Friday, 23 August 2019

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‘गंगा’, ‘यमुना’ के तीर पर बैठे,
टूटती जुड़ती लहरों के व्यतिकरण में,
तुझे देखा है कई लोगों ने।

और मैं ने, ‘बेबस’ और ‘धसान’ में गोता लगाते
बार बार इस पार से उस पार जाते, आते, हृदयंगम किया है।

जबकि अन्यों को तू गिरिराज की
तमपूर्ण खोहों में छिपा मिला।

मेरे नितान्त एकान्तिक क्षणों में क्या
तू मेरे चारों ओर प्रभामंडल की तरह नहीं छाया रहा?

आज तुझे उनमें भी लयबद्ध पाया
जिन्हें लोग कहते हैं कुत्सित, घृणित और अस्पृश्य।
तेरी विराटता और सूक्ष्मता का
ऐसा आश्चर्यजनक मिश्रण
कर रहा है बार बार भ्रमित,
तथाकथित विद्वज्जनों को।

फिर भी वे, शान से....
बिना चकित हुए, तेरी माया पर
दिये जा रहे हैं लगातार..... व्याख्यान.....
ढकेल रहे हैं इस जगत को,
सत्य से पृथक,
मिथ्यात्व में।

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