मित्रो! बाबा की क्लास में अभी तक आपने आध्यात्म के विभिन्न सिद्धान्तों और तथ्यों पर तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्या के माध्यम से अपना ज्ञानवर्धन किया है, अब आगे की क्लासों में हम वह विषय ले रहे हैं जिस पर जनसामान्य ही नहीं विद्वान मनीषियों को भी सच्चाई का पता नहीं है और केवल कुछ अविश्वसनीय कहानियों को सुना कर ही उनका अन्त करते पाये जाते हैं । वह विषय है ‘‘ भगवान सदाशिव ‘‘ के संबंध में सच्ची जानकारी। तथाकथित शिव भक्तों ने ‘‘ शिव‘‘ के द्वारा समाज को दिये गये योगदान को भुलाकर किस प्रकार उन्हें गंजेड़ी , भंगेड़ी , श्मशान वासी और बहुरूपिया बना दिया है यह किसी से छिपा नहीं हैं। आश्चर्य यह है कि इसके बाद भी उन्हें अवढरदानी और आशुतोष कहा गया है।
यथार्थतः आध्यात्म विज्ञान में शिव को महायोगी, महासम्भूति, तारकब्रह्म आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया है और तन्त्रविज्ञान का जनक कहा गया है। यद्यपि शिव के बारे में पूर्णता से जानकारी देना तो केवल ‘शिव‘ के लिये ही संभव है फिर भी विद्वान शोधकर्ताओं के माध्यम से जो भी उपलब्ध हुआ है उसे एक क्लास में प्रस्तुत कर पाना भी कठिन है इसलिये सभी तथ्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिये भी इसे आगामी अनेक क्लासों में क्रमशः पूरा किया जा पायेगा। इसलिये निवेदन है कि सभी क्लासों में मनोयोग से उपस्थित रहकर चिंतन करें और किसी भी प्रकार की शंका को समाधान करने के लिये अपने प्रश्न अवश्य पूंछें।
76 बाबा की क्लास (शिव .1)
रवि- बाबा! भगवान सदाशिव के संबंध में आपका क्या कहना है? क्या वह सचमुच वैसे ही थे जैसा चित्रों में बताया जाता है या कुछ और?
बाबा- भगवान शिव को लोगों ने सही ढंग से समझा ही नहीं है। जिन्होंने समझा है वे शिव ही हो गये।
नन्दू- कुछ समझ में नहीं आया, सरल ढंग से बताइये न? उनके जन्म से लेकर आजीवन जो कुछ उन्होंने किया हो, उसको बताइये?
बाबा- भगवान शिव अजन्मा हैं इसलिये वह स्वयंभू कहलाते हैं, उनके कोई भी माता पिता नहीं हैं परंतु वे सब के माता पिता हैं, वे सदा युवा अवस्था में ही देखे गये हैं। उस सार्वभौमिक परम सत्ता ने ही तत्कालीन मानवों और वनस्पति सहित अन्य जीवों के पारस्परिक सामंजस्यपूर्ण जीवन के लिये अपने पवित्र संकल्प से उस स्वरूप को व्यक्त किया था। वे प्रारंभ से ही सार्व भौमिक सत्ता के रूप में समाज की हर समस्या का हल करने के लिये उपलब्ध रहे हैं अतः मानव सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है।
राजू- परंतु उनके आकार को इतना विचित्र क्यों बताया गया है, चार हाथ, सिर पर गंगा नदी, साॅपों और भूतप्रेतों का संग?
बाबा- यह सब पुराणों में वर्णित काल्पनिक कहानियों का ही प्रभाव है जिससे सामान्य जन भ्रमित होते हैं और उनमें निहित असली शिक्षा को भूल जाते हैं।
चंदू- तो आप हमें सही सही जानकारी दीजिये नहीं तो हम सभी दूसरों की तरह भ्रमित होते रहेंगे?
बाबा- कुछ भी कहने के पहले हमें अपने चिंतन को उस समय पर ले जाना होगा जब वैदिक सभ्यता का उदय हुआ था और आत्म उन्नति के लिये लोग भिन्न भिन्न उपाय खोज रहे थे। उस समय सभी जगह, चाहे वह सेंट्रल
एशिया हो यूरोप या दक्षिण पूर्व एशिया, एक सी भाषा थी। इसकी जो शाखा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रसिद्ध थी वह संस्कृत कहलाती थी और उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली वैदिक कहलाती थी। वैदिक संस्कृत आर्यों के साथ आयी जबकि संस्कृत भारत के मूल निवासियों की भाषा थी।
इंदु- तो वैदिक सबसे प्राचीन है क्या?
