Sunday 24 September 2017

154, बाबा की क्लास ( दृढ़ और स्वस्थ समाज की आवश्यकता )

154, बाबा की क्लास ( दृढ़ और स्वस्थ समाज की आवश्यकता )

राजू- आपने पिछली अनेक चर्चाओं में भूतकाल में धरती पर समय समय पर आए महापुरुषों के द्वारा दी गई महान शिक्षाओं की जानकारी दी है, परन्तु हजारों वर्ष बीतने के बाद भी समाज में मौलिक परिवर्तन नहीं हो पाया और न ही उनकी अमूल्य शिक्षाओं का पालन, इसका क्या कारण है?
बाबा- यह बात सही है कि इस ग्रह पर अभी तक प्रबल और स्वस्थ मानव समाज का निर्माण नहीं हो पाया है। इसका मुख्य कारण है किसी आदर्श दर्शन का उपयुक्त प्रसार न हो पाना। यद्यपि समय समय पर कुछ महापुरुषों  ने प्रबल और स्वस्थ मानव समाज की स्थापना करने का विचार किया परन्तु , उनका प्रयास आदर्श की स्थापना के स्थान पर अपनी स्वयं की महत्ता को प्रतिष्ठित करने तक ही सीमित रह गया। इस प्रकार आदर्श की स्थापना पीछे खिसक गयी और उन्होंने अपने आप को महात्मा और महापुरुषों के रूप में प्रचारित कर स्वयं को ही पूजा करने योग्य घोषित कर दिया। अतः आदर्श के अभाव में प्रबल मानव समाज की स्थापना नहीं हो सकी और व्यक्तिगत जीवन में भी अनेक प्रकार के दोषों ने जन्म ले लिया।

रवि- इसका मूल कारण वे महापुरुष स्वयं हैं या उनके अनुयायी?
बाबा- इस धरती पर अनेक सन्त, ऋषि और महापुरुष आए और मनुष्यों को आदर्श और धर्म की शिक्षाएं दी परन्तु उनके शिष्यों ने बार बार उन शिक्षाओं से किनारा कर केवल उनकी जादुई कहानियों और चमत्कारों को ही प्रचारित किया जिनके आधार पर ही जन सामान्य को सबसे अधिक ठगा जाता रहा।

नन्दू- परन्तु आपने बताया था कि आज से 7000 हजार वर्ष पूर्व, महासम्भूति ‘‘लार्ड शिव ’’ आये तब उन्होंने तन्त्रविज्ञान, वैद्यक शास्त्र, ध्यान, संगीत, कला, समाज निर्माण आदि पर अनेक शिक्षायें दी थी तो उनका प्रभाव क्यों नहीं पड़ा?
बाबा- यह बिलकुल सत्य है कि भगवान सदाशिव ने तत्कालीन समाज को सुव्यवस्थित ढंग से जीवन जीने के विज्ञान को सिखाने के लिए विश्व के प्रत्येक कोने का भ्रमण किया और जिस स्थान पर जिस भी कौशल को समझने और समझा पाने की योग्यता धारक व्यक्ति उन्हें मिला उसे उन्होंने प्रशिक्षित कर समाज को शिक्षित करने का दायित्व सौप दिया । जैसे, मनुष्य की मूल आवश्यकताएं हैं भोजन, आवास, चिकित्सा, शिक्षा और मनोरंजन। इसलिए उन्होंने सबसे पहले ‘नन्दी’ को कृषि और पशुपालन के कार्य में प्रशिक्षित कर अन्य सभी को सिखाने का कार्य सौपा। यहां वहां नदियों के किनारे भटकने या गुफाओं में रहने के स्थान पर घरों का निर्माण और पानी के लिये कुओं के निर्माण की तकनीकि अर्थात् स्थापत्य कला में ‘विश्वकर्मा’ को दक्ष बनाया तथा समाज के अन्य लोगों को सिखाने के लिये आदेश दिया। समाज के सभी लोग स्वस्थ रहें इसके लिये ‘धन्वन्तरी’ को आयुर्वेद में प्रशिक्षित किया और कहा कि वह अन्य अनेक लोगों को इस विद्या में दक्ष करें। एक ही प्रकार का काम करते हुए लोग ऊब का अनुभव न करें इसलिए ‘भरत’ को संगीत अर्थात् नृत्य, वाद्य और गीत की कला में प्रवीण कर अन्यों को सिखाने के लिये कहा। मानव जीवन के सर्वोच्च आदर्श ‘आत्मसाक्षात्कार‘ करने की विद्यातन्त्र विधियों में अपने पुत्र ‘‘भैरव‘‘ और पुत्री ‘‘भैरवी’’ को प्रशिक्षित कर समाज में अन्य लोगों को शिक्षित करने भेजा और अपने अन्य पुत्र ‘‘कार्तिकेय’’ को इन सभी कार्यों  के पर्यवेक्षण का काम सौपा । परन्तु ज्योंही उन्होंने धरती को छोड़ा उनके अनुयायियों ने भगवान शिव के चमत्कारों और कहानियों को प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया और जनता को उनकी यथार्थ शिक्षाओं से वंचित कर उनके मन में ‘‘डोगमा’’ केन्द्रित अंधानुकरण भर दिया और वे उनकी शिक्षाओं के बिलकुल उल्टा करने लगे। धर्म साधना करने के स्थान पर वे उनकी मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे। इससे समाज का अहित हुआ , उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, वह अंधानुकरण की ओर प्रवृत्त हो गया और शिव के द्वारा स्थापित आदर्श को सदा के लिए भुला दिया गया ।

