Sunday, 13 August 2017

143 बाबा की क्लास (प्रत्याहार और समर्पण )

143 बाबा की क्लास   (प्रत्याहार और समर्पण )

रवि- मन में आने वाले विचार कभी रुकते नहीं हैं, ये परमपुरुष के चिन्तन के समय भी दूर नहीं हटते, इससे क्या ध्यानक्रिया खंडित नहीं होती?
बाबा- मन में आने वाले विचारों और उन पर लिए गए निर्णयों के प्रवाह में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती है। लगातार अभ्यास के द्वारा निम्न वृत्तियों से मन को हटाकर अपने को उस परमसत्ता में जोड़ने का कार्य ‘‘प्रत्याहार‘‘ कहलाता है। इसे ही वर्णार्घ्य दान  , गुरुपूजा या रंगों का अर्घ्य  देना कहते हैं। इस प्रकार बाहरी रंगों के आकर्षण से मुक्त हुआ मन परमपुरुष के भव्य रंग से रंगकर उनसे ही जुड़ जाता है।

इन्दु- विचारों और रंगों का क्या साम्य है?
बाबा- विचार अर्थात् मानसिक तरंग, और रंग अर्थात् तरंग लम्बाई  । इसलिए ये परस्पर संबंधित हैं। सभी मनुष्यों का स्वभाव है कि वे किसी न किसी रंग, या गतिविधियों की ओर आकर्षित रहते हैं अतः ज्योंही वे उस रंग या गतिविधि का चिन्तन करते हैं उनका मन उन्हीं के रंग से रंग जाता है । इसलिए योग में अपने मन को परमपुरुष के रंग में रंगकर अर्थात् गहन चिन्तन करते हुए उसमें पहले के आकर्षणों से भरा रंग परमपुरुष को भेंट करना होता हैं यही सच्चा प्रत्याहार योग कहलाता है।

राजू- क्या मन में भरे विचारों अर्थात् रंगों को होली के रंगों के समान कहा जा सकता है?
बाबा- रंगों के त्यौहार अर्थात् बसन्तोत्सव का मूल उद्देश्य बाहरी रंगों से एक दूसरे को रंगना नहीं है वरन् उसका अर्थ है विभिन्न वस्तुओं और गतिविधियों के आकर्षण से रंगे हुए मन के सभी रंगों को परमपुरुष को भेंट कर देना। इस प्रकार प्रतिदिन यह करते हुए मन स्वच्छ और प्राकृतिक होकर उन परमपुरुष में ही मिल जाता है अर्थात् उनकी तरंग लम्बाई  के समानान्तर हो जाता है। इस अवस्था में मन को किसी रंग की आवश्यकता नहीं रह जाती वह अवर्ण अर्थात  रंगहीन हो जाता है और भौतिक जगत के  किसी भी रंग की पहुंच से परे हो जाता है।

चन्दु- तो क्या व्यक्तिगत मन का अस्तित्व नहीं रहता, वह समाप्त हो जाता है?
बाबा- व्यक्ति के मन का इकाई अहंकार परमसत्ता के अहंकार में बदल जाता है। इकाई मन हरओर उन्हीं की सत्ता और भव्यता का अनुभव करने लगता है और ‘‘ मैं ‘‘ के स्थान पर ‘‘तू‘‘ ही हो जाता है । मैं और तुम के बीच स्थायी संधी हो जाने से बीच में पड़ा दीर्घकालीन पर्दा भी हट जाता है। इस अवस्था में उस परमसत्ता को ‘‘मैं‘‘, ‘‘तू‘‘ या ‘‘वह‘‘  कुछ भी कहा जा सकता है यह मन के समर्पण के स्तर और अनुपात पर निर्भर करता है।

नन्दू- लेकिन अन्य विद्वान तो फलफूल, मिष्ठान्न या धन आदि को भेंट करने को ही समर्पण कहते हैं?
बाबा- यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि परमपुरुष को अपनी एकात्मता (अर्थात् तादात्म्य) को समर्पित करना होता है न कि धन, चावल, केले, या अन्य भौतिक पदार्थ। भौतिक वस्तुओं का देना और लेना तो धंधा कहलाता है। यदि ब्रह्म का रसास्वादन करना चाहते हो तो बिना शर्त अपने आप को उन्हें भेंट करना होगा। अर्थात् उस ब्रहद् ‘‘मैं‘‘ को पाने के लिए अपना छोटा ‘मैं‘‘ उन्हें भेट करना होगा। मन को शतप्रतिशत समर्पण करना होगा उसमें से एक भी प्रतिशत बचाकर अपने पास रखने से काम नहीं नहीं चलेगा।

रवि- क्या यह डाकुओं या चोरों द्वारा पुलिस के समक्ष किए जाने वाले आत्म समर्पण जैसा ही है?
बाबा- नहीं। अपने मन की एकाग्रता और सामर्थ्य  से उस अनन्त सत्ता को पाने के लिए आत्मसमर्पण करने का अर्थ यह नहीं है और न ही यह आत्महत्या है वरन् अपनी आत्मा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त करना है। महाभारत में जब दुर्योधन, द्रौपदी की साड़ी को खींच रहा था तब द्रौपदी अपने एक हाथ से उसे जोर से पकड़े हुए थीं और दूसरे हाथ से कृष्ण को बचाने के लिए पुकार रही थीं। परन्तु कृष्ण उनकी लाज बचाने नहीं आए । जब द्रौपदी को लगा कि अब अपने को बचाने का कोई उपाय बचा ही नहीं है तब उन्होंने दूसरा हाथ जिससे साड़ी को जोर से पकड़ रखा था वह भी छोड़ दिया और दोनों  हाथ ऊपर उठाकर जोर से चिल्लायी ‘‘ हे कृष्ण ! मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंपती हूँ , जो तुम्हारी इच्छा हो वही करो‘‘ और,  कृष्ण ने फिर देर नहीं की, तत्काल पहुंचकर बचा लिया। इसलिए बिना शर्त उनके पैरों में अपना सम्पूर्ण समर्पण करने से ही परमसुख मिलता है। इसलिए रंगों का उत्सव, रंगों के चूर्ण को एक दूसरे पर उछालना नहीं है वरन् अपने मन के आकर्षण और बाधक तत्वों को मनोआत्मिक पद्धति से परमपुरुष को समर्पित करना है।

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