ईश्वरप्रणिधान
जप क्रिया में केवल ध्वन्यात्मक लय होता है जैसे, राम राम, राम राम.... परन्तु ईश्वरप्रणिधान में इष्ट मंत्र का ध्वन्यात्मक लय मानसिक लय के साथ समानान्तरता बनाए रखता है। इसका अर्थ है कि मानसिक रूप से राम, राम राम तो कहते ही हैं परन्तु साथ ही साथ राम के बारे में सोचते भी हैं अन्यथा जप क्रिया में समानान्तरता नहीं रह पाएगी। समानान्तरता न रहने से शब्द राम अर्थात् परमपुरुष का उच्चारण करने पर ज्योंही ‘रा’ का उच्चारण किया जाता है तत्काल ‘म’ और इसके तत्काल बाद फिर से ‘रा’ उच्चारण करते समय द्वितीय स्तर पर वह ‘मरा ’ हो जाता है अतः इष्ट मंत्र परमपुरुष के स्थान पर ‘मरा अर्थात् मृत्यु’ का जाप बन जाता है। इसलिए इस प्रकार की जप क्रिया व्यर्थ हो जाती है। अतः जब तक मानसिक लय और ध्वन्यात्मक लय के बीच साम्य या समानान्तरता नहीं होगी वह ईश्वरप्रणिधान नहीं कहला सकता। इसलिये ‘ईश्वर प्रणिधान’ और ‘नाम जाप’ में जमीन आसमान का अन्तर है। ईश्वरप्रणिधान से चैतन्य हुए बीजमंत्र से उत्पन्न मानसिक तरंगें, ओंकार ध्वनि के साथ सरलता से अनुनादित हो जाती हैं और इसी अनुनाद की अवस्था में आत्मानुभूति होती है अन्यथा नहीं ।
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