250 सफलता का रहस्य
प्रायः लोग कहते पाए जाते हैं कि मैं तो बहुत परिश्रम करता हॅूं, कोई कसर नहीं छोड़ता पर पता नहीं क्यों सफलता नहीं मिलती। अथवा, मैं जो भी काम करता हॅूं हमेशा निष्फल ही रहता हॅूं, पता नहीं किन नक्षत्रों का प्रभाव है, आदि आदि। इस प्रकार के लोग घबराकर ज्योतिषियों और टोने टोटके करने वालों के चंगुल में फंसकर अपना परिश्रम, समय और धन व्यर्थ ही व्यय करते देखे जाते हैं। ‘‘निगमागम’’ में शिव पार्वती के संवाद के रूपक से इस समस्या को इस प्रकार समझाया गया है...
पार्वती ने शिव से पूछा, ‘‘ जीवन में हर प्रकार की सफलता (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) पाने के लिए कौन कौन से घटक सहयोग करते हैं?’’
शिव ने कहा, पहला घटक है, 'यह दृढ़ निश्चय होना कि अपने उद्देश्य में अवश्य ही सफल होऊंगा'। (जब कोई प्रतिज्ञा करता है तो जोर से निःश्वास खींचकर कहता है। इस जोर लगाकर विशेष प्रकार की श्वास लेने को ‘विश्वास’ कहा जाता है, वि - श्वस् + घ¥ = विश्वास, अर्थात् मूल क्रिया ‘श्वस्’ में उपसर्ग ‘वि’ लगाकर ‘घ¥ प्रत्यय को जोड़ने से ‘विश्वास’ बनता है) .
दूसरा घटक है, ‘श्रद्धा’, जिसकी ओर जाना चाहते हैं उसके प्रति श्रद्धा नहीं होगी तो कार्य सिद्ध नहीं होगा। ( श्रत्+ धा = श्रद्धा अर्थात् सत्य का अनुसरण करने वाले जिसे सत्य के रूप में मानते हैं वह)।
तीसरा है, ‘गुरुपूजन’ अर्थात् जिससे सीखते हैं, निर्देशन प्राप्त करते हैं उसके आदेशों का पालन करना और उसके प्रति श्रद्धा रखना।
चौथा है, ‘समताभाव’ अर्थात् बेलेंस्ड माइंड। (अर्थात् प्रत्येक समय बिना मनमुटाव के, विद्वेष रहित होकर ही व्यवहार करना होगा, क्रोधित होकर बात करने से मन का संतुलन बिगड़ जाता है अतः इससे सदा ही दूर रहना चाहिए।)
पाॅंचवां है, ‘इंद्रियनिग्रह’ अर्थात् अपने आप पर नियंत्रण रखना। (अपने आप पर नियंत्रण रखने से यह बोध जागता रहता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं, शुद्ध तथा अशुद्ध और नित्य तथा अनित्य का ज्ञान इसी नियंत्रण से पाया जा सकता है।)
छठवां है, ‘प्रमित आहार’ अर्थात् सीमित परन्तु पुष्टिकारक भोजन करना।
यह कहकर शिव चुप हो गए तब पार्वती ने पूछा, ‘‘सातवां घटक क्या है?’’ वे बोले , ‘सातवां है ही नहीं।’ संस्कृत में इसे निम्नाॅंकित श्लोक से समझाया गया है।
‘‘फलिष्यतीति विश्वासः सिद्धेर्प्रथमलक्षणम्, द्वितीयं श्रद्धायुक्तं तृतीयं गुरुपूजनम् ।
चतुर्थो समता भावो पंचमेन्द्रियनिग्रहः, षष्ठंच प्रमिताहारः सप्तमं नैव विद्यते।’’
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