इसलिये माधव का मतलब हुआ जो परमा प्रकृति को नियंत्रित करता है अर्थात् परमपुरुष। ‘कृष्ण‘ का अर्थ है आकर्षण करने वाला, अतः वह जो विश्व  ब्रह्माॅंड के संपूर्ण अस्तित्व को अपनी ओर खींच रहे हैं वह कृष्ण हैं। सभी जाने अंजाने उन्हीं के आकर्षण में बंधे हुए हैं इसलिये कृष्ण परमपुरुष हैं। इसप्रकार कृष्ण/माधव भी शिव  और नारायण की तरह एक ही सत्ता को प्रदर्शित   करते हैं।

अब अगला नाम लेते हैं ‘राम‘। रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ और प्रत्यय ‘घईं ‘ को मिलाकर राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थत् परमपुरुष। इसलिये किसी को भी भगवान के नामों की महानता को लेकर झगड़ना नहीं चाहिये। राम का अन्य अर्थ है, राति महीधरा राम अर्थात् अत्यंत चैंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं।

 अन्य अर्थ है, रावणस्य मरणम् इति रामः। रावण क्या है? आप जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की  प्रवृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैरित्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और  अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः जीव मन की इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त रहने को रावण कहते हैं। रावण को दस सिरों वाला इसी लिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली, प्रवृत्तियों से संघर्ष करना होगा अर्थात् रावण का वध करना होगा। रावणस्य मरणम् इति रामः, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर राम राज्य पाता है। इसलिये राम माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम माने राम क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है। इस प्रकार नारायण, शिव , माधव और राम एक ही हैं।

इष्टमंत्र
      परंतु साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्ट मंत्र ही है, उसी के चिंतन मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश  पायेगा। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर गुरुकृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरश्चरण  की क्रिया में प्रवीण होते हैं।  पुरश्चरणका अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की क्षमता होना। अपने अपने इष्टमंत्र का श्वाश  प्रश्वाश  की सहायता से नियमित रूपसे जाप कारते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे , इसे ही साधना कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार (cosmic rhythm) के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं। शक्तिमान शब्द ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् उपरोक्तानुसार ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन  मात्र है।

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