148 बाबा की क्लास ( परमपुरुष की अनुभूति के छः स्तर )
इन्दु- जब परमपुरुष किसी संक्राॅंतिकाल में तारकब्रह्म या महासम्भूति के रूप में पृथ्वी पर आते हैं तो समकालीन व्यक्ति उन्हें किस प्रकार पहचान पाते हैं?
बाबा- सभी तो नहीं, परन्तु जिनके पूर्व संस्कार केवल इस भावना के कारण ही इस भौतिक मानव शरीर को उपलब्ध कराते हैं कि वे उनकी लीलाओं में सहभागिता दें, तो वे भक्त गण उन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव करते हैं; सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और कैवल्य।
रवि- ओह! यह सचमुच कितना दुर्भाग्यपूर्ण होता है कि कोई व्यक्ति महासम्भूति के पृथ्वी पर रहने के कुछ समय पूर्व या कुछ समय बाद में जन्मते हैं! परन्तु जो उनके कार्यकाल में ही पैदा होते हैं क्या वे इन अनुभूतियों को एक साथ अनुभव करते हैं या क्रमशः ?
बाबा- हाॅं, बिलकुल सही कहा। परन्तु वे सचमुच भाग्यशाली होते हैं जो तारकब्रह्म के साथ उनकी लीलाओं में सहभागी होकर आनन्द पाते हैं। वे लोग सामान्यतः अपने अपने संस्कारों के अनुसार क्रमशः या एक साथ सभी प्रकारों का अनुभव करते हैं।
चन्दु- ‘‘सालोक्य’’ का अनुभव किस प्रकार होता है?
बाबा- सालोक्य अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हैं कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष भी तारक ब्रह्म के रूप में धरती पर आए। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृजकृष्ण या पार्थसारथी कृष्ण के संपर्क में आया उसने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है और उन्हें देखकर ही अपार आनन्द पाता है। मजे की बात यह है कि दुर्योधन जो कि कृष्ण का जानी दुश्मन था वह भी अनुभव करता था कि कृष्ण साधारण व्यक्ति नहीं हैं यदि उनका साथ मिल गया तो युद्ध जीता जा सकता है। परन्तु , सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी। जैसे, कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे थे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृजकृष्ण में अन्तर स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वाॅंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।
राजू- तो ‘‘सामीप्य’’ का क्या अर्थ है, और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?
बाबा- सामीप्य अवस्था में लोग परमपुरुष के साथ इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृजकृष्ण के समीप आने वाले लोग अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थसारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृजकृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यक नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।
इन्दु- ‘‘सायुज्य’’ का अनुभव कैसा होता है?
बाबा- सायुज्य की स्थिति में उन्हें स्पर्श करना भी सम्भव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियाॅं साथ में नाचते , गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थसारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।
रवि- अद्भुद्! मैं दुखी हूँ कि मैं क्यों उनके साथ नहीं आया? बताइए परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति कौन सी है ?
बाबा- अगला स्तर कहलाता है ‘‘सारूप्य’’, इसमें भक्त यह सोचता है कि मैं न केवल उनके पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त, परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में प्रिय संबंध स्थापित करके साधना करते हैं। परमपुरुष को शत्रु के रूप में सम्बंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस। पर, यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम सम्बंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे ‘‘आराधना’’ कहते हैं और जो आराधना करता है उसे ‘‘राधा‘‘ कहते हैं, यहाॅं ‘‘राधा’’ का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया।
चन्दू- ‘‘ सार्ष्ठी ’’ का अनुभव क्या है?
बाबा- अनुभूति का अगला स्तर है ‘‘सार्ष्ठी ’’ इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो, मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। भक्त अनुभव करता है कि प्रभो! तुम और मैं इतने निकट है कि तुम मैं और मैं तुम हो गए हैं। अर्थात् कर्ता है कर्म है और सम्बंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। अर्थात् अत्यधिक निकटता, सार्ष्ठी का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का सम्बंध तो होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों में इसी द्वैत को महत्व देते हुए यह तर्क दिया गया है कि मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि शक्कर हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा!! इस प्रकार वे सार्ष्ठी को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। बृजकृष्ण के साथ सार्ष्ठी का यही अनुभव था परन्तु पार्थसारथी कृष्ण के साथ कुछ भिन्नता थी , वहाॅं भक्त अनुभव करता है कि हे प्रभो! तुमने मुझे विशेष रूप से अपना बना लिया है, मेरा पृथक अस्तित्व अब संभव नहीं है, मैं तो तुम्हारे हाथ का अस्त्र हूँ जैसा चलाओ वैसा ही चलने को तैयार हॅूं।
राजू- तो सर्वोच्च अवस्था में भक्त क्या अनुभव करता है?
