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"अधिक आयु के बुजुर्ग चिड़चिड़े और विवेकहीन क्यों हो जाते हैं।"
सामान्यतः जब लोग स्वस्थ और सक्षम होते हैं तब वे अपनी निम्न वृत्तियों पर अपने मानसिक बल से नियंत्रण रखे रहते हैं। जैसे, यदि कोई लोभी है तो वह इसे सभी के सामने प्रदर्शित नहीं करेगा। यदि किसी का मन गंदे विचारों से ही भरा रहता है तब भी वह सबके सामने गंदे वचनों को कहने से परहेज रखेगा। स्वस्थ अवस्था में लोग अपने मन और नाड़ी तन्तुओं के बल से उन विचारों पर नियंत्रण रखने में समर्थ होते हैं। परन्तु अधिक उम्र के होते होते उनकी यह नियंत्रण करने की क्षमता भी क्षीण होती जाती है। यही कारण है कि बहुत आयु हो जाने पर लोग विवेकहीन हो जाते हैं, वे वह कहने और करने लगते हैं जो उन्होंने भूतकाल में कभी नहीं किया या कहा। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह होता है कि वे सब उसके परिणाम के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं जो वे कह या कर रहे होते हैं। इस जहरीले व्यवहार से वे अपने ही परिवार में बोझ समझे जाने लगते हैं। वे अनजाने में अनावश्यक रूप से सब को मार्गदर्शन या नियंत्रण करते रहते हैं या फिर अविवेकी और क्रोधी हो जाते हैं इससे परिस्थितियाॅं और भी दूषित हो जाती हैं। इसका समाधान यह है कि यदि प्रारम्भ से ही ईमानदारी से नियमित साधना की जाती रहे तो आयु के बढ़ने पर भी मन आध्यात्मिक विचारों में लगा रहेगा और भौतिक रूपसे शरीर के कमजोर होने पर भी वे अपनी साधना करना जारी रख सकेंगे और शांत रहेंगे। इसके विपरीत वे जो आडम्बर करते हैं, उन इच्छाओं को युवावस्था में तो दबाए रहते हैं परन्तु बृद्धावस्था में मन की दुर्बलता उन नकारात्मक गुणों को सतह पर ला देती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उम्र के बढ़ने से इस प्रकार की वृत्तियाॅं जन्म लेती हैं वरन् यह कि अपनी युवावस्था में इन नकारात्मक वृत्तियों को वे अपने मन में पोसते रहे हैं जो सामाजिक दबाव वश वे उस समय प्रदर्शित नही कर सके और बृद्धावस्था आने पर उनके नाड़ी तन्तु और मन कमजोर पड़ जाने से इन पर से नियंत्रण हट जाने के कारण अब वे बाहर आने लगे हैं।
"अधिक आयु के बुजुर्ग चिड़चिड़े और विवेकहीन क्यों हो जाते हैं।"
सामान्यतः जब लोग स्वस्थ और सक्षम होते हैं तब वे अपनी निम्न वृत्तियों पर अपने मानसिक बल से नियंत्रण रखे रहते हैं। जैसे, यदि कोई लोभी है तो वह इसे सभी के सामने प्रदर्शित नहीं करेगा। यदि किसी का मन गंदे विचारों से ही भरा रहता है तब भी वह सबके सामने गंदे वचनों को कहने से परहेज रखेगा। स्वस्थ अवस्था में लोग अपने मन और नाड़ी तन्तुओं के बल से उन विचारों पर नियंत्रण रखने में समर्थ होते हैं। परन्तु अधिक उम्र के होते होते उनकी यह नियंत्रण करने की क्षमता भी क्षीण होती जाती है। यही कारण है कि बहुत आयु हो जाने पर लोग विवेकहीन हो जाते हैं, वे वह कहने और करने लगते हैं जो उन्होंने भूतकाल में कभी नहीं किया या कहा। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह होता है कि वे सब उसके परिणाम के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं जो वे कह या कर रहे होते हैं। इस जहरीले व्यवहार से वे अपने ही परिवार में बोझ समझे जाने लगते हैं। वे अनजाने में अनावश्यक रूप से सब को मार्गदर्शन या नियंत्रण करते रहते हैं या फिर अविवेकी और क्रोधी हो जाते हैं इससे परिस्थितियाॅं और भी दूषित हो जाती हैं। इसका समाधान यह है कि यदि प्रारम्भ से ही ईमानदारी से नियमित साधना की जाती रहे तो आयु के बढ़ने पर भी मन आध्यात्मिक विचारों में लगा रहेगा और भौतिक रूपसे शरीर के कमजोर होने पर भी वे अपनी साधना करना जारी रख सकेंगे और शांत रहेंगे। इसके विपरीत वे जो आडम्बर करते हैं, उन इच्छाओं को युवावस्था में तो दबाए रहते हैं परन्तु बृद्धावस्था में मन की दुर्बलता उन नकारात्मक गुणों को सतह पर ला देती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उम्र के बढ़ने से इस प्रकार की वृत्तियाॅं जन्म लेती हैं वरन् यह कि अपनी युवावस्था में इन नकारात्मक वृत्तियों को वे अपने मन में पोसते रहे हैं जो सामाजिक दबाव वश वे उस समय प्रदर्शित नही कर सके और बृद्धावस्था आने पर उनके नाड़ी तन्तु और मन कमजोर पड़ जाने से इन पर से नियंत्रण हट जाने के कारण अब वे बाहर आने लगे हैं।
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