89 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)
रवि - अनेक ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी अनेक तरह से व्याख्यायें पाई जाती हैं, फिर भी उनकी आकर्षक और विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। क्या ‘ शिव ‘ की तरह आप, नवीन शोधों के अनुसार श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अब तक सर्वथा अज्ञात तथ्यों पर प्रकाश डाल सकते हैं?
बाबा- हाॅं , सबसे पहले तो उस काल में जो सामाजिक व्यवस्था थी उसके सम्बन्ध में अच्छी तरह समझ लो। गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियाॅं नहीं थीं। गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक सन्ताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्या अध्ययन और अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में , वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।
नन्दू- तो हमें कृष्ण के व्यक्तित्व को किस प्रकार समझने का प्रयत्न करना चाहिए?
बाबा- कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृज कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बाॅंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनों प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं।
राजू- परन्तु कृष्ण को तो महाभारत के कारण ही जाना जाता है?
बाबा-महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के विना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।
चन्दू- परन्तु अधिकाॅंश भक्तों ने तो उनकी बाल लीलाओं में ही अपनी साधना को केन्द्रित रखा है, और कहा जाता है कि उन्हें उनका साक्षात्कार हुआ है, तो अन्य भूमिका की आवश्यकता क्यों हुई?
बाबा- बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल, तेज और सभी प्रकार के सदगुण थे परंतु, मधुरता से सबको अपनी वाॅंसुरी की तान से आकर्षित कर लेना उनका अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र भी उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियाॅं उन्हें अपने से बहुत ऊॅंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह तो हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। इस प्रकार जो अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती। अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की।
रवि - अनेक ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी अनेक तरह से व्याख्यायें पाई जाती हैं, फिर भी उनकी आकर्षक और विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। क्या ‘ शिव ‘ की तरह आप, नवीन शोधों के अनुसार श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अब तक सर्वथा अज्ञात तथ्यों पर प्रकाश डाल सकते हैं?
बाबा- हाॅं , सबसे पहले तो उस काल में जो सामाजिक व्यवस्था थी उसके सम्बन्ध में अच्छी तरह समझ लो। गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियाॅं नहीं थीं। गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक सन्ताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्या अध्ययन और अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में , वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।
नन्दू- तो हमें कृष्ण के व्यक्तित्व को किस प्रकार समझने का प्रयत्न करना चाहिए?
बाबा- कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृज कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बाॅंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनों प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं।
राजू- परन्तु कृष्ण को तो महाभारत के कारण ही जाना जाता है?
बाबा-महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के विना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।
चन्दू- परन्तु अधिकाॅंश भक्तों ने तो उनकी बाल लीलाओं में ही अपनी साधना को केन्द्रित रखा है, और कहा जाता है कि उन्हें उनका साक्षात्कार हुआ है, तो अन्य भूमिका की आवश्यकता क्यों हुई?
बाबा- बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल, तेज और सभी प्रकार के सदगुण थे परंतु, मधुरता से सबको अपनी वाॅंसुरी की तान से आकर्षित कर लेना उनका अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र भी उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियाॅं उन्हें अपने से बहुत ऊॅंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह तो हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। इस प्रकार जो अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती। अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की।
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