बाबा- सर्वोच्च अवस्था में भक्त अनुभव करता है कि हे प्रभु केवल तुम ही हो इस अवस्था को ‘‘कैवल्य’’ कहते हैं । यही अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है। अर्जुन और कृष्ण का प्रेम बहुत गहरा था । अर्जुन ने ही सभी अनुभूतियाॅं, सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और कैवल्य क्रमशः अनुभव की तथा वास्तविक कृष्ण की अनुभूति प्राप्त की। परन्तु उन्हें बहुत ही कठिन प्रशिक्षण और कष्टों का सामना करना पड़ा। युद्ध क्षेत्र में जब उन्हें मानसिक दुर्बलता ने आ घेरा तो होश में आने से पहले उन्हें अत्यंत मानसिक भर्तृस्ना का सामना करना पड़ा तभी उन्होने कृष्ण को स्पष्टता और पूर्णता से अनुभव कर पाया और उनका जीवन फलदायी सिद्ध हुआ।
रवि- लेकिन अर्जुन ने ‘कैवल्य‘ का अनुभव कर पाया या नहीं ?
बाबा- ‘कैवल्य’ अर्थात् ‘‘पुरुषोत्तम अवस्था’’ का अनुभव करने से पहले अर्जुन और कृष्ण के बीच हल्की बातचीत हुई और अन्त में कृष्ण के पाॅंचजन्य शंख की तेज ध्वनि (वास्तव में ओङ्कार ध्वनि) के साथ उन्होंने कैवल्य का अनुभव किया। परन्तु बृजकृष्ण के द्वारा अपनी बांसुरी से अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार के लय और ध्वनि प्रसारित किए जाने से गोप गोपियों ने अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार की अनुभूतियाॅं की परन्तु सभी मधुर भाव में मग्न रहते थे। जब भक्त आध्यात्मिक उन्नति करने लगता है तब प्रारम्भ में झींगुर जैसी ध्वनि सुनता है परन्तु यह झींगुर की ध्वनि की तरह बीच में टूटती नहीं वरन् लगातार जारी रहती है , इसके बाद समुद्र के दहाड़ने जैसी , फिर बादलों के गरजने जैसी और अन्त में ओंकार ध्वनि सुनाई देती है। भक्तों को इसी अवस्था में ‘‘सार्ष्ठी ’’ का अनुभव होता है इसी को वे कृष्ण की बाॅंसुरी की मधुर ध्वनि कहते हैं। तथ्य की बात यह है कि जब हमारा मन तन्मात्राओं से उत्पन्न विभिन्न तरंग लम्बाइयों से ऊपर जाकर सभी प्रकार की वकृता से मुक्त होकर सरल रेखा में आ जाता है तब यह लगता है कि पार्थसारथी या बृजकृष्ण से अधिक सगा सम्बंधी कोई दूसरा है ही नहीं।
इन्दु- जब परमपुरुष किसी संक्राॅंतिकाल में तारकब्रह्म या महासम्भूति के रूप में पृथ्वी पर आते हैं तो समकालीन व्यक्ति उन्हें किस प्रकार पहचान पाते हैं?
बाबा- सभी तो नहीं, परन्तु जिनके पूर्व संस्कार केवल इस भावना के कारण ही इस भौतिक मानव शरीर को उपलब्ध कराते हैं कि वे उनकी लीलाओं में सहभागिता दें, तो वे भक्त गण उन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव करते हैं; सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और कैवल्य।
रवि- ओह! यह सचमुच कितना दुर्भाग्यपूर्ण होता है कि कोई व्यक्ति महासम्भूति के पृथ्वी पर रहने के कुछ समय पूर्व या कुछ समय बाद में जन्मते हैं! परन्तु जो उनके कार्यकाल में ही पैदा होते हैं क्या वे इन अनुभूतियों को एक साथ अनुभव करते हैं या क्रमशः ?
बाबा- हाॅं, बिलकुल सही कहा। परन्तु वे सचमुच भाग्यशाली होते हैं जो तारकब्रह्म के साथ उनकी लीलाओं में सहभागी होकर आनन्द पाते हैं। वे लोग सामान्यतः अपने अपने संस्कारों के अनुसार क्रमशः या एक साथ सभी प्रकारों का अनुभव करते हैं।
चन्दु- ‘‘सालोक्य’’ का अनुभव किस प्रकार होता है?
बाबा- सालोक्य अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हैं कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष भी तारक ब्रह्म के रूप में धरती पर आए। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृजकृष्ण या पार्थसारथी कृष्ण के संपर्क में आया उसने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है और उन्हें देखकर ही अपार आनन्द पाता है। मजे की बात यह है कि दुर्योधन जो कि कृष्ण का जानी दुश्मन था वह भी अनुभव करता था कि कृष्ण साधारण व्यक्ति नहीं हैं यदि उनका साथ मिल गया तो युद्ध जीता जा सकता है। परन्तु , सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी। जैसे, कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे थे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृजकृष्ण में अन्तर स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वाॅंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।
राजू- तो ‘‘सामीप्य’’ का क्या अर्थ है, और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?
बाबा- सामीप्य अवस्था में लोग परमपुरुष के साथ इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृजकृष्ण के समीप आने वाले लोग अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थसारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृजकृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यक नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।
इन्दु- ‘‘सायुज्य’’ का अनुभव कैसा होता है?
