Monday, 26 December 2016

97 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

97 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

रवि- ब्रह्माॅंड में फैले पदार्थ और वनस्पति या जीवजन्तुओं सहित मनुष्यों के बीच कुछ अन्तर है या नहीं ?
बाबा-   पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परमसत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। यही जड़ात्मक मन, इकाई संरचना को प्रतिसंचर क्रिया के माध्यम से बहुकोशीय संरचनाओं तक ले जाकर ब्रह्मचक्र पूरा करता है। बहुकोशीय संरचना वाले मनुष्य का मन सूक्ष्म चिंतन कर सकने और उस परमसत्ता के आकर्षण से उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृति  का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा।

राजू- तो वह परमसत्ता मनुष्यों पर किस प्रकार नियंत्रण कर पाती है?
बाबा- मनुष्य की संरचना में पचास छोटेबड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार वृत्तियों  को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्रार चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है।

इन्दु- और सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर नियंत्रण किस प्रकार होता है?
बाबा- परमपुरुष समस्त ब्रह्माॅंड पर नियंत्रण करते हैं। सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीं  है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर  उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक  पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में  परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयत्नों  से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परमपुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं।

नन्दू- परन्तु हम तो कृष्ण को दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर रहे थे, वह भी अद्वैतवाद के विशेष प्रकारों के आधार पर?
बाबा- हाॅं, अभी जो चर्चा की गई है उसका सम्बन्ध भी किसी न किसी प्रकार से मूल विषय से आगे जुड़ ही जायेगा फिर भी विशुद्ध  अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्माॅंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्माॅंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर और साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुघार करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों चिंगारियां निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियाॅं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा  से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उन तक वापस लौटना आवश्यक  नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हूँ  और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण, महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। इसलिए विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष बाद हो पर होगा अवश्य । पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है।

चन्दू- तो पार्थसारथी का विशिष्ठाद्वैतवाद के साथ सम्बन्ध जोड़ा जला सकता है या नहीं?
बाबा- अच्छा, अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य  में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद् -भुद  करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श  गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य  ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद् गुणी  लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियाॅं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश  करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश  की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश  की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश  का समर्थन करता है। विनाश  का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियाॅं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश  का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधिकाल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हैं। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता  होती है जो उसे उचित दिशा  दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश  नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैतवाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता।

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