Sunday, 27 August 2017

146 बाबा की क्लास ( साधना की सफलता हेतु क्रमागत पद )

146 बाबा की क्लास ( साधना की सफलता हेतु क्रमागत पद )

रवि- साधना की पूर्ण सफलता के लिए सही सही पहला स्टेप कौन सा है?
बाबा- अपने इष्ट मंत्र के जाप करने से पहले ‘दीपनी‘ और ‘मंत्रचैतन्य‘ का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा मंत्र जाप निष्फल हो जाता है।

राजू- दीपनी का अर्थ तो प्रकाश से संबंधित है?
बाबा- हाॅं, गहरे अंधेरे में लम्बी दूरी की यात्रा करने के लिए हमें टार्च लाइट की आवश्यकता होती है दीपनी वही टार्च लाइट है।

रवि- पर दीपनी है क्या?
बाबा- मन को सही रास्ता दिखाने वाली टार्च लाइट वास्तव में तंत्र की भाषा में ‘शुद्धियाॅं‘ कहलाती हैं जिनके नाम हैं भूत शुद्धि, चित्तशुद्धि और आसन शुद्धि। इन्हीं के सहारे मन को बाहरी संसार से खींच कर उचित स्थान पर आसन देने का कार्य किया जाता है।

नन्दू- जब दीपनी ही आवश्यक है तो मंत्र का महत्व क्या है?
बाबा- अंधेरे कमरे में रखी कोई वस्तु कितनी ही बहुमूल्य क्यों न हो, अपने आप दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार बहुमूल्य सिद्ध मंत्र भी दीपनी के बिना उचित रूप से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। व्यक्ति का इष्ट मंत्र ही उसे दीपनी अर्थात् शुद्धियों के सहारे आध्यात्मिक पथ पर प्रगति कराता है।

रवि- ‘ मंत्र ‘ और ‘ मंत्र चैतन्य ‘ एक ही होते हैं या अलग अलग?
बाबा- मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः प्रकीर्तितः। अर्थात् जिसके मनन करने से मुक्ति का मार्ग मिल जाता है वह मंत्र कहलाता है। बार बार मंत्र के दुहराये जाने से जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, परन्तु तोते की तरह दुहराना किसी काम का नहीं रहता। इसलिए मंत्रचैतन्य का महत्व बढ़ जाता है। मंत्र को उसके उचित अर्थ के साथ समझते हुए चिन्तन करना, मंत्रचैतन्य कहलाता है। यह चिन्तन ही आध्यात्मिक रास्ते पर प्रगतिदायक सिद्ध होता है।

इन्दु- मंत्र के अर्थ का चिन्तन करने का आशय क्या है?
बाबा- मंत्र का व्याकरणीय या सामान्य अर्थ समझने से काम नहीं चलता उसके भीतरी भाव पर विचार करते रहना होता है इसी को चिन्तन करना कहते हैं। जैसे , अंग्रेजी में ‘ लेमन‘ कहने पर अंग्रेजी जानने वाला समझ जाएगा और उसके खट्टेपन और अन्य प्रभावों पर विचार करते ही उसे लगने लगेगा कि जैसे उसे ‘लेमन‘ का स्वाद मिलने लगा हो। पर जो अंग्रेजी नहीं जानता वह उसके अर्थ और गुण समझे बिना लेमन लेमन कहेगा तो उसके मन में कोई अनुभूति नहीं होगी। मंत्र की सहायता से आध्यात्मिक पथ पर तीब्र प्रगति पाने के लिये हृदय से परमपुरुष के साथ गहरा और निकटता का संबंध जोड़ना पड़ता है जो मंत्रचैतन्य से सहज हो जाता है। जब परमपुरुष के साथ मंत्रचैतन्य प्राप्त कम्पन, चिंतन करने वाले व्यक्ति के हृदय से टकराता है तब वह परमपुरुष से दूर नहीं रहना चाहता और उनकी कृपा से आनन्दित ही बना रहना चाहता है।

चन्दू- मंत्र को जागृत करना क्या है?
बाबा- हाॅं, सामान्य व्यवहार में जिसे मंत्र को जागृत करना कहते हैं वही तन्त्रविज्ञान की भाषा में मंत्रचैतन्य कहलाता  है। मंत्रचैतन्य के बिना साधना करना केवल समय को नष्ट करना ही है।