बाबा- सायुज्य की स्थिति में उन्हें स्पर्श करना भी सम्भव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियाॅं साथ में नाचते , गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थसारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।
रवि- अद्भुद्! मैं दुखी हूँ कि मैं क्यों उनके साथ नहीं आया? बताइए परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति कौन सी है ?
बाबा- अगला स्तर कहलाता है ‘‘सारूप्य’’, इसमें भक्त यह सोचता है कि मैं न केवल उनके पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त, परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में प्रिय संबंध स्थापित करके साधना करते हैं। परमपुरुष को शत्रु के रूप में सम्बंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस। पर, यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम सम्बंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे ‘‘आराधना’’ कहते हैं और जो आराधना करता है उसे ‘‘राधा‘‘ कहते हैं, यहाॅं ‘‘राधा’’ का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया।
चन्दू- ‘‘ सार्ष्ठी ’’ का अनुभव क्या है?
बाबा- अनुभूति का अगला स्तर है ‘‘सार्ष्ठी ’’ इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो, मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। भक्त अनुभव करता है कि प्रभो! तुम और मैं इतने निकट है कि तुम मैं और मैं तुम हो गए हैं। अर्थात् कर्ता है कर्म है और सम्बंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। अर्थात् अत्यधिक निकटता, सार्ष्ठी का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का सम्बंध तो होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों में इसी द्वैत को महत्व देते हुए यह तर्क दिया गया है कि मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि शक्कर हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा!! इस प्रकार वे सार्ष्ठी को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। बृजकृष्ण के साथ सार्ष्ठी का यही अनुभव था परन्तु पार्थसारथी कृष्ण के साथ कुछ भिन्नता थी , वहाॅं भक्त अनुभव करता है कि हे प्रभो! तुमने मुझे विशेष रूप से अपना बना लिया है, मेरा पृथक अस्तित्व अब संभव नहीं है, मैं तो तुम्हारे हाथ का अस्त्र हूँ जैसा चलाओ वैसा ही चलने को तैयार हॅूं।
राजू- तो सर्वोच्च अवस्था में भक्त क्या अनुभव करता है?
बाबा- सर्वोच्च अवस्था में भक्त अनुभव करता है कि हे प्रभु केवल तुम ही हो इस अवस्था को ‘‘कैवल्य’’ कहते हैं । यही अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है। अर्जुन और कृष्ण का प्रेम बहुत गहरा था । अर्जुन ने ही सभी अनुभूतियाॅं, सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और कैवल्य क्रमशः अनुभव की तथा वास्तविक कृष्ण की अनुभूति प्राप्त की। परन्तु उन्हें बहुत ही कठिन प्रशिक्षण और कष्टों का सामना करना पड़ा। युद्ध क्षेत्र में जब उन्हें मानसिक दुर्बलता ने आ घेरा तो होश में आने से पहले उन्हें अत्यंत मानसिक भर्तृस्ना का सामना करना पड़ा तभी उन्होने कृष्ण को स्पष्टता और पूर्णता से अनुभव कर पाया और उनका जीवन फलदायी सिद्ध हुआ।
रवि- लेकिन अर्जुन ने ‘कैवल्य‘ का अनुभव कर पाया या नहीं ?
बाबा- ‘कैवल्य’ अर्थात् ‘‘पुरुषोत्तम अवस्था’’ का अनुभव करने से पहले अर्जुन और कृष्ण के बीच हल्की बातचीत हुई और अन्त में कृष्ण के पाॅंचजन्य शंख की तेज ध्वनि (वास्तव में ओङ्कार ध्वनि) के साथ उन्होंने कैवल्य का अनुभव किया। परन्तु बृजकृष्ण के द्वारा अपनी बांसुरी से अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार के लय और ध्वनि प्रसारित किए जाने से गोप गोपियों ने अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार की अनुभूतियाॅं की परन्तु सभी मधुर भाव में मग्न रहते थे। जब भक्त आध्यात्मिक उन्नति करने लगता है तब प्रारम्भ में झींगुर जैसी ध्वनि सुनता है परन्तु यह झींगुर की ध्वनि की तरह बीच में टूटती नहीं वरन् लगातार जारी रहती है , इसके बाद समुद्र के दहाड़ने जैसी , फिर बादलों के गरजने जैसी और अन्त में ओंकार ध्वनि सुनाई देती है। भक्तों को इसी अवस्था में ‘‘सार्ष्ठी ’’ का अनुभव होता है इसी को वे कृष्ण की बाॅंसुरी की मधुर ध्वनि कहते हैं। तथ्य की बात यह है कि जब हमारा मन तन्मात्राओं से उत्पन्न विभिन्न तरंग लम्बाइयों से ऊपर जाकर सभी प्रकार की वकृता से मुक्त होकर सरल रेखा में आ जाता है तब यह लगता है कि पार्थसारथी या बृजकृष्ण से अधिक सगा सम्बंधी कोई दूसरा है ही नहीं।
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