Monday 27 May 2019

249 परमपुरुष की निकटता
परमपुरुष को धनात्मक और ऋणात्मक दोनों पद्धतियों से पाया जा सकता है। धनात्मक पद्धति में उनके साथ अपना निकटतम संबंध या मित्र बना लिया जाता है जबकि ऋणात्मक पद्धति में उनके साथ शत्रुता स्थापित की जाती है। जब हम उनके साथ अपना निकटतम संबंध बनाते हैं तब हम उनके प्रति समर्पित होकर प्रत्येक कार्य (चाहे वह छोटा हो या बड़ा, अच्छा हो या बुरा) उन्हीं की प्रसन्नता के लिए करते हैं। परन्तु, जब शत्रुता का संबंध होता है तब हम अपने अहंकार के वशीभूत होकर उन्हें तुच्छ समझते हैं, अपने सामने उन्हें अस्तित्वहीन मानते हैं और जो भी कार्य करते हैं अपने और केवल अपने हित के लिए ही करते हैं। इतिहास के पृष्ठों में हमें धनात्मक पद्धति का पालन करने वालों में ऋषियों और मुनियों के अलावा सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि अनेक भक्तों के नाम मिलते हैं और ऋणात्मक पद्धति का पालन करने वाले तथाकथित राक्षसगणों के अलावा रावण तथा कंस आदि दुष्टों  के नाम मिलते हैं।
परमपुरुष की एक विशेषता यह है कि वह किसी से घृणा नहीं करते अतः वे दुष्ट,पापी, और भक्त तथा धर्मात्मा सभी को चाहते हैं। उनका वचन है कि "यदि कोई महान दुराचारी भी अनन्यभावना से उनकी शरण में आ जाता है तो वह भी भवबंधन से मुक्त हो जाता है"। स्पष्ट है कि शरणागत हुए बिना न तो धर्मात्मा को और न ही दुष्टात्मा को उनकी निकटता मिल पाती है। इसलिए यह भी स्पष्ट ही है कि धनात्मक पद्धति का पालन करने  ही बुद्धिमत्ता है क्योंकि ऋणात्मक पथगामी पापाचारी दुष्ट को अन्त में अपार कष्ट भोगना पड़ता है और कालान्तर में हजारों वर्ष तक लोग उसे निन्दा के फंदे पर झुलाते रहते हैं। मानव समाज इस प्रकार के लोगों को कभी क्षमा नहीं करता।

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