Sunday, 20 August 2017

145 बाबा की क्लास ( उच्चतर साधना )

145 बाबा की क्लास  ( उच्चतर साधना ) 

रवि- आपके अनुसार हमें दिव्य जीवन जीने के लिए परमपुरुष के साथ कैसा सम्बंध बनाना चाहिए?
बाबा- दिव्य जीवन के रास्ते में जैसे जैसे परमपुरुष से प्रेम अर्थात् भक्ति में वृद्धि होती जाती है यह संबंध भी बदलते जाते हैं परन्तु अन्त में दास्य या मधुर भाव ही उत्तम लगने लगता है।

राजू- इस प्रकार के संबंध या भाव के क्रमागत स्तर कौन कौन हैं?
बाबा-  भक्ति के पहले स्तर पर साधक परमपुरुष को इस ब्रह्माॅंड में कहीं अन्य जगह पर रहने वाला मानता है और वह उनके साथ अपना व्यक्तिगत संबंध होने का अनुभव नहीं कर पाता, वह उन्हें किसी न्यायालय का न्यायाधीश जैसा मानता है। जब भक्ति का स्तर कुछ बढ़ जाता है तो वह परमपुरुष के साथ अपना संबंध पिता की तरह मानते हुए अनुभव करता है कि मैं और परमपुरुष की ये सृष्टि एक ही परिवार के सदस्य हैं, वह मेरे पिता हैं और मैं पुत्र। इस स्तर पर प्रेम, आदर और व्यक्तिगत संबंध तो अनुभव होता है परन्तु भक्त इतना अधिक निकट नहीं हो पाता कि वह उनसे वह सब कुछ कह सके जो वह कहना चाहता है।

इन्दु- तो क्या इसके अलावा कोई दूसरा संबंध हो सकता है?
बाबा- कुछ भक्त वात्सल्य भाव को मानते हुए देखे जाते हैं जिसमें वे परमपुरुष को अपने पुत्र की तरह पारिवारिक संबंध बनाते हैं, पर यह भी बहुत निकटता का संबंध नहीं माना जाता। सूरदास जैसे अनेक भक्त इसी भाव में संबंध बनाकर भक्ति करते रहे हैं।

चन्दू- जब उनसे  अपना बहुत निकटता का ही संबंध बनाना है तो क्या उन्हें अपना मित्र नहीं बनाया जा सकता?
बाबा- क्यों नहीं, यह साख्य भाव कहलाता है, इस संबंध में भक्त अपने मन की बातें और भावनाएं उनके साथ अधिक निकटता से कह पाता है। अनेक भक्त जैसे अर्जुन इसी प्रकार का संबंध बनाए रहे हैं।

नन्दू- तो क्या साख्य भाव ही सबसे उत्तम है?
बाबा- भक्ति के उच्चतम स्तर पर ये सभी भाव दास्य भाव या मधुर भाव में बदल जाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके आन्तरिक संस्कार कैसे रहे हैं और वह उनका ध्यान कैसे करता है।

रवि- ये दास्य और मधुर भाव क्या हैं?
बाबा- दास्य भाव में भक्त परमपुरुष को अपना स्वामी और स्वयं को उनका सेवक मानता है, इस अवस्था में वह अपना छोटा बड़ा हर कार्य अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिए ही करता है। इस प्रकार का संबंध परमपुरुष राम और भक्त हनुमान के बीच था। जबकि मधुर भाव परमपुरुष के साथ सबसे अधिक प्रेम भरा संबंध है, इसमें भक्त परमपुरुष को अपने सबसे अधिक प्रिय के रूप में स्वीकार करता है। मीराबाई जैसे अनेक भक्त इसी श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार अपनी शुद्ध आन्तरिक भावनाओं के अनुसार ही यह संबंध होते हैं न कि बाहरी प्रदर्शन के लिए।

