Sunday, 11 December 2016

95 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

95 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

राजू- साॅंख्य दर्शन में क्या कहा गयाहै?
बाबा- साॅंख्य दर्शन  के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चैबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये "जन्यईश्वर"  और समग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये "प्रकृति" को उत्तरदायी माना गया है। जन्यईश्वर  या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण।

नन्दू- तो क्या कृष्ण को इस मत  के अनुसार जन्यईश्वर कहा जा सकता है?
बाबा- इस दर्शन  के प्रकाश  में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहाॅं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और उसमें अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता।

चन्दू- तो आपके अनुसार बृज कृष्ण साॅख्य दर्शन के अनुकूल हैं?
बाबा- बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह साॅंख्य दर्शन  में कहीं  भी दिखाई नहीं देता। साॅंख्य का पुरुष अक्रिय है  जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते । उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते।

रवि- लेकिन बृज कृष्ण की गतिविधियों को तो उनकी बाल लीलाओं में ही गिना जाता है?
बाबा- बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता वसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण साॅंख्य दर्शन  से बहुत ऊपर हैं, साॅंख्य दर्शन  में उन्हें नहीं बाॅंधा जा सकता।

इन्दू-  तो क्या पार्थ सारथी की भूमिका साॅंख्य दर्शन के अनुकूल मानी जा सकती है?
बाबा- यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘  से लिया गया बुद्धि तत्व है।  पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत आवश्यकताओं  के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा  देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहाॅं पाया जा सकता है ? वह पार्थसारथी  के अलावा कोई नहीं है । साॅंख्य का पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया।  महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना जैसे सक्रिय कार्य साॅंख्य के जन्यईश्वर  में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन  में क्या बाॅंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा  जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं  की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा  सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया।  वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे, यह  बच्चों का खेल नहीं है। अतः साॅंख्य के जन्यईश्वर  या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।

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