Sunday, 2 October 2016

85 बाबा की क्लास (शिव.10)

85 बाबा की क्लास (शिव.10)

रवि- अनेक प्रकार के देवी देवताओं की उत्पत्ति का आधार और कारण क्या है?
बाबा-  जैन धर्म की शिक्षाओं ने समाज में अपना प्रभाव इस प्रकार डाला कि लोग समाज के लिये घातक, दुष्ट शत्रुओं से भी लड़ने और संघर्ष करने से दूर रहने लगे क्यों कि उन्हें यह शिक्षा दी गयी थी कि साॅंप और विच्छुओं जैसे जानलेवा शत्रुओं को भी क्षमा कर दो और उन पर दया करो। इसके बाद बौद्ध धर्म में लोगों को सिखाया गया कि यह संसार दुखमय है, इससे दूर रहना चाहिये जिससे लोग उदासीन और नीरस जीवन जीने लगे। यद्यपि महावीर और बुद्ध ने किसी भावजड़ता को रोपने के लिये या समाज में उनकी शिक्षा का इस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा इसकी पूर्व धारणा से यह नहीं किया था, परंतु उसका उल्टा प्रभाव समाज पर पड़ना स्वाभाविक था क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और सुसंतुलित नहीं थीं। समाज की इस प्रकार की रूखी और उत्साह रहित जीवन जीने की पद्धति से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से पश्चातवर्ती कुछ बौद्धिक लोगों ने सुख और उत्साह पूर्वक जीवन जीने की कलाओं को स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के देवी देवताओं की काल्पनिक कहानियाॅं बनाईं और उनके अनेक आकार प्रकार देकर पूजा की विधियाॅं भी सिखाईं । ध्यान रहे कि इन सब का आधार शिव को ही बनाया गया क्योंकि बिना शिव से संबंधित किये इन काल्पनिक देवी देवताओं को कोई महत्व न मिल पाता। चूॅंकि भीतर से लोग शैव थे और ऊपर से जैन और बौद्ध धर्म का आवरण , इससे लोगों को लगने लगा कि जीवन में सरसता और सम्पन्नता लाने के लिये इनसे संबंधित देवी देवताओं की उपासना करना ही उचित है इस प्रकार अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियाॅं और देवी देवता उत्पन्न हो गये।

नन्दू- इसका अर्थ यह है कि कुछ समय के बाद शैव, जैन और बौद्ध धर्म परस्पर मिल गये और कोई नया धर्म बन गया?
बाबा- इस काल में लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और शिवोत्तर तंत्र का पारस्परिक रूपान्तरण होने लगा। जैन साहित्य प्राकृत में और बौद्ध साहित्य मगधी प्राकृत या पाली भाषा में उस समय की थोड़ी रूपान्तरित ब्राह्मी लिपि में लिखे गये, परंतु शिवोत्तर तंत्र संस्कृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया। इसके बाद जैन और बौद्ध काल में शिवतंत्र समानान्तर रूप से चलता रहा।

राजू- जिन 64 प्रकार की योगिनियों की चर्चा की जाती है उन्हें तो शिव की पत्नियाॅं कहा जाता है, पर आपने तो शिव के परिवार का परिचय पहले ही बता दिया है, क्या ये योगिनियाँ  इसी समन्वयकाल की हैं?
बाबा- परस्पर समझ बढ़ने पर तीनों तंत्रों में इस बात पर सहमति हुई कि मानव जीवन में 64 प्रकार की अभिव्यक्तियाॅं होतीं हैं अतः तंत्र को 64 शाखाओं में बांटा जाना चाहिये। आन्तरिक रूप से समान परंतु ऊपरी तौर पर कुछ पदों में परिवर्तन कर इसे स्वीकार किया गया। जैसे, जैन तंत्र में मूला प्रज्ञाशक्ति को ‘‘ज्ञाराना‘‘ या ‘ज्ञारत्न‘ कहा गया जबकि शिवोत्तर तंत्र और बौद्ध तंत्र में क्रमशः  इसे शिव और बुद्ध कहा गया। इस प्रकार तीनों तंत्रों में 64-64 प्रकार की शाखाओं को मान्य करते हुए प्रत्येक की नियंत्रक शक्ति को ‘योगिनी‘ कहा गया तथा प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सबको शिव की पत्नियाॅं घोषित किया गया जबकि सदाशिव आज से 7000 वर्ष पहले और ये योगिनियाॅं मात्र 2000 वर्ष पहले  हुए। जैैन तंत्र पर आधारित 64 योगिनियों के मंदिर जबलपुर म.प्र. में एक पहाड़ी पर बनाये गये देखे जा सकते हैं।  लिपि के प्रभाव से हुए इस रूपान्तरण से अनेक योगिनियों और देवी देवताओं के नामों में कुछ परिवर्तन कर स्वीकार किया गया, जैसे, जैन देवी अंबिका को शिवोत्तर तंत्र  और पौराणिक शाक्ताचार में अंविका और वाराही को बौद्ध तंत्र में वज्रवाराही के नाम से स्वीकृत किया गया। पौराणिक सत्यनारायण की संकल्पना इस्लाम की पीरभक्ति से मिलकर बंगाल में सत्यपीर के नाम से मान्य हुई। बुद्धतंत्र की तारा और शिवोत्तर तंत्र की काली और पौराणिक शाक्ताचार में सरस्वती के नाम से परस्पर रूपान्तरित किया गया।