राजू- ‘मंत्राघात‘ और ‘मंत्रचैतन्य‘ किस प्रकार भिन्न हैं?
बाबा- वास्तव में जप क्रिया में मंत्र को चिन्तन की जिन अवस्थाओं में से ले जाना होता है उनमें पहले मंत्रचैतन्य फिर मंत्राघात की स्टेज आती है।  चैतन्य मंत्र को श्वास के सहारे शरीर में स्थित ‘‘फंडामेंटल नेगेटिविटी‘‘ अर्थात् ‘‘प्रसुप्त देवत्व‘‘, जिसे तंत्रविज्ञान में ‘कुंडिलनी‘ कहा जाता है, पर आघात कराया जाता है इस क्रिया को ही मंत्राघात कहते हैं। याद रखें यह कोई पृथक से किये जाने वाली क्रिया नहीं है वरन् मंत्र जाप के साथ मनन के द्वारा स्वाभाविक रूप से होती जाती है ।

इन्दु- इसके बाद क्या होता है?
बाबा- मंत्राघात से उत्पन्न कम्पन मूलाधार में स्थित फंडामेंटल नेगेटिविटी अर्थात् प्रसुप्त देवत्व को जागृत कर देते हैं और परिणामी कम्पनों सहित वह सुषुम्ना नाड़ी से होते हुए ‘फंडामेंटल पाजीटिविटी‘ अर्थात् ‘शिव तत्व‘ जो सहस्त्रार में स्थित होता है से मिल जाते है और साधक अपार आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करता है। यह अवस्था देर तक बनी रहती है तो इसे ही समाधि की अवस्था कहते हैं। इस के पीछे यही विज्ञान है।

रवि- आपके द्वारा बतायी गई यह विधि तो मानसिक ही होती है, कोई व्यक्ति या साधक स्वयं यह कैसे जान सकता है कि उसकी आध्यात्मिक प्रगति हो भी रही है या नही?
बाबा- जब मंत्रचैतन्य के साथ जाप किया जाता है तो व्यक्ति के पूरे अस्तित्व से सात्विक अभिव्यक्तियां होने लगती हैं। मन में सात्विक भाव के उदय होने से दिव्यत्व का प्रवाह सभी संस्कारोें और प्रवृत्तियों को पार कर आनन्द उत्पन्न करता है और परमपुरुष की भावना जागृत हो जाती है। वे दिव्य गुण जो अभी तक अव्यक्त थे व्यक्त होने का अवसर पा जाते हैं और मन का अनुनाद नर्वस सिस्टम के साथ स्पंदित होने लगता है। यदि किसी की नाड़ियों के किसी प्रभाव के कारण यह अनुभतियां नहीं हो पाती हैं तो मानसिक कंपन शरीर की विभिन्न ग्रंथियों में मौलिक परिवर्तन कर देते हैं। यह अनुभूतियाॅं मौलिक रूप से आठ प्रकार की होती हैं जैसे, स्तंभ, कम्प, स्वेद, स्वरभेद, अश्रु, रोमांच, वैवर्ण, और चक्कर आना। इन मूल अभिव्यक्तियों से कुछ अन्य अनुभूतियां भी जुड़ी होती हैं जैसे, नृत्य, गीत, विलुंठन, रुदन, हुंकार, लारस्रवण, जिम्भन, लोकापेक्षा त्याग, अट्टहास, घूर्णन, हिक्का या हिचकी, शरीर को आराम मिलना, और गहरी श्वास लेना।

चन्दू- ये अनुभतियाॅं सभी आध्यात्मिक साधकों को होती हैं या किसी  विशेष को ?
बाबा- इस प्रकार की अनुभतियाॅं, (इनमें से सभी नहीं परन्तु एक दो) संस्कारों के अनुसार सभी लोग अनुभव करते हैं। जो कोई भी दीपनी, मंत्रचैतन्य और मंत्राघात के सहारे आगे बढ़ता है ब्रह्म कृपा धीरे धीरे बढ़ती जाती है, साधक का मन प्रेम तरंगों से भर जाता है जो उसके मन को विडोलित करने लगती हैं। उसका गला भावनाओं के समूह से रुंध जाता है और ओंठ मनोभावों से उत्साहित होते हैं । झुके हुए से शरीर और अश्रुओं से भरे नेत्रों में गले से केवल एक और केवल एक ही ( इष्टमंत्र का)  ध्वनिरहित स्वर निकल रहा होता है। इस स्वर में ब्रह्म के प्रति उसका आत्म समर्पण झलकता है, ब्रह्मकृपा हि केवलम्।

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