‘चिकित्सा’ सेवा या व्यवसाय ?
धरती पर चिकित्सकों को, भगवान के बाद का स्तर प्राप्त है परन्तु आज हम इनमें सेवाभाव की कमी और व्यवसाय की अधिकता ही देखते हैं। यद्यपि कुछ चिकित्सकों में मानवीयता के लक्षण देखे जाते हैं परन्तु उनकी संख्या अत्यल्प ही है। यह प्रवृत्ति उन देशों में सबसे अधिक पायी जाती है जहाॅं पूॅंजीवादी व्यवस्था ने समाज पर नियंत्रण बना रखा है। सभी चिकित्सकों को अपने ‘बही खाते और शुभलाभ’ की तख्ती को निहारते देखा जा सकता है। औषधि निर्माण करने वाली कंपनियों के मालिक भी पॅूंजीपति होते हैं और केवल आर्थिक लाभ देने वाले शोधकार्य को प्राथमिकता देते हैं और चिकित्सा पर होने वाला खर्च अनेक गुना कर देते हैं । उनकी दृष्टि में रोगी उनके जैसे मानव नहीं हैं जिन्हें उनकी देखभाल कर आवश्यकता है वरन् वे उनकी दवाओं के खरीददार ग्राहक के अलावा कुछ नहीं होते हैं।
विश्वसनीय डाक्टर भी जिनसे हमें आशा हो कि इनकी चिकित्सा से लाभ होगा उनकी फीस इतनी अधिक होती है कि जनसामान्य उन तक पहॅुंच ही नहीं पाता। चिकित्सक का मन सेवाभाव से पूर्ण होना चाहिए न कि धनार्जन प्रेरित। परन्तु यदि वे धन न लें तो क्या हवा पर जीवित रहेंगे, यह पूछा जा सकता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि वे कितना धन लें? न्याय संगत धन उन्हें शासकीय /अर्धशासकीय सेवा संस्थाओं से दिया ही जाता है परन्तु उनका लालची मन अतिरिक्त धनार्जन करने से अपने को बचा नहीं पाता जिसका मूल कारण है पॅूंजीवादी व्यवस्था। एक बेरोजगार व्यक्ति के लिए चिकित्सा कार्य जीवन यापन का साधन हो सकता है परन्तु किसी भी परिस्थिति में व्यावसायिक धंधा तो कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता।
उन डाक्टरों का तो कहना ही क्या है जिनके स्वयं के क्लीनिक हैं। ये छोटी छोटी सी बीमारियों के लिए अनेक दवाओं की लिस्ट देंगे, दवाएं भी मंहगी होंगी। मेडीकल स्टोर्स के मालिकों से उनकी सांठगाॅंठ रहेगी और उनसे अच्छा कमीशन मिलेगा, इतना ही नहीं रोग से संबंधित न होने पर भी अनेक जाॅंचें करने हेतु मरीज को कहा जाता है और जाॅंच करने वाली प्रयोगशाला के मालिकों से उनका लाभाॅंश नियत रहता है। इसे धनलोलुपता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। इस मानसिकता के पीछे क्या है? पॅूंजीवाद ने ही सब के मन में बेईमानी के बीज बोए हैं और अब वे बड़ा वृक्ष बन चुके हैं। अस्पतालों में भी रोगियों के साथ अच्छा वर्ताव नहीं किया जाता, नर्सें, नौकर और स्वीपर तक, तब तक रोगी की देखरेख नहीं करते जब तक उन्हें टिप नहीं मिल जाती। मरीजों को दिया जाने वाला भोजन भी पौष्टिक नहीं होता और उसके साथ मिलने वाले फल और दूध को अस्पताल का स्टाफ खा जाता है। इस प्रकार की शिकायतों की लम्बी लिस्ट है जो अविश्वासनीय सी लगती है पर भुक्तभोगी ही जानते हैं कि यह सभी सच है।
सभी लोग चाहेंगे कि यह स्थिति दूर हो जाए परन्तु यह तब तक संभव नहीं है जब तक चिकित्सा उद्योग में सेवोन्मुख भावना को नहीं जगाया जाता। एक दृश्य यह भी है कि बड़ी बड़ी कम्पनियाॅं दुर्लभ बीमारियों (जैसे, विटिलिगो, टेस्टीकुलर केंसर, गेस्ट्रिक लिम्फोमा और अनेक) पर अनुसंधान करने में व्यय न कर हाईब्लडप्रेशर जैसी बीमारियों पर नई नई दवाएं खोजने में पूँजी लगाती हैं क्योंकि इनसे उन्हें अधिक लाभ मिलता है; जबकि इसे दूर करने के लिए सबसे अच्छा मार्गदर्शन यह है कि रोगी को अपनी जीवन पद्धति (भोजन, व्यायाम और मेडीटेशन आदि) में सुधार करने को कहा जाए। पर वे यह नहीं करेंगे क्योंकि ब्लड प्रेशर की दवा तो सोने की खदान है, रोगी को इसे आजीवन लेते रहने सलाह दी जाती है और करोड़ों लोगों के द्वारा रोज ही इसका उपयोग किया जाता है। डक्टरों की भावना यह हो गई है कि अधिक से अधिक लोग बीमार होते रहें और उनकी दूकानदारी दौड़ती रहे। इस प्रकार की स्वार्थमय भावना जहाॅं घर कर गई हो, जहाॅं मानवता से कोई प्रेम न हो, वहाॅं चिकित्सा व्यवसाय करने वालों से समाज सेवा की आशा कैसे की जा सकती है। इस मानसिकता के लोग यह सिद्धान्त भूल जाते हैं कि एक स्तर के बाद धन महत्वहीन हो जाता है और जब तक, यह समझ में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा ये मानव मात्र की मूलभूत आवश्यकताएं हैं इनसे किसी को भी खिलवाड़ करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
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