बाबा- वैदिक भाषा की प्राचीनता की सही सही जानकारी किसी को नहीं है, इस भाषा का सबसे प्रचीन ग्रंथ ऋग्वेद है जो लिखित रूप में बहुत बाद में आया क्योंकि उस समय लिपि का ज्ञान नहीं था। ब्राह्मी, खरोष्टी और अन्य लिपियां 5000 से 7000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। सारद, नारद, कुटिला आदि लिपियां ब्राह्मी से तथा श्रीहर्ष लिपि कुटिला से उद्भूत हुई है। यद्यपि मानव का उद्भव लाखों वर्ष पहले हो गया था पर मानव सभ्यता का प्रारंभ 15000 वर्ष पहले ही माना जाता है।
राजू- तो भगवान सदाशिव का कार्य काल इसमें कौन सा है?
बाबा-ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक भाषा का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।
नन्दू- बाबा! शिव का सही अर्थ क्या है? उन्होंने आते ही वह कौन सा काम किया जिससे वे सब को प्रभावित कर सके?
बाबा- शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव। उन्होंने विद्यातंत्र को सुव्यवस्थित किया, यद्यपि गौड़ीय और कश्मीर तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था।
इंदु- कभी आप शिव को महासंभूति कहते हैं और कभी तारक ब्रह्म, यह कैसी शब्दावली है?
बाबा- वह सत्ता जो प्रकृति को अपने वश में करके प्राणियों को प्रगति दायक सही दिशा देने के लिये अपने व्यक्तित्व तथा दर्शन को एक समान करते हुए अपने आपको व्यक्त करती है उसे महासंभूति कहते हैं। यही सत्ता जब ब्रह्म चक्र की प्रतिसंचर धारा में मनुष्यों को तेज गति से चलने की प्रेरणा देकर मुक्तिमार्ग की ओर ले जाती है तो यह व्यक्त और अव्यक्त जगत के बीच पुल (bridge) की तरह काम करती है, इसे तारक ब्रह्म कहा गया है। शिव महासंभूति और तारक ब्रह्म दोनों हैं।
राजू- शिव के कार्यकाल में सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार थी?
बाबा- उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विषेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की प्रथा का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं।
रवि- तो क्या उनके समय एक ही सामाजिक सभ्यता प्रचलित थी?
बाबा- नहीं, आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की प्रथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।
नन्दू- इन झगड़ों को शान्त करने में शिव की भूमिका क्या थी?
बाबा- उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की द्रष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः पार्वती, गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।
राजू- शिव की वह शिक्षा कौन सी है जिस के आधार पर तत्कालीन विद्वान ऋषिगण प्रभावित हुए?
बाबा- महासंभूति शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (cosmic entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण सृजन करते हैं । प्रकृति सात्विक बल (sentient force) को आधार बनाकर राजसिक(mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य सा ही रहता है केवल राजसिक और तामसिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सात्विक बल अर्थात परमब्रह्म (cosmic entity) पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे।
इंदु- क्या इसे और अधिक सरलता से नहीं समझाया जा सकता?
बाबा- इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं, जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से तो दो बलों को प्रदर्शित किया जाता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य सेंटिऐंट बल परमब्रह्म (cosmic entity) वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
यथार्थतः आध्यात्म विज्ञान में शिव को महायोगी, महासम्भूति, तारकब्रह्म आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया है और तन्त्रविज्ञान का जनक कहा गया है। यद्यपि शिव के बारे में पूर्णता से जानकारी देना तो केवल ‘शिव‘ के लिये ही संभव है फिर भी विद्वान शोधकर्ताओं के माध्यम से जो भी उपलब्ध हुआ है उसे एक क्लास में प्रस्तुत कर पाना भी कठिन है इसलिये सभी तथ्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिये भी इसे आगामी अनेक क्लासों में क्रमशः पूरा किया जा पायेगा। इसलिये निवेदन है कि सभी क्लासों में मनोयोग से उपस्थित रहकर चिंतन करें और किसी भी प्रकार की शंका को समाधान करने के लिये अपने प्रश्न अवश्य पूंछें।
76 बाबा की क्लास (शिव .1)
रवि- बाबा! भगवान सदाशिव के संबंध में आपका क्या कहना है? क्या वह सचमुच वैसे ही थे जैसा चित्रों में बताया जाता है या कुछ और?
बाबा- भगवान शिव को लोगों ने सही ढंग से समझा ही नहीं है। जिन्होंने समझा है वे शिव ही हो गये।
नन्दू- कुछ समझ में नहीं आया, सरल ढंग से बताइये न? उनके जन्म से लेकर आजीवन जो कुछ उन्होंने किया हो, उसको बताइये?
