Monday, 19 December 2016

96 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

96 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

नन्दू- परन्तु इसके बाद आए अनेक दर्शनों में कृष्ण का स्थान कहाॅं पर आता है?
बाबा- यद्यपि प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों  के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण  करना उचित होगा। जैसे, विशुद्ध अद्वेतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमाॅंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तारित किया। इसके अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण  और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्योंकि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहाॅ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन  साॅंख्य और न्याय दर्शन  के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा।

राजू- तो क्या इस सिद्धान्त के आधार पर बृजकृष्ण की भूमिका को नहीं समझाया जा सकता ?
बाबा- ठीक है, बृजकृष्ण की भूमिका को लेते हैं। बृजकृष्ण तो अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं  हैं, वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सबको अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। ब्रह्माॅंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्माॅंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध  अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परमपुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके बिना जीवों का कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने इस दर्शन  का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध  अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन  से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है?

इन्दु- परन्तु मायावाद तो कुछ प्रकाश डाल सकता है कि नहीं?
बाबा- इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जबकि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि साॅंसारिक वस्तुएॅं सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बाॅंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बाॅंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की ही माया है। ब्रह्म  के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया सम्वित  और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक  हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद , व्यावहारिक या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है।

चन्दू- तो पार्थसारथी की भमिका क्या मायावाद के अनुकूल हो सकती है?
बाबा- जहाॅंतक पार्थसारथी का प्रश्न  है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है।  पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये किया। शान्ति  और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियाॅं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई, कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों  के होने अथवा वे कहाॅं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है।

राजू- अर्थात् पार्थसारथी ने तात्कालिक किसी भी दर्शन को आधार नहीं बनाया?
बाबा-पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता का शोषण किया जाना चरम सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के आॅंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा  उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी   शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। (जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दवाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और  सबको तथाकथित प्रसाद बाॅंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं।) इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।

No comments:

Post a Comment