92 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)
रवि - क्या बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने इन छहों स्तरों पर भक्तों को अपनी अनुभति कराई है?
बाबा - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्ठी को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहाॅं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्ठी तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्ठी उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृज कृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनो का ही उद्देश्य परम पुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मधुरता भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी।
नन्दू - यह स्थितियाँ तो दार्शनिक अधिक लगती हैं क्या इसे वैज्ञानिक आधार प्राप्त है?
बाबा - हाॅं। एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यों से युक्त होता है। इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साधक अभ्यास करते करते अपनी तरंग दैर्घ्य को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद कहलाते हैं। जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हैं तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूपसे सालोक्य से सार्ष्ठी तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा।
चन्दू- कृष्ण की इन दोनों भूमिकाओं में सार्ष्ठी का अनुभव करने वाला भक्त क्या हर स्तर पर एक समान अनुभव करता है या भिन्न भिन्न?
बाबा- बृज कृष्ण अपनी बाॅंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्ठी की अनुभूति क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार ध्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है। पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बाॅंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्ठी कहते हैं। यहाॅं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष तुम हो , मैं हूँ और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्ठी की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं । यहाॅं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है और अब दूर रह पाना कठिन है। मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हूँ और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पाॅंचजन्य की ध्वनि कानों में गूँजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।
इन्दु- तारक ब्रह्म शिव ने भी तो भक्तों को आत्मसाक्षात्कार कराया, क्या उनकी विधियाॅं कृष्ण से भिन्न थीं?
बाबा- शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने विखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने तथा स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये तन्त्र का प्रवर्तन करते हुए
शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनि को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, लेकिन दर्शन की कोई चर्चा नहीं की।
रवि - क्या बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने इन छहों स्तरों पर भक्तों को अपनी अनुभति कराई है?
बाबा - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्ठी को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहाॅं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्ठी तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्ठी उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृज कृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनो का ही उद्देश्य परम पुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मधुरता भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी।
नन्दू - यह स्थितियाँ तो दार्शनिक अधिक लगती हैं क्या इसे वैज्ञानिक आधार प्राप्त है?
बाबा - हाॅं। एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यों से युक्त होता है। इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साधक अभ्यास करते करते अपनी तरंग दैर्घ्य को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद कहलाते हैं। जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हैं तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूपसे सालोक्य से सार्ष्ठी तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा।
चन्दू- कृष्ण की इन दोनों भूमिकाओं में सार्ष्ठी का अनुभव करने वाला भक्त क्या हर स्तर पर एक समान अनुभव करता है या भिन्न भिन्न?
बाबा- बृज कृष्ण अपनी बाॅंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्ठी की अनुभूति क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार ध्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है। पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बाॅंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्ठी कहते हैं। यहाॅं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष तुम हो , मैं हूँ और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्ठी की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं । यहाॅं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है और अब दूर रह पाना कठिन है। मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हूँ और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पाॅंचजन्य की ध्वनि कानों में गूँजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।
इन्दु- तारक ब्रह्म शिव ने भी तो भक्तों को आत्मसाक्षात्कार कराया, क्या उनकी विधियाॅं कृष्ण से भिन्न थीं?
बाबा- शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने विखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने तथा स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये तन्त्र का प्रवर्तन करते हुए
शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनि को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, लेकिन दर्शन की कोई चर्चा नहीं की।
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