चन्दू- लेकिन भगवान कृष्ण तो सचमुच चमत्कारों का प्रदर्शन अपने जन्म के समय से ही करते रहे, क्या यह गलत है?
बाबा- तुम्हारा कहना ढीक है। जब आज से 3500 वर्ष पूर्व, महासम्भूति ‘‘लार्ड कृष्ण’’ आये, तो तत्कालीन छोटे छोटे राज्यों में विभक्त समाज में अपने अपने वर्चस्व की लड़ाइयाॅं जारी थीं उनसे मुक्त कर, सुसंगठित महाभारत की रचना करने के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि सभी लोग एक ही आदर्श की स्थापना करने के लिए संकल्पित हों और यम, नियम , आसन , प्राणायाम, योग और ध्यान आदि का अभ्यास करते हुए अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुचें। परन्तु यही उनके साथ हुआ। उनके अनुयायियों ने उनकी जादुई और चमत्कारिक कहानियों को तो प्रचारित किया परन्तु उनके आदर्श को भुला दिया। सरलीकरण का बहाना कर उनकी मूर्तियां बनाकर पूजने की स्वार्थमयी विधियों की कल्पना कर भ्रमित किया जाने लगा। उनकी मौलिक शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत चलने के कारण समाज को अपार क्षति का सामना करना पड़ा। उनकी जादुई कथाओं के कारण उनकी सभी शिक्षाओं को भुला दिया गया और जनता अंधेरे में भटकने लगी। भगवान शिव और कृष्ण के द्वारा दिये गए दर्शन को उनकी जादुई कथाओं की तुलना में महत्व ही नहीं दिया गया अतः जनसाधारण उन्हें सीखने से वंचित हो गया।

इन्दु- क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि साक्षात् परमपुरुष ने जब मानव जीवन का मूल उद्देश्य योग साधना कर आत्म साक्षात्कार करना ही प्रतिपादित किया है तो फिर उपासना की इस पवित्र पद्धति में आत्मघातक विकृतियाॅं कैसे आ गईं?
बाबा- वैसे तो मनुष्यों में एक हजार प्रकार की मनोवृत्तियाॅं होती हैं परन्तु लोभ, मोह , स्वार्थ और वासना की जड़ें बहुत ही गहरी हैं जिनके प्रभाव में वे केवल धन, पद , प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य के साधनों को ही पाने के उपाय और कार्य करते हैं। इस दुर्बलता को पहचान कर कुछ चतुर लोगों ने बिना परिश्रम किये दूसरों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए नये नये देवी देवताओं की कल्पना कर उनकी पूजा करने की विधियों को भी बना लिया। कोई धन देने के लिए ,कोई रोगों को नाश करने के लिए, कोई शत्रुओं को नष्ट करने के लिए, कोई पद और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए अनेक आकार प्रकार के देवताओं की मूर्तियाॅं बनाकर वे उनकी पूजा कराने लगे । यदि सावधानी  से उनकी विधियों और उन्हें प्रसन्न करने के तथाकथित मंत्रों और स्तुतियों पर चिन्तन किया जाय तो पता चलेगा कि उनमें से यदि कुछ लाइनें, जिनमें उनके मन वाॅंछित फल, धन , पद और अन्य  कामनाओं की पूर्ति की गारंटी दी गई है, हटा दी जाएँ  तो शायद ही फिर वे कभी उनकी पूजा करने जायें। तात्पर्य यह है कि उन देवताओं से उनको तभी तक मतलब है जब तक वे उन्हें चाही गई वस्तुएं प्रदान करते हैं अन्यथा नहीं । स्पष्ट है कि इस प्रकार की शिक्षाएं अपने मूल उद्देश्य से भटकेंगी ही।

