व्यावहारिकता
जिन लोगों को साधना करने का ज्ञान नहीं हो पाता है वे वास्तविकता से दूर, तत्व के जगत में ही घूमते हैं । लोगों को परामर्श देना सरल है परन्तु व्यक्तिगत जीवन में आचरण करना किस प्रकार संभव होगा यह बताना सहज नहीं है।
जैसे, भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘‘अपनी आँखों, कानों, जीभ, नाक, काया, वाणी और मन पर संयम करो ।’’ पर प्रश्न उठता है कि कैसे? आँखें तो देखेंगी ही। बाहर की आँखें नहीं देखेंगी तो भीतर की आँखें देखेंगी। जैसे, तीर्थयात्री तीर्थ स्थानों में जाकर भी अपने गाय बछड़े और घर गृहस्थी की चीजों को भीतर की आँखों से देखते हैं, भगवान की ओर ध्यान नहीं दे पाते। इसी प्रकार कान अच्छा बुरा सब सुनेंगे ही, नाक सुगंध और दुर्गंध दोनों के संपर्क में आएगी ही, जीभ स्वाद की ओर दौड़ेगी ही, वाणी भी मधुर और कटु दोनों तरंगें उत्सर्जित करेगी और सब जानते हैं कि मन तो स्थिर रहता ही नहीं है।
जगद्गुरु बाबा, श्रीश्री आनन्दमूर्ति द्वारा प्रदत्त ‘योगसाधना’ में इन स्थितियों से बचने के लिए व्यावहारिक पद्धतियों का अनुसरण करना सिखाया जाता है। आँखों पर नियंत्रण करने के लिए जागतिक वस्तु समूह पर परमपुरुष के भाव का अध्यारोपण कैसे करते हैं, ‘प्रत्याहार’ के द्वारा प्रशंसा और निन्दा दोनों से मन को हटाने का अभ्यास किस प्रकार किया जाता है आदि। इस अभ्यास से साधक आध्यात्मिक चर्चा को सुनने के लिए तो व्याकुल रहते हैं परन्तु अपनी प्रशंसा सुनने के लिए उनके कान उदग्र नहीं होेते। साधना पथ पर ठीक ढंग से चलने पर साधक को बाहरी गंध आकर्षित नहीं करती वरन अन्दर से ही वह विशेष गंध का अनुभव करता रहता है। जीभ से भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों प्रकार का स्वाद लिया जाता है परन्तु केवल मानवोचित भक्ष्य पदार्थों का ही सेवन भगवान का प्रसाद मानकर किस प्रकार किया जाता है यह इस योगसाधना में ही सिखाया जाता है। हम अपने शरीर को अपनी इच्छाओं के अनुकूल संचालित करते हैं पर साधना में हमें यह सिखाया जाता है कि यह शरीर परमपुरुष का यंत्र है और वे हैं यंत्री; और हमें उन्हीं की इच्छानुकूल उनके कार्य हेतु प्रस्तुत कैसे रहना चाहिए। वाणी भी परमपुरुष का यंत्र है उससे कुवाक्य नहीं बोलना है, सत्य और मधुर बोलने का अभ्यास करना योगसाधना के द्वारा ही संभव होता है। मन किसी न किसी चीज में सदा ही लिप्त रहता है जिसे प्रत्याहार साधना के द्वारा परमपुरुष की ओर ले जाने का व्यावहारिक अभ्यास करना सिखाया जाता है।
अपने सभी कर्म और भावनाएं परमपुरुष को ही अर्पित करने के लिए, अष्टाॅंगयोग का पालन करते हुए सांसारिक सभी कार्य करने की सलाह भगवान श्रीकृष्ण भी देते है,
‘‘तस्मात् सर्वेषुकालेषु मामनुस्मर युध्य च, मय्यर्पित मनोबुद्धिः मामेवैष्यस्यसंशयम्।’’8/7
इस तरह अष्टांगयोग की साधना, व्यावहारिक और वैज्ञानिक आधार पर जांच.परख किए जाने के बाद पूर्णतः प्रभावी पाई गयी है, इसे सीखकर नियमित अभ्यास करने से मन के सभी संशय और भ्रम दूर होकर अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ से संपर्क कर पाना सहज हो जाता है।
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