Saturday 15 June 2019

251 ऋग्वेद का संदेश

251 ऋग्वेद का संदेश
तत्कालीन मनीषियों के हजारों वर्षों के अनुभवों को संस्कृत की सबसे प्राचीन कृति ‘ऋग्वेद’ में संकलित किया गया है। आने वाले समय में मनुष्य मात्र के कल्याण और सम-समाज तत्व की स्थापना के लिए अन्त में ऋषियों का स्पष्ट सुझाव यह है कि,
‘‘ संगच्छद्धवं संवद्धवं सं वो मनासि जानताम्, देवाभागं यथापूर्वे संजानाना उपासते।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः, समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।’’
अर्थात्,
संगच्छद्धवं - तुम लोग सभी मिल.जुलकर चलो। ऐसा न हो कि कोई आगे निकल जाए और कोई पीछे रह जाए। सभी को साथ लेकर आगे बढ़ो, अन्न,वस्त्र,शिक्षा,चिकित्सा और आवास का सामूहिक दायित्व लेकर एक साथ आगे बढ़ते रहो।
संवद्धवं- तुम सभी लोग एक ही आदर्श, एक ही भावना और एक ही परम लक्ष्य की बात एक साथ कहते चलो। जहाॅं एक ही लक्ष्य होगा वहाॅं मतभेद नहीं होगा, जहाॅं चलने के लिए एक ही पथ होगा वहाॅ दो तरह की बातें नहीं हो सकती, दो तरह के मत नहीं हो सकते।
सं वो मनांसि जानताम्- इसलिए तुम लोग अपने मन को अन्य अनेक लोगों के मन के साथ एक मन बनाकर, एक जानकर चलो।
देवाभागं यथापूर्वे संजानाना उपासते- जिन मनुष्यों ने परमपुरुष की ओर बढ़ते हुए अपने मन की भावना को, निम्नतर चक्र से एक एक सीढ़ी चढ़कर उच्चतर चक्रों की ओर उठाया था और मानव तेज तथा मनीषा को ऊर्ध्व  लोक में उन्मुक्त कर परमश्रेय की ओर आगे बढ़ाया था, वे कहलाए ‘‘देव’’ । अतः प्राचीनकाल के ‘देव’ कहलाने वाले उन्नत मनुष्य जिस प्रकार सबकुछ अपने बीच मिलजुलकर, बांटकर व्यवहार करते रहे हैं और महत् दृष्टान्त स्थापित कर गए हैं उनके उत्तराधिकारी तुम लोग भी उन्हीं की तरह सभी को अपने परिवार का अंग मानकर आगे बढ़ो।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः- तुम सभी का लक्ष्य एक ही है, एक ही परमपुरुष तुम्हारे उपास्य हैं। तुम्हारी इच्छाएं और आशाएं एक ही हैं और सभी एक ही ध्येय की ओर बढ़ रहे हो । इसे भूल न जाना कि तुम सभी का हृदय (अर्थात् सेंटीमेंट) भी एक है और लक्ष्य भी एक ही है। ( यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि वेद के समय व्याकरण नहीं था उस समय ऋषिगण छंद को ही प्रधानता देते थे यही कारण है कि व्याकरण के अनुसार यहाॅं होना चाहिए था ‘‘समानानि हृदयानि वः’’  परन्तु छंद के लिए कहा गया है ‘समाना हृदयानि वः’ ।)
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति- इस प्रकार तुम लोग साधना के द्वारा अनेक मनों को एक मन में रूपान्तरित कर एक सुसज्जित, सुन्दर और हास्यमुखर जनगोष्ठी में परिणत हो सकोगे।

अनेक विद्वान वेदों का भाष्य और व्याख्या करते देखे जाते हैं। उनकी शिक्षाओं और समझाई जाने वाली अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियों में प्रधानता इस बात की ही देखी जाती है कि हे प्रभो हमें धन, बल, पद, मान दे दो, हमें शत्रुओं और कष्टों से मुक्ति दे दो आदि आदि (अर्थात् हम बली, धन सम्पन्न और प्रभावी किस प्रकार बन सकते हैं) पर, इसकी चर्चा गौण होती है कि हमारे मनुष्य जीवन पाने का लक्ष्य और उद्देश्य क्या है। ऋग्वेद का यह अंतिम मंत्र, हम सबको उन्नत समाज की स्थापना करने के लिए एक साथ अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ की ओर बढ़ते रहने हेतु प्रोत्साहन प्रदान करता है।

No comments:

Post a Comment