राजू- भक्ति का जो भी भाव किसी को अच्छा लगता हो उसे स्थापित करने के लिए क्या किसी की मध्यस्थता आवश्यक होती है?
बाबा- अंधानुकरण करने वाले लोग इस प्रकार के संबंधों को पचा नहीं सकते कि परमपुरुष के साथ इतने निकटता का संबंध भी हो सकता है। वे परमपुरुष को किसी सातवें आसमान में बने स्वर्ग का निवासी मानते हैं अतः उनके अनुसार इतनी अधिक दूरी के कारण उनसे व्यक्तिगत संबंध बना पाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । चूंकि उनके अनुसार परमपुरुष से हमारा सीधा संबंध नहीं हो सकता इसलिए वे किसी की मध्यस्थता की आवश्यकता बताते हैं। और, यह मध्यस्थता पुजारी या पुरोहित ही कर सकते हैं उनके बिना पूजा निरर्थक और फलहीन मानी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा और संबंध केवल मूर्ख बनाकर भोले भाले लोगों को ढगने के लिए ही होते हैं , भक्ति मार्ग में इनका कोई स्थान नहीं है। इसलिए याद रखो कि युगों से अनेक भक्तों ने परमपुरुष के साथ अपना प्रेमभरा निकटता का सबंध बनाकर उन्हें अनुभव किया है जिनके कुछ उदाहरण अभी बताए जा चुके हैं।

नन्दू- आपने एक बार राधा भाव की चर्चा की थी, क्या वह भाव इन सब से भिन्न है ?
बाबा- जैसे जैसे भक्त परमपुरुष की ओर बढ़ता है उसका मन अधिक उन्नत होता जाता है । इस प्रकार उन्नति के सूक्ष्म स्तर पर यह अत्यधिक एकाग्र मन तेजी से उनकी ओर चलने लगता है, मन की इस अवस्था को ही  राधा भाव कहते हैं । यह भाव क्या है? जब साधक अपने हृदय की गहराई में यह समझने लगता है कि अपने प्रभु को पाए बिना उसका जीवन व्यर्थ है अर्थात् वे एक क्षण भी उनकी निकट उपस्थिति के बिना नहीं रह सकते तब कहा जाता है कि उस भक्त ने ‘‘राधा‘‘ भाव को पा लिया। इस प्रकार के भक्त अपना पूरा मन परमपुरुष में ही गहराई से मिला लेते हैं,  उनके इस कार्य को ही ‘‘आराधना‘‘ कहते हैं।

इन्दु- तो बृन्दावन की राधा कोई अन्य थीं?
बाबा- राधा, बृन्दावन की कोई महिला नहीं थी, अभी बताए गए अनुसार बहुत ही उच्च स्तर पर पहुंचे भक्त ही राधा कहलाते हैं चाहे वे पुरुष हों या महिला। इसी प्रकार कृष्ण भी बृन्दावनवासी कोई पुरुष नहीं थे इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

चन्दू- तो गोपियाॅं क्या थीं? क्या गोपी भाव भी पृथक भाव है?
बाबा- हाॅं, गोपी भाव भी दो स्तर का होता है , जब भक्त अभी भी प्रयासरत होता है कि वह गोपी भाव में स्थापित हो जाए तो वह निचला स्तर और जब भक्त बिना किसी प्रयास के अर्थात् स्वाभाविक ही, सदा ही गोपी भाव में स्थापित रहता है उसे उच्च गोपी भाव कहते हैं। इस उच्च स्तर के गोपी भाव को ही राधा भाव कहते हैं। इस प्रकार का भाव प्राप्त भक्त परमपुरुष को बिना शर्त प्रेम करता है, वह सोचता है कि परमपुरुष उसे प्रेम करें या नहीं वह तो उनसे ही प्रेम करता रहेगा, यह भक्ति की पराकाष्ठा कहलाती है। बृज की गोपियाॅं इसी भाव में रहती थीं इसीलिए इसे गोपी भाव कहा जाता है। 

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