Saturday 10 August 2019

261 बौद्ध और जैन दर्शन का समाज पर प्रभाव

 बौद्ध और जैन दर्शन का समाज पर प्रभाव

यदि सावधानी पूर्वक परीक्षण किया जाय तो हम पाते हैं कि लगभग 2500  वर्ष पूर्व  वेदों के ‘‘ज्ञानकाण्ड’’ जिसमें ‘आरण्यक और उपनिषद’ आते हैं अपनी कठिनता के कारण धीरे धीरे जनसामान्य की रुचि से हट रहे थे और ‘‘कर्मकाण्ड’’ जिसमें ‘ब्राह्मण और मंत्र’ का समावेश किया गया है, अपनी ओर अकर्षित कर रहे थे।  इनके प्रभाव के विरोध में लगभग उसी समय  हुए ‘ऋषि चार्वाक’ ने आवाज उठाई। महावीर और बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अन्तर था और ‘चार्वाक’ के शिष्य ‘अजितकुसुम’ जो  बुद्ध के समकालीन थे उनका तर्क था कि ‘‘जब थोड़ी दूर खड़े व्यक्ति को कोई वस्तु देने पर वह उसके पास नहीं पहुँचती  तो जो मर चुके हैं उन्हें  घी, चावल और शहद देने पर कैसे पहुॅंचेगी?’’ समाज का एक बड़ा भाग कर्मकाण्ड के प्रभाव में आज भी देखा जा सकता है। इस तरह तात्कालिक चार्वाक के सिद्धान्तों से प्रभावित समाज में महावीर और बुद्ध ने अपनी अपनी शिक्षाओं को प्रचारित करने का कष्टसाध्य कार्य किया। स्वभावतः दोनों को समाज के पूर्ववर्ती अनुकरणकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ा।
पर, भगवान बुद्ध ने पूरे संसार में बड़ी ही समस्या उत्पन्न कर दी, विशेषतः  दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देकर। यही कारण है कि मेडीकल साईंस की प्रगति अर्थात सर्जरी और अन्य औषधीय अनुसंधान  सैकड़ों वर्ष पिछड़ गये । इसका कारण यह था कि बौद्ध  शिक्षाओं में शव को अपवित्र बताया गया है इसलिए उसे छू कर डिसेक्शन  करना और आंतरिक  ज्ञान प्राप्त करना निषिद्ध कर दिया गया था। यही नहीं बौद्ध धर्म के द्वारा लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य  क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके।

आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे अपने शरीर को ढंकने लगे। महावीर जैन ने भी सबसे पहले तो निर्ग्रन्थवाद  अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया पर अब, जब कि वे अपने शरीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहने में शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का दर्शन  जनसमान्य  का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु साॅंप और विच्छू को भी क्षमा करना चाहिये । इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया।
इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा  दी परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं।  इसके वावजूद सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं ने बुद्ध की ‘अष्टाॅंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी है। महावीर की शिक्षा ‘‘ जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचारधाराओं को मान्यता दी गई है।

गौतम बुद्ध ने ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दिया जबकि वे स्वयं परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का ध्यान करते थे और उन्हें अनुभूत किया; इसका क्या कारण यह हो सकता है? वास्तव में उन दिनों चार्वाक के अनुयायियों को पराजित करने के प्रयासों में ईश्वर के नाम पर बहुत शोषण हो रहा था, लोभी पंडों और पुजारियों द्वारा जनसामान्य को मूर्ख बनाया जा रहा था, अतः ईश्वर या भगवान का नाम सुनते ही लोग विपरीत प्रतिक्रिया करने लगे थे। इन झंझटों से बचने के लिए बुद्ध ने खुले रूप में ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा परन्तु इससे उनकी शिक्षाओं में गहरे मतभेद आ गए और परिणामतः बुद्ध का दर्शन या धर्म अनीश्वरवादी घोषित हो गया। भौतिकवादियों के लिए वह अनीश्वर धर्म बन गया अतः वर्तमान में कुछ लोग इसी कारण बौद्ध धर्म का पालन करने लगे हैं क्योंकि उनके अनुसार वहाॅं ईश्वर का कोई भय नहीं है। इसी से मिलता जुलता दृश्य चर्चों में भी देखा जा सकता है जहाॅं अनुचित व्यवहार, ‘डोगमा’ और संकीर्ण मानसिकता से ऊबकर क्रिश्चियन अनुयायी ‘‘ गाड ‘‘ अर्थात् भगवान नाम से ही चिड़ने लगे हैं । वे पूर्णतः भौतिकवादी और स्वयंकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं।

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