247 वर्तुलगति, राधिका और रासलीला
सभी जीव घूम रहे हैं, सभी आकाशीय पिंड घूम रहे हैं ब्रह्मचक्र में। इनमें से कोई नहीं जानता कि वे परमपुरुष के चारों ओर घूम रहे हैं। वे अपनी अपनी आजीविका के लिए घूम रहे हैं। मनुष्य अपनी तीन प्रकार की आजीविका को लेकर घूमते हैं, भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। जागतिक या भौतिक आजीविका वह है जिसमें अपने शरीर की रक्षा करने के लिए कोई न कोई काम करना पड़ता है जैसे कोई किसान है, कोई नौकरी करता है, कोई व्यापारी है। मानसिक आजीव के अन्तर्गत आता है रुपए पैसे, नाम, यश और प्रतिष्ठा के पीछे भागना। चाहे सही रास्ता मालूम हो या नहीं, जानकर या अनजाने में भी, हर व्यक्ति परमात्मा की ओर जाना चाहता है। सही ज्ञान के अभाव में उसकी शक्ति का अपव्यय होता है परन्तु उसके आन्तरिक मन में यह जिज्ञासा बनी रहती है कि ईश्वर क्या है, कहाॅं है? इसे कहते हैं आध्यात्मिक आजीव। ब्रह्मचक्र में इस प्रकार का घूमना सृष्टि के लिए एक स्वाभाविक गति है। गति के लिए परमपुरुष का विधान है कि वह स्पन्दनात्मक अर्थात् ‘स्पीड एन्ड पाॅज’ या ‘सिस्टेल्टिक’ होगी और वृत्ताकार राह पर अग्रसर रहेगी। इसलिए चाहे परमाणुओं के भीतर की गति हो या अन्तरिक्ष के विशाल पिंडों की, वह वृत्तीय गति ही होती है। सभी जानते हैं कि वृत्तीय गति करने वाले कणों या पिंडों पर सदा दो प्रकार के बल कार्य करते हैं, एक केन्द्र की ओर अर्थात् ‘सेन्ट्रीपीटल’ और दूसरा केन्द्र से बाहर की ओर अर्थात् ‘सेन्ट्रीफ्यूगल’। स्पष्ट है कि यदि केन्द्र से बाहर की ओर लगने वाला बल बढ़ जाता है तो घूमने वाला केन्द्र से बहुत दूर चला जाता है और यदि केन्द्र की ओर लगने वाला बल बढ़ जाता है तो वह केन्द्र की ओर अधिक निकट चला जाता है। परमाण्विक अर्थात् ‘एटामिक’ गति से लेकर ‘सोलर सिस्टम’ या ‘गेलेक्सियों’ की गति और ‘कास्मोलाजीकल आर्डर’ अर्थात् ब्रह्मचक्र की गति सभी के लिए यही नियम लागू होते हैं।
इस गति में कोई केन्द्र के पास और कोई दूर चक्कर लगा रहे हैं और इन सक्रिय बलों के प्रभाव में वे या तो केन्द्र के और पास में या उससे बहुत दूर चले जाते हैं। ब्रह्मचक्र में इन दोनों बलों को क्रमशः विद्या और अविद्या शक्ति कहा जाता है। केन्द्रानुगा शक्ति अर्थात् विद्याशक्ति जीव को केन्द्र में स्थित परमपुरुष की ओर तथा केन्द्रातिगा अर्थात् अविद्याशक्ति, परमपुरुष से दूर हटा देती है। अविद्या अर्थात् जड़ की उपासना से जीव ब्रह्मचक्र में बहुत दूर चला जाता है पर उससे बाहर नहीं जा सकता क्योंकि बाहर कुछ है ही नहीं सभी कुछ ब्रह्मचक्र के भीतर ही है। शास्त्रों में, विद्या के रास्ते चलकर साधना करना ‘श्रेय’ और अविद्या के रास्ते चलकर जड़ोपासना करने को ‘प्रेय ’ कहते हैं। जड़ की उपासना करते समय अविद्या शक्ति का प्रभाव दो प्रकार से पड़ता है एक कहलाता है ‘विक्षेप’ और दूसरा ‘आवरण’। ‘‘विक्षेप’’ के प्रभाव में परमपुरुष से मन हटकर पाप कर्म में लगता है और सदाचार से दूर भागता रहता है पर वह भाग कर कहाॅं जाएगा उसे कोल्हु के बैल की तरह एक ही स्थान पर चक्कर लगाना ही पड़ेगा प्रगति कुछ नहीं होगी चाहे वह रोज सैकड़ों किलोमीटर चले। ‘‘आवरण’’ के प्रभाव में जीव की आँखों के सामने परदा पड़ जाता है, वह सोचने लगता है कि जब परमात्मा दिखाई नहीं देते हैं