Sunday 4 September 2016

81 बाबा की क्लास (शिव. 6 )

81  बाबा की क्लास (शिव. 6 )

इंदु- पौराणिक काल में तात्कालिक प्रचलित मतों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है, क्या शैव सिद्धान्तों को जैन मत में स्वीकार किया गया?
बाबा- सब जानते हैं कि जैन धर्म लगभग 2500 वर्ष से कुछ अधिक पहले प्रचलित हुआ, कुछ लोग मानते हैं कि भगवान महावीर से भी पहले तीर्थंकर हुए हैं फिर भी वे सब शिव के बहुत समय बाद हुये। जब जैन धर्म का प्रचार हो रहा था तब शिव जन सामान्य के देवता बन चुके थे क्योंकि उनका व्यक्तित्व असाधारण ही नहीं था, वे मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना गहरा प्रभाव जमा चुके थे। जैन धर्म ने अपना प्रचार और प्रभाव जारी रखा परंतु तत्कालीन लोगों ने उसे ऊपरी तौर पर ही स्वीकार किया और शैव धर्म भी साथ साथ चलता रहा।

चन्दू- तो बाद में एकीकरण हुआ या नहीं?
बाबा- जैन धर्म की अनेक शाखाओं में से मुख्यतः दो ही एतिहासिक रिसर्च में मान्य हैं, दिगम्बर और श्वेताम्बर। जैन मुख्यतः दिगम्बर ही हैं परंतु बाद में निर्ग्रंथिवाद  अर्थात् पहने जाने वाले कपड़ों में गांठ न बांधना, प्रचारित किया गया जो गृही लोगों ने स्वीकार नहीं किया। बाद में यह निर्ग्रंथिवादी  जैन धर्म, शैव धर्म से जोड़ दिया गया। लोग ऊपर से जैन धर्मानुयायी थे पर भीतर ही भीतर वे शैव थे।

राजू- शिवपूजन के साथ एक बड़ा ही विचित्र और भ्रामक विधान ‘लिंगपूजा‘ का बनाया गया है यह बात समझ के बाहर है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंग पूजा करते आये हैं। कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह और प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंग  पूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य  से मान्यता दी गई। इसीलिये यह भी कहा जाने लगा कि जिसके अधिक संतान होगी वे भगवान को अधिक प्रिय होंगे और समाज में आदरणीय। तत्कालीन विश्व  के लगभग सभी देशों  में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही सामाजिक रिवाज के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या दार्शनिक  आधार पर।

रवि- तो ‘लिंगपूजा‘ को शिव से कब और कैसे जोड़ा गया?
बाबा- जैन मत के प्रचार के समय तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ दिया गया। इस तरह महावीर और बुद्ध के विचार आगे आगे और आजू बाजू में शिव तंत्र का रूपान्तरण भी चलता रहा ।  जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले शिवतंत्र में शिवलिंग पूजा का समावेश  हुआ। तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर नया दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ यह किया गया, ‘‘ लिंगायते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘ अर्थात् वह परम सत्ता जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। इस तरह प्रागैतिहासिक काल की लिंग पूजा का रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं शिव  का वीज मंत्र भी बदल गया।

राजू- वेदों के अनुसार  शिव का बीज मंत्र तो ‘म‘ है, उसे जैन और बौद्ध मत में किस प्रकार बदला गया??
बाबा- तुम लोग जानते हो कि आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि  ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं । यही तरंगें किसी वस्तु विशेष की मूल आवृत्ति कहलाती है जिसे दर्शिनिक भाषा में बीज मंत्र कहते हैं। दार्शनिक आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीज मंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव का बीज मंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और पश्चातवर्ती शिव  तंत्र में ‘ऐम‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और वाच्य या ज्ञान का बीज मंत्र है । ज्ञान गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीज मंत्र ‘‘ऐम‘ कर दिया गया जो  पौराणिक काल में जब सरस्वती देवी को ज्ञान की देवी के रूप में लाया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया।

रवि- कितना आश्चर्य है! जब बीज मंत्र ही बदल गया तो उसका दार्शनिक महत्व क्या रहेगा? क्या उन लोगों ने इस पर नहीं सोचा?
बाबा-सही है, जब बीज मंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैन समाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि शिव से जोडे़ बिना उनका महत्व नहीं होता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई है । परंतु अपने अपने मत को श्रेष्ठ कहने के प्रयास में समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिर्लिंग , किसी में अनादि लिंग।

राजू- इस प्रकार के परिवर्तन से किस मत को सबसे अधिक महत्व मिला?
बाबा- इस परिवर्तन के प्रवाह में बहुत समयबाद उत्तर बंगाल (तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि) के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए। यद्यपि जैन और शैव दोनों ही शाकाहरी थे परंतु जैनधर्म के पालन में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाॅं आने के कारण शैव धर्म के प्रति लोगों का स्वाभाविक रुझान बना रहा।

इंदु- क्या बुद्ध मत पर शिव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा?
बाबा- जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्ध भारत ,चीन, जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं  ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था अतः शिवोत्तरतंत्र काल के शिव को बौद्धतंत्र में स्वीकार कर लिया गया और शिव की मूर्ति के स्थान पर शिवलिंग  की पूजा की जाने लगी।

रवि - शिवलिंग का शिव से कोई संबंध नहीं है, इसका सबसे बड़ा आधार क्या है?
बाबा-  सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग  का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है। शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और शिवलिंग  अथवा शिव मूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जिसका अर्थ यह लगाया जाने लगा था कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव बाद में बटुकभैरव के नाम से प्रसिद्ध हुए।

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