रवि- पर मानव समाज के इतिहास में शिव और कृष्ण के बाद भी तो अनेक महापुरुष आए हैं उन्होंने क्यों कुछ नहीं किया?
बाबा- आज से 2500 वर्ष पूर्व हुए  ‘लार्ड महावीर और बुद्ध’ ने भी पशुओं की हत्या नहीं करने और शांति सद्भाव से धर्मसाधना करने की शिक्षा दी परन्तु उनके साथ भी यही हुआ। उनकी शिक्षाएं भुलाकर जादुई कहानियों में जन साधारण को उलझाये रखा गया  यही कारण है कि वे सब उनकी शिक्षाओं के विपरीत ही कार्य करने लगे। उनकी मूर्तियाॅं बनाकर उनकी ही पूजा करने लगे और ईश्वर के नाम पर पशुओं की बलि देने लगे। आज से 2017 वर्ष पूर्व प्रभु यीशु और 1447 वर्ष पूर्व मोहम्मद पैगम्बर धरती पर आए जिन्होंने भी पूर्व महापुरुषों की भांति केवल एक निराकार सत्ता को सर्वोपरि मानकर समर्पण भाव से उन्हें पाने की विधियाॅं सिखाईं परन्तु उनके साथ ही वही हुआ जो उनके पूर्ववर्तियों का हुआ। उनकी शिक्षाओं का पालन करने के स्थान पर उनकी चमत्कारिक शक्तियों को बताकर उन्हें ही पूजा जाने लगा और अपने को श्रेष्ठ कहकर अत्याचारों को प्रश्रय दिया जाने लगा। इनके बाद के भी किसी भी महापुरुष का उदाहरण ले लो चाहे वह शंकराचार्य हों  या चैतन्य महाप्रभु, कबीर हों या रहीम, तुलसीदास हों या सूरदास, सभी महापुरुषों की शिक्षाओं का यही हाल हुआ है। सभी का कारण एक ही था कि उनके द्वारा स्थापित आदर्श का तर्क , विज्ञान और विवेक पर आधारित सही सही प्रचार और प्रसार नहीं किया गया । इसलिये सबल और स्वस्थ समाज निर्माण करने के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है योग्य और जानकार व्यक्ति के द्वारा सच्चे आदर्श की सही व्याख्या करना और उसका प्रचार प्रसार करना।

इन्दु- धरती पर प्रचलित तथाकथित धर्मो ( वास्तव में मतों ) में विद्वेश की भावना क्यों भरी हुई है?
बाबा- सामान्य मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में अलग अलग मतों या धर्मों के लोग दूसरे मतों या धर्मों को नष्ट करने में लगे हैं। इससे खून की नदियाॅं बहने लगी हैं। प्राचीन भारत में आर्यों ने आस्ट्रिक समाज पर वैदिक धर्म को थोपना चाहा। बुद्धकाल में विशेषतः राजा बिंबिसार के समय बौद्ध धर्म को अन्य धर्मों पर लादने का कार्य किया गया। इसके बाद सनातन हिन्दुओं ने बौद्धों और जैनों को बलपूर्वक हिन्दु धर्म में खींचा। इसी प्रकार असंख्य यहूदियों को ईसाई धर्म में बदला गया। अंग्रेजों के शासन काल में क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा भारत के मूलनिवासियों को हिन्दु धर्म से ईसाई धर्म में लाने के प्रयास किये जाते रहे। मुसलमानों के शासन में इस्लाम को भारत, पेरिस, और इजिप्ट में थोपा गया। यही कारण है कि संसार के सभी धर्मो में विद्वेश की भावना भरी हुई है।

राजू- तो इन परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए?

बाबा- सर्वप्रथम तो तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर महासम्भूतियों द्वारा प्रतिष्ठित पराज्ञान को केन्द्रित कर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। फिर जीवन यापन के लिये समुचित सात्विक साधनों का उपयोग करते हुए आदर्श की स्थापना करने के लिए स्वयं द्रुत गति से आगे बढ़ना चाहिए और अन्य सभी को भी इस आदर्श को अच्छी तरह समझा कर उसके अनुसार आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यही सबल, स्वस्थ और सद्विप्र समाज के निर्माण की प्रारंभिक आवश्यकता है, इसकी पूर्ति करने पर ही हम अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त हो सकेंगे।

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