बाबा- भगवान शिव अजन्मा हैं इसलिये वह स्वयंभू कहलाते हैं, उनके कोई भी माता पिता नहीं हैं परंतु वे सब के माता पिता हैं, वे सदा युवा अवस्था में ही देखे गये हैं। उस सार्वभौमिक परम सत्ता ने ही तत्कालीन मानवों और वनस्पति सहित अन्य जीवों के पारस्परिक सामंजस्यपूर्ण जीवन के लिये अपने पवित्र संकल्प से उस स्वरूप को व्यक्त किया था। वे प्रारंभ से ही सार्व भौमिक सत्ता के रूप में समाज की हर समस्या का हल करने के लिये उपलब्ध रहे हैं अतः मानव सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है।
राजू- परंतु उनके आकार को इतना विचित्र क्यों बताया गया है, चार हाथ, सिर पर गंगा नदी, साॅपों और भूतप्रेतों का संग?
बाबा- यह सब पुराणों में वर्णित काल्पनिक कहानियों का ही प्रभाव है जिससे सामान्य जन भ्रमित होते हैं और उनमें निहित असली शिक्षा को भूल जाते हैं।
चंदू- तो आप हमें सही सही जानकारी दीजिये नहीं तो हम सभी दूसरों की तरह भ्रमित होते रहेंगे?
बाबा- कुछ भी कहने के पहले हमें अपने चिंतन को उस समय पर ले जाना होगा जब वैदिक सभ्यता का उदय हुआ था और आत्म उन्नति के लिये लोग भिन्न भिन्न उपाय खोज रहे थे। उस समय सभी जगह, चाहे वह सेंट्रल
एशिया हो यूरोप या दक्षिण पूर्व एशिया, एक सी भाषा थी। इसकी जो शाखा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रसिद्ध थी वह संस्कृत कहलाती थी और उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली वैदिक कहलाती थी। वैदिक संस्कृत आर्यों के साथ आयी जबकि संस्कृत भारत के मूल निवासियों की भाषा थी।
इंदु- तो वैदिक सबसे प्राचीन है क्या?
बाबा- वैदिक भाषा की प्राचीनता की सही सही जानकारी किसी को नहीं है, इस भाषा का सबसे प्रचीन ग्रंथ ऋग्वेद है जो लिखित रूप में बहुत बाद में आया क्योंकि उस समय लिपि का ज्ञान नहीं था। ब्राह्मी, खरोष्टी और अन्य लिपियां 5000 से 7000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। सारद, नारद, कुटिला आदि लिपियां ब्राह्मी से तथा श्रीहर्ष लिपि कुटिला से उद्भूत हुई है। यद्यपि मानव का उद्भव लाखों वर्ष पहले हो गया था पर मानव सभ्यता का प्रारंभ 15000 वर्ष पहले ही माना जाता है।
राजू- तो भगवान सदाशिव का कार्य काल इसमें कौन सा है?
बाबा-ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक भाषा का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।
नन्दू- बाबा! शिव का सही अर्थ क्या है? उन्होंने आते ही वह कौन सा काम किया जिससे वे सब को प्रभावित कर सके?
बाबा- शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव। उन्होंने विद्यातंत्र को सुव्यवस्थित किया, यद्यपि गौड़ीय और कश्मीर तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था।
इंदु- कभी आप शिव को महासंभूति कहते हैं और कभी तारक ब्रह्म, यह कैसी शब्दावली है?
बाबा- वह सत्ता जो प्रकृति को अपने वश में करके प्राणियों को प्रगति दायक सही दिशा देने के लिये अपने व्यक्तित्व तथा दर्शन को एक समान करते हुए अपने आपको व्यक्त करती है उसे महासंभूति कहते हैं। यही सत्ता जब ब्रह्म चक्र की प्रतिसंचर धारा में मनुष्यों को तेज गति से चलने की प्रेरणा देकर मुक्तिमार्ग की ओर ले जाती है तो यह व्यक्त और अव्यक्त जगत के बीच पुल (bridge) की तरह काम करती है, इसे तारक ब्रह्म कहा गया है। शिव महासंभूति और तारक ब्रह्म दोनों हैं।
राजू- शिव के कार्यकाल में सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार थी?
बाबा- उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विषेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की प्रथा का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं।
रवि- तो क्या उनके समय एक ही सामाजिक सभ्यता प्रचलित थी?
बाबा- नहीं, आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की प्रथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।
नन्दू- इन झगड़ों को शान्त करने में शिव की भूमिका क्या थी?
बाबा- उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की द्रष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः पार्वती, गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।
राजू- शिव की वह शिक्षा कौन सी है जिस के आधार पर तत्कालीन विद्वान ऋषिगण प्रभावित हुए?
बाबा- महासंभूति शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (cosmic entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण सृजन करते हैं । प्रकृति सात्विक बल (sentient force) को आधार बनाकर राजसिक(mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य सा ही रहता है केवल राजसिक और तामसिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सात्विक बल अर्थात परमब्रह्म (cosmic entity) पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे।
इंदु- क्या इसे और अधिक सरलता से नहीं समझाया जा सकता?
बाबा- इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं, जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से तो दो बलों को प्रदर्शित किया जाता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य सेंटिऐंट बल परमब्रह्म (cosmic entity) वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
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