तो वे हैं ही नहीं, इसलिए वे मुझे कैसे देख सकते हैं और, मनमाने ढंग से गलत कार्य करने में लग जाता है। इस प्रकार जड़ोपासक इन दोनो बलों के प्रभाव में परमात्मा से बहुत दूर होता जाता है। विद्या की उपासना से जीव परमात्मा के बिलकुल समीप जा पहुॅंचता है। विद्याशक्ति भी साधक पर दो प्रकार से अपना प्रभाव डालती है पहला, ‘सम्वित’ और दूसरा ‘ह्लादिनी’। सम्वित शक्ति के प्रभाव में मनुष्य सोचता है, इतनी उम्र हो गई, पता नहीं कितने दिन और बचे हैं, कोई उपलब्धि नहीं, शरीर कमजोर हो गया साधना या भजन करना भी नहीं जान पाया। बुद्धिमान वे हैं जो बचपन से ही साधना करते हैं और खेलते कूदते हैं, उसके बाद पढ़ते लिखते हैं और साधना करते हैं, फिर पारिवारिक काम और साधना करते हैं फिर बुढ़ापे में केवल साधना करते हैं। साधना करने के लिए के लिए बुढ़ापे का इन्तजार नहीं करना चाहिए क्योंकि जीवन में बुढ़ापा नहीं भी आ सकता। मनुष्य जब आनन्द पाने के लिए, परमात्मा को पाने के लिए जिस शक्ति से साधना करते हैं वह भी विद्याशक्ति है परन्तु यह कहलाती है ह्लादिनी शक्ति या राधिका शक्ति। साधक इस शक्ति से जिनकी ओर चलते हैं वह हैं कृष्ण, वही सबको आकर्षित करते हैं। इस राधिका शक्ति से कृष्ण के पास जाकर उनमें मिल जाना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है, यही राधाकृष्ण का मिलन कहलाता है। इसलिए राधा कोई महिला नहीं है, वह शक्ति जो हमसे आराधना कराती है वही है राधिका।
चक्कर लगाते लगाते जीव जहाॅं पहुॅंच रहे हैं वह है परमपुरुष का रसात्मक विकास, रससमुद्र, उनका अक्षर विकास। रससमुद्र में ब्रह्मचक्र का जो प्राणकेन्द्र हैं, न्युक्लियस हैं वही हैं कृष्ण और तरंगों के साथ जीवों का उनके समीप जाना है उनकी रासलीला। धनी गरीब, पंडित मूर्ख, पुण्यवान पापी, पढ़े लिखे अपढ़, सुन्दर कुरूप, सभीको इन तरंगों के अनुसार ही नाचना पड़ेगा; चाहे वे चाहें या न चाहें पुरुषोत्तम के चारों ओर रससमुद्र में घूमना ही पड़ेगा। परमपुरुष के लिए सभी समान हैं, वे किसी से घृणा नहीं कर सकते। प्रश्न उठता है कि यह घूमना कब तक चलेगा? कभी समाप्त भी होगा या नहीं? इसका उत्तर है, जब तक जीव सोचेंगे कि मैं और मेरा इष्ट अलग अलग हैं, जिनके चारों ओर मैं घूम रहा हॅूं वे मुझसे पृथक सत्ता हैं तब तक घूमते रहना पड़ेगा। जब यह सोचने लगेंगे कि परमात्मा मेरे प्राणों के प्राण हैं मुझसे पृथक नहीं हैं; मेरे लिए मेरा मैं ‘छोटा मैं’ और परमात्मा ‘बड़ा मैं’ हैं, मैं अपने ‘‘छोटे मैं’’ को अपने ‘‘बड़े मैं’’ में मिला दूॅंगा। पृथकता का भाव समाप्त होते ही उनके साथ एक हो जाते हैं। पृथकता का भाव कैसे समाप्त होगा? इसका उत्तर है, निष्काम कर्म से, नारायण मानकर जनसेवा करने से, सेव्य में नारायण भाव का अध्यारोपण कर सेवा करने से यह बोध जागता है। मनुष्य को मनुष्य समझकर सेवा करने से कुछ नहीं मिलेगा यह तो समाज सेवा हुई, मनुष्य को नारायण समझकर सेवा करने से ही साधना सार्थक होती है। श्वेताश्वर उपनिषद में यही बात इस श्लोक में समझाई गई है।
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे वृहन्ते तस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ,
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति। (1/7)
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