Sunday, 9 October 2016

86 बाबा की क्लास (शिव. 11)

86 बाबा की क्लास (शिव. 11)


चन्दू- लेकिन दुर्गा देवी को दस महाविद्याओं में माना गया है या चौसठ योगिनियों में?
बाबा- दुर्गादेवी की पूजा भी पौराणिक शाक्ताचार के समय मार्कंडेय पुराण से लिये गये 700 श्लोकों, जिन्हें दुर्गा सप्तशती  (सप्त = सात, शती = सौ) कहा गया, के आधार पर प्रारंभ की गई और दुर्गा को शिव की पत्नी माना गया है जो पहले बताये गये कारणों से काल्पनिक रचना के अलावा कुछ नहीं है। पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि वे  राजसूय या अश्वमेध यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध  यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देख सुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर अपना, दुर्गा पूजा में नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन  किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।

राजू- कभी कभी चंडिका शक्ति का भी उल्लेख यत्र तत्र मिलता है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में लोग समूहों में रहा करते थे और प्रत्येक समूह की मुखिया महिला ही हुआ करती थी और उसे गोत्रमाता कहा जाता था। माता केे मरने के बाद उसकी प्रापर्टी का अधिकार पुत्री को ही प्राप्त होता था परंतु पुत्रों के नाम माता के नाम से ही रखे जाते जैसे, माता का नाम मोदगल्ली तो पुत्र का नाम मोदगल्यायन, माता का नाम रूपसारी तो पुत्र का नाम सारीपुत्त, माता का नाम महापाटली तो पुत्र का नाम पाटलीपुत्र, माता का नाम पृथा तो पुत्र का नाम पार्थ आदि। इस काल में पुरुषों को कोई संम्पत्ति का अधिकार नहीं था अतः वे प्रत्येक कार्य अथवा सुविधा पाने के लिये गोत्रमाता से ही निवेदन किया करते थे अतः गोत्रमाता की पूजा की जाने लगी जिसे कालान्तर में चंडी या चंडिका पूजा कहा जाने लगा। इसमें यह भाव थे कि जो देवी सभी आकारधारकों में माता और शक्ति के रूप में निवास करती है उसे नमस्कार। यद्यपि यह एक सामाजिक पृथा थी परंतु पौराणिक शाक्ताचार में इसे शिव की पत्नी कहा गया जो निराधार है। कालान्तर में महिला के स्थान पर पुरुष को यह अधिकार दिये गये और गोत्रपिता नाम दिया गया।

रवि- परन्तु शिव को अर्धनारीश्वर शिव के रूप में भी पूजा जाता है, यह कौनसी संकल्पना  है?
बाबा-  शिव  की अतुलनीय प्रतिभा, सरलता , साधुता और तेजस्विता के प्रभाव से प्रबुद्ध वर्ग में यह चर्चा होने लगी कि शिव और कोई नहीं मानव रूप में तारक ब्रह्म ही हैं और धीरे धीरे इस धारणा ने पूर्णता प्राप्त कर ली। आध्यात्म साधकों ने अनुभव करना प्रारंभ किया कि ब्रह्म वास्तव में  सर्वोच्च ज्ञानात्मक सत्ता ‘‘परमपुरुष‘‘ और सर्वोच्च क्रियात्मक सत्ता ‘‘परमाप्रकृति‘‘ का एकीकृत आकार ही हैं और शिव  यही संयुक्त आकार हैं। इसके बाद शिवोत्तर तंत्र, जैन तंत्र, बौद्ध तंत्रकाल में इस अवधारणा को पूर्ण बल मिला। इस समय शिव और शक्ति को मूर्तिकारों ने दायीं  ओर शिव और बायीं  ओर पार्वती का आकार देकर अर्धनारीश्वर  शिव  की रचना कर ली। ‘‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म अर्थात् ज्ञान और ऊर्जा साथ साथ कार्य करते हैं,‘‘ का यह विचार पौराणिक काल में भी स्वीकार किया गया। यह माना गया कि शिव ही वह आधार हैं जिस पर शक्ति अपना निर्माण कार्य करती है शिव से अलग होकर वह कार्य नहीं कर सकती। शिव एक साक्षी सत्ता हैं और शक्ति की गतिविधियों के नियंत्रणकर्ता भी हैं। परंतु कितना आश्चर्य है कि शीघ्र ही यह दार्शनिक  विचार लोगों के मन से निकल गया।

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