Sunday 13 November 2016

91 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

91 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

इन्दु- बाबा ! सभी प्रकार के विद्वानों को यह कहते सुना जाता है कि कृष्ण परमपुरुष ही हैं, परन्तु इन रूपों में उन्होंने अपने निकट रहने वालों को किस प्रकार अनुभव कराया कि वे परमपुरुष ही हैं?
बाबा- जब परमपुरुष किसी संक्रान्तिकाल में अपने को तारक ब्रह्म के रुप मे पृथ्वी पर अवतरित करते हैं तो समकालीन व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की अनुभूतियाॅं करते हैं जो परमपुरुष के अवतार होने का प्रमाण देती है। इन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव किया जाता है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी  और केवल्य।

रवि- बाबा ! ‘सालोक्य‘ क्या है और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?
बाबा- ‘सालोक्य‘ अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हैं  कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष ने भी अवतार लिया। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृज कृष्ण या पार्थ सारथी कृष्ण के संपर्क में आया उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है । यहाॅं एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी, कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृज कृष्ण में अन्तर  स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वाॅंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।

राजू- तो फिर ‘सामीप्य‘ और ‘सालोक्य‘ एक समान हैं या भिन्न?
बाबा- ‘सामीप्य‘ अवस्था में लोग परमपुरुष से इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृज कृष्ण के समीप आने वाले अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थ सारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृज कृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यकता नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।

नन्दू- बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है, लेकिन ‘सायुज्य‘ तो बिलकुल अलग ही होगा?
बाबा- ‘सायुज्य‘  में उन्हें स्पर्श करना भी संभव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियाॅं साथ में नाचते, गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थ सारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।

चन्दू- परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति ,‘सारूप्य‘ क्या है?
बाबा- ‘सारूप्य‘ में भक्त यह सोचता है कि मैं उनके न केवल पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में स्थापित करके साधना करते हैं।

रवि- यदि ऐंसा है तो परमपुरुष के साथ जो शत्रु के रूप में सम्बन्ध बनाते हैं, क्या वे सारूप्य के योग्य माने जा सकते हैं?
बाबा- परमपुरुष को शत्रु के रूप में संबंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस, पर यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम संबंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे आराधना कहते हैं और जो आराधना करता है उसे राधा कहते हैं, यहाॅं राधा का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया।

इन्दु- अनुभूति का अगला स्तर कौन सा है?
बाबा- अगला स्तर है ‘ सार्ष्ठी  ‘ इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। अर्थात् कर्ता है कर्म है और संबंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। ‘ सार्ष्ठी  ‘ का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का संबंध होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों  में इसी द्वैत को महत्व देने में यह तर्क दिया गया है कि ‘‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा।‘‘ इस प्रकार वे  ‘ सार्ष्ठी  ‘को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। पर कुछ वैष्णव दर्शन  यह भी मानते हैं कि हे प्रभु केवल तुम ही हो, इस अवस्था को ‘कैवल्य‘ कहते हैं जो अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है।

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