इन्दू-  और  दस महाविद्या क्या हैं और ये कैसे आईं?
बाबा- एकीकरण के इस काल में तीनों तंत्रों में से कुछ कुछ महत्वपूर्ण देवियों को लेकर दस महाविद्याओं की कल्पना आई जो पौराणिक काल में थोड़े से परिवर्तन के साथ शाक्ताचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, गणपत्याचार, में भी मान्य की गईं हैं, इनके नाम हैं, काली, तारा, शोडसी, भुवनेश्वरी , भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बंगुलामुखी, मातुंगी और कमला। ये देवियाॅं लगभग सभी तंत्रों में एकसे बीजमंत्र के साथ या थोड़े से परिवर्तन के साथ मान्य की गई हैं और सबको शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़ दिया गया ताकि उन्हें लोग पूजते रहें परंतु, उन्हें दिये गये भौतिक आकार से ही प्रमाणित होता है कि कोई भी मानव आकार चार, आठ और दस हाथों वाला नहीं हो सकता।

रवि- जब ये सभी काल्पनिक हैं तो क्या इनकी पूजा करने से वह सब प्राप्त हो जाता है जिसके लिये लोग इन्हें पूजते हैं, जैसे धन पाने के लिये लक्ष्मी, प्रतिष्ठा और प्रभाव के लिये दुर्गादेवी, विद्या बुद्धि के लिये सरस्वती आदि आदि ?
बाबा- पा भी सकते हैं और नहीं भी पा सकते हैं क्यों कि सिद्धान्त है कि ‘‘ यो यथा माम् प्रपद्ययन्ते ताॅंस्तथैव भजाम्यहम्‘‘ अर्थात् जो कोई भी  मुझे जैसे भजते हैं मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हॅूं। इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि मानलो कोई भक्त धन को पाने के लिये लक्ष्मी की आराधना करता है तो वह धन को पा सकता है परन्तु परमपुरुष को नहीं, क्योंकि उसने उन्हें चाहा ही नहीं। यही कारण है कि धनलोलुप धन के पीछे इतना पागल होते देखे गये हैं कि अन्त में वे उसका स्वयं कुछ भी उपभोग नहीं कर सके।  श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को, पितरों को पूजने वाले पितरों को ,भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं परंतु मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। इसीलिये परमपुरुष की निष्काम रूप से की गयी उपासना ही सर्वश्रेष्ठ कही गयी है। जिसे परमपुरुष मिल गये उसे धन, पद, प्रतिष्ठा, और अन्य एश्वर्यों की क्या आवश्यकता?

चंदू- यह सब कुछ विचित्र सा नहीं लगता?
बाबा- विचित्र तो बना दिया गया है प्रलोभ देकर। यदि इन देवी देवताओं को पूजने के पीछे उनसे धन, संतान, ऐश्वर्य, पद, प्रतिष्ठा और शक्ति पाने का लालच न दिया जाता तो शायद उन्हें कोई नहीं पूजता। सभी देवताओं  और देवियों की स्तुतियों में से यदि यह एक लाइन न रहे तो देखना क्या होता है, ‘‘ अमुक अमुक की आरती जो कोई ... .....सुख सम्पत्ति/ वाॅंछित फल पावे‘‘ । इतना ही नहीं सस्कृत में बनाये गये संबंधित के श्लोकों में  भी सभी के साथ कुछ न कुछ पाने का लोभ जुड़ा है इसलिये सभी शिव की उपासना भूल कर उन से जुड़ी कल्पनाओं के पीछे भाग रहे हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी यह प्रमाणित करती है कि जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। इसलिये केवल परमपुरुष ही उपास्य हैं, उन्हें पाने की ही इच्छा करना चाहिये, मनुष्य जीवन पाने का यही सदुपयोग है।

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