Tuesday 21 May 2019

248 सुख, दुख और सत्य

248 सुख, दुख और सत्य
संसार में प्रचलित अनेक मतों में ‘दुखवाद’ वह मत है जिसके अनुसार मनुष्य जीवन के प्रारंभ, मध्य और अन्त में दुख ही दुख भरा हुआ माना गया है, पर यह पूर्ण सत्य नहीं है। चॅूंकि जन्म के क्षण ही मृत्यु का बीज भी साथ आ जाता है इसलिए बुढ़ापा, कष्ट, रोग आदि स्वाभाविक हैं। ‘स्पेस टाइम’ में बंधा हर अस्तित्व धनात्मक और ऋणात्मक स्पंदनों के साथ दोलन करता हुआ रात के बाद दिन का होना देखता ही है उसी प्रकार दुख के बाद सुख का उदय होना भी स्वाभाविक ही है। सदा ही दुख या सदैव सुख कभी नहीं रह सकते । मनुष्य के गतिमान जीवन का दूसरा और माधुर्यपूर्ण पक्ष है उसका लक्ष्य। उद्देश्यविहीन परिभ्रमण व्यर्थ होता है और अन्त में तथाकथित दुख देता है।
शास्त्र कहते हैं ‘‘ अनुकूलवेदनीयम सुखम्, प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्’’। मनुष्य की शारीरिक संरचना के अलावा मानसिक संरचना भी होती हैं जिसमें मनुष्य के संस्कारों की रचना होती रहती है। मनुष्य जो कर्म करता है उसके उचित फल मिलने तक वह संस्कार के रूप में संचित बना रहता है। इस प्रकार पृथ्वी पर असंख्य काल्पनिक अभिव्यक्तियों में से जिस अभिव्यक्ति के साथ किसी का मानसिक संस्कार साम्य बना लेता है तब वह अनुकूलता का अनुभव कर सुख की अनुभूति करता है और यदि असाम्य की स्थिति में प्रतिकूलता का अनुभव करता है तो कहने लगता है बहुत दुखी हॅूं। इससे स्पष्ट होता है कि एक ही चीज सभी के लिए दुखकर नहीं भी हो सकती है। एक कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर मुंह में खरोंच लगने से निकले खून के स्वाद से सुख पाता है पर मनुष्य के लिए तो यह सुख नहीं कहा जा सकता। शुद्धोधन ने चाहे कितनी ही चेष्टा क्यों न की हो प्रकाश और छाया की तरह बुद्ध के जीवन में सुख और दुख आए ही ।
दुखवादी दर्शन कहता है कि कभी कल्याण नहीं होता, जिसका अर्थ है दुखवाद को जकड़े रहकर सदा अकल्याण को ढोए जाना। प्रगतिशील रहने के लिए मनुष्य परिवर्तन चाहता है और ‘चक्र’ गतिशील जीवन का प्रतीक है इसीलिए कहा गया है ‘चक्रवत् परिवर्तन्ते दुखानि सुखानि च’। यदि चक्र का ऊपरी भाग अभी ‘दुख’ प्रदर्शित करे तो निश्चय ही अगले कुछ क्षणों में निचला ‘सुख’ प्रदर्शित करने वाला भाग ऊपर आ जाएगा। ‘सत्य’ वह है जो सदा अपरिवर्तित रहे। ‘‘स्पेस, टाइम और पर्सन’’ में सीमाबद्ध यह जगत परिवर्तनशील है क्योंकि इन तीन में से किसी एक के बदल जाने से सब कुछ बदल जाता है। परन्तु मानव जीवन का लक्ष्य, ‘‘निर्पेक्ष सत्य’’ इस सबसे प्रभावित नहीं होता वह सदा अपरिवर्तित रहता है । परन्तु सभी सीमाबद्ध अस्तित्व सापेक्षिक हैं, इसलिए सत्य का स्थान अभिन्न रूप से इन सबसे जुड़ा हुआ है अतः उसे खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, घरबार छोड़ने की तो बिल्कुल नहीं।
‘‘बुद्ध’’ सत्य की खोज में घर छोड़कर निकले और वेदविरोधी मगध की ओर आए। वे वहाॅं आकर ऐसी शिक्षा देना चाहते थे जो वेद को चुनौती दे सके अतः उन्होंने संजय नामक पंडित के पास आकर ‘‘कपिल दर्शन’’ सीखा। अब प्रश्न है कि कपिल दर्शन सीखने के लिए इतनी दूर जाने की आवश्यकता क्या थी? सिद्धार्थ को किसी ऐसे पंडित की शिक्षा नहीं मिली जो उन्हें गृहत्याग और उससे संबंधित कर्म से विरत करता; इसका कुप्रभाव परिवर्ती काल में समाज पर यह हुआ कि अनेक युवकों को बौद्धों ने जबरदस्ती सन्नयासी बना दिया जिसका फल अच्छा नहीं हुआ।
फिर भी, राजा का पुत्र होते हुए भी उन्होंने भिक्षापात्र हाथ में लिया, व्यक्तिगत जीवन में यह त्याग अवश्य ही प्रशंसनीय है।

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