Sunday 27 November 2016

93 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

93 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

राजू- क्या कृष्ण के समय तक दर्शन अर्थात् फिलासफी का उद्गम हो चुका था?
बाबा- भारतीय दर्शन  के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक  "कपिल" शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व  की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और उन्हें नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर ‘‘। संख्या से संबद्ध होने के कारण इसे साॅंख्य दर्शन  कहा गया है।

रवि- तो क्या उस समय के विद्वानों ने उनकी इस बात को स्वीकार कर लिया?
बाबा-  कपिल ने जन्यईश्वर के संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं । अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ  है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान  के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। निश्चय  ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे।

इन्दु- तो क्या कृष्ण के समय तक यह दर्शन स्थापित हो चुका था या समाप्त हो चुका था या कृष्ण ने अलग कोई अपना दर्शन प्रस्तुत किया ?
बाबा- कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के दार्शनिक वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक  नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे।  यहाॅं यह याद रखने योग्य है कि भागवतशास्त्र जिसमें प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया। बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियाॅं और कार्यव्यवहार संपूर्ण प्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बाॅंसुरी सुनकर सभी लोग उनकी ओर ही दौड़ पड़ते थे उन्हें लगता था कि वह बाॅसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या काॅंटे उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नहीं तो और क्या है। इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्म करना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहाॅं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।

चन्दू- प्रश्न उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में?
बाबा- यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इस प्रकार कर्म प्रारंभ में तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बाॅसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है।

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