आजकल कुछ विद्वानों को इस बात पर बहस करते देखा जाता है कि कृष्ण के समय अर्थात् पांच हजार साल पहले जब अनेक धर्म थे ही नहीं तो उनका अर्जुन से यह कहना निरर्थक है कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात् सभी धर्मो को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। कुछ विद्वानों तर्क है कि उनका यह कथन उस बनिये की तरह है जो कहता है कि मेरी दूकान में ही सबसे अच्छा माल मिलता है इसलिए अन्य दूकानों पर न जाकर केवल मेरे पास ही आओ।
वास्तव में यह बहस तब उत्पन्न होती है जब हम ‘‘धर्म’’ का अर्थ अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द के समानार्थी की तरह स्वीकार करते हैं जबकि रिलीजन का अर्थ है ‘मतवाद’ से न कि धर्म से। अंग्रेजी में धर्म के समतुल्य यदि कोई शब्द है तो वह है ड्युटी अर्थात् कर्तव्य। सोचने वाली बात यह है कि कृष्ण और अर्जुन का संवाद हो रहा है युद्ध स्थल पर। युद्ध भी तत्काल के निर्णय पर नहीं वरन् अनेक प्रकार से शान्ति के प्रयास असफल हो जाने के बाद हुआ। अब यदि कोई योद्धा कहे कि मैं इन्हें क्यों मारूं ये तो मेरे सगे संबंधी हैं, यदि ये मर गए तो इनके आश्रित संबंधियों का क्या होगा, यह पाप क्यों करना आदि, तो क्या उचित होगा? नहीं।
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर अर्थात् परमसत्ता की ओर (प्राथमिक धर्म यानी प्रधान धर्म की ओर ) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । यही समझाने के लिए उन्होंने अनेक शब्दों में से ‘‘ब्रज’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि ‘ चिंता न करो, मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा’ जो इससे पहले न किसी ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। यह केवल कृष्ण का ही सामर्थ्य है किसी बनिये का नहीं। संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद की गई पुस्तकों में प्रायः इस प्रकार के निराधार अर्थ किये गए हैं और अर्थ का अनर्थ किया गया है। पाठकों को मूल संस्कृत का निरुक्त के आधार पर स्वविवेक से अर्थ ग्राह्य करना चाहिए। कृष्ण लगातार बुला रहे हैं और